बिहार में चुनावी मौसम के बीच जानिए इस राज्य के उस गांव की कहानी जो देशभर में अपने झूलों के लिए मशहूर है. इस गांव का नाम है कन्हैया गंज, जो नालंदा है. नालंदा जिले के एकाग्रसराय में स्थित कन्हैया गंज गांव की पहचान यहां का झूला है.
यहां कोई बड़ा कारखाना नहीं है, बल्कि गांव के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी इस काम को करते आ रहे हैं. इस गांव की सबसे खास बात यह है कि आप यहां घर-घर में झूले बनते हुए देख सकते हैं. यह देखना एक अलग अनुभव है कि कैसे लोहे के पाइप और लकड़ी के टुकड़ों से बड़े-बड़े झूलों का ढांचा तैयार होता है. सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि ये कारीगर कहीं बाहर ट्रेनिंग लेने नहीं जाते. ये कला अपने घर के बड़े-बुजुर्गों को देख-देख कर सीखते हैं. यही कारण है कि इनकी कारीगरी में एक खास सटीकता और मजबूती होती है. स्थानीय लोगों के अनुसार, इस गांव में लगभग 300 विश्वकर्मा जाति के परिवार रहते हैं, और यही लोग मिलकर इस पूरे उद्योग को चलाते हैं.
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कन्हैया गंज गांव सिर्फ नालंदा तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसका बनाया हुआ झूला पूरे देश में घूमता है. यहां के कारीगर देश के विभिन्न हिस्सों में लगने वाले बड़े मेलों और प्रदर्शनियों के लिए झूले भेजते हैं. इनका कारोबार इतना बड़ा है कि देश के कोने-कोने से खरीददार सीधे गांव में आकर झूले बुक करते हैं. इन झूलों की मजबूती और टिकाऊपन पर लोगों को इतना भरोसा है कि पीढ़ियों से लोग यहीं से झूले खरीदना पसंद करते हैं. यहीं वजह है कि इन्हें 'सबसे मजबूत झूले' बनाने वाला गांव भी कहा जाता है.
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कन्हैया गंज भले ही टूरिस्ट मैप पर कोई विशेष जगह न हो, लेकिन यह उन लोगों के लिए एक अनोखा ट्रैवल एक्सपीरियंस हो सकता है जो स्थानीय कला देखना चाहते हैं. अगर आप भारत के स्थानीय शिल्प और कारीगरी को करीब से देखना चाहते हैं, तो यह एक दिलचस्प जगह है. यहां आप एक पूरे छोटे उद्योग को अपनी आंखों के सामने बनते हुए देख सकते हैं, जो खुद में एक आत्मनिर्भर मॉडल है.
नालंदा जिले के बिहार शरीफ से लगभग 30 किलोमीटर दूर, यह गांव दिखाता है कि कैसे पारंपरिक ज्ञान और पीढ़ीगत कौशल आज भी एक सफल और मजबूत उद्योग को जन्म दे सकता है.
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