जश्न-ए-रेख्ताः सर चढ़ के बोला उर्दू जबां का जादू

शुक्रवार से रविवार तक तीन दिन के जश्न-ए-रेख्ता में प्यार-मोहब्बत और आम लोगों की भाषा का जादू वाकई सिर चढक़र बोला. लोगों का हुजूम देखकर सब यही कह रहे थे कि रेख्ता फाउंडेशन के संस्थापक और उर्दू के चाहने वाले संजीव सराफ ने इस जबान को बहुत ही सौम्य ऑडिएंस दिए हैं.

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जश्न-ए-रेख्ता जश्न-ए-रेख्ता

सुरभि गुप्ता

  • नई दिल्ली,
  • 15 फरवरी 2016,
  • अपडेटेड 9:55 PM IST

शुक्रवार से रविवार तक तीन दिन के जश्न-ए-रेख्ता में प्यार-मोहब्बत और आम लोगों की भाषा का जादू वाकई सिर चढक़र बोला. लोगों का हुजूम देखकर सब यही कह रहे थे कि रेख्ता फाउंडेशन के संस्थापक और उर्दू के चाहने वाले संजीव सराफ ने इस जबान को बहुत ही सौम्य ऑडिएंस दिए हैं.

लुटियन्स दिल्ली में इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स में आयोजित इस तीन दिवसीय कार्यक्रम के लिए उसके विभिन्न हिस्सों को अलग-अलग नाम दे दिया गया था: दीवान-ए-आम (स्टेज लॉन), दीवान-ए-खास (ऑडिटोरियम), बज्म-ए-रवां (एंफीथिएटर) और कुनूज-ए-सुखन (स्पीकिंग ट्री). एक साथ इन सभी जगहों पर अलग-अलग प्रोग्राम चल रहे थे, जिन्हें लोग अपनी पसंद के मुताबिक देख-सुन रहे थे. दास्तानगोई, प्ले, मुशायरा , कव्वाली, परिचर्चा, बैतबाजी, कैलीग्राफी, लेक्चर, प्रदर्शनी, गद्य और पद्य का पाठ, 10-16 साल के बच्चों के लिए अलग से कार्यक्रम, उर्दू से जुड़ी हर शै पर कुछ न कुछ जरूर था.

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पहला दिन: शुक्रवार, 12 फरवरी
पहले रोज शाम को दिल्ली के उपराज्यपाल ने इस कार्यक्रम का उद्घाटन किया और उसके बाद जावेद अख्तर और शबाना आजमी ने 'कैफी और मैं' प्ले किया. यह शौकत और कैफी आजमी के संघर्ष की कहानी है, जिसमें बीच-बीच में कैफी के लिखे गाने गाए जाते हैं. आखिर में, शबाना जिस तरह से कैफी की मौत के बाद अपनी मां की लिखी लाइनों को जिस भावुकता के साथ बोलती हैं, उससे दर्शक जज्बाती होते लगते हैं. शबाना और जावेद की इस पेशकश से लगता है कि मानो हम शौकत और कैफी को देख रहे हैं.

दूसरा दिन: शनिवार, 13 फरवरी
दीवान-ए-आम में सुबह 11 बसे से गुलजार को सुनने के लिए लोग अपनी सीट पर बैठ गए. गुलजार ने सुकृता पॉल कुमार के साथ बातचीत में उस जबान के जादू के बारे में बताया, जिसमें वे लिखते-पढ़ते रहे हैं. इसके बाद हर आधे घंटे के वक्फे के साथ रात के 11 बजे तक वहां चार और प्रोग्राम हुए. गालिब के खतों पर आधारित एम. सईद आलम के प्ले मशहूर शायर के नजरिए से उस जमाने की घटनाओं पर राय है, जिसमें टॉम आल्टर ने जबरदस्त भूमिका निभाई.

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इसके बाद पाकिस्तान के मशहूर कव्वाल साबरी ब्रदर्स ने समा बांधा. उन्होंने कहा, 'हम सब हाजी हैं, लेकिन हिंदुस्तान का दम भरते हैं.' सूफी कलाम से शुरू करके उन्होंने 'देर न हो जाए, कहीं देर न हो जाए' और 'छाप तिलक सब छीनी' तक कई तरह के कलाम पेश किए, जिसमें उन्होंने मशहूर शायरों के शेर बहुत खूबसूरत अंदाज में पेश किया. इसके बाद बज्म-ए-सुखन: मुशायरा देर रात तक चला. मुशायरे से पहले उर्दू के अदीब इंतिजार हुसैन और शायर निदा फाजली को याद किया गया. ये दोनों लोग इस बार जश्न-ए-रेख्ता में शामिल होने वाले थे, लेकिन किस्मत को यह मंजूर न था और इससे पहले ही उनका इंतकाल हो गया.

मुशायरा निदा फाजली की याद में अंजाम दिया गया जिसमें हिंदुस्तान और पाकिस्तान के शायरों ने अपने कलाम पढ़े. अब्बास ताबिश, अनवर मकसूद, सुखबीर सिंह शाद और राजेश रेड्डी को काफी वाहवाही मिली. रेड्डी के शेर 'सर कलम होंगे कल यहां उनके, जिनके मुंह में जबान बाकी है' और अब्बास ताबिश के शेर 'एक मुद्दत से मेरी मां नहीं सोई ताबिश, मैंने एक बार कहा था, डर लगता है' को खूब वाहवाही मिली, हालांकि ये शेर वे पहले भी कई मुशायरों में पढ़ चुके हैं.

दूसरी ओर, दीवान-ए-खास में पांच कार्यक्रम थे, जिनकी शुरुआत इस्मत चुगताई: रिवायत शिकन औरत की आवाज से हुई और आखिर में 'मुगल-ए-आजम' दिखाया गया. उधर, एंफीथिएटर में किताबों का विमोचन और विभिन्न विषयों पर बातचीत जारी थी. शाम को नाबीना (दृष्टिहीन) बच्चों ने बहुत खूबसूरत गाने पेश किए.

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तीसरा दिन: रविवार, 14 फरवरी
दीवान-ए-आम में सुबह 11 बजे से 'जिंदगी, आशिकी और शायरी' पर कौसर मुनीर के साथ जावेद अख्तर की बातचीत से शुरआत हुई और इसके बाद छह कार्यक्रम हुए. इस बार दास्तानगोई में देश के बंटवारे और उसके दर्द को दारेन शाहिदी और अंकित चड्ढा बहुत खूबसूरती के साथ पेश किया. इसके बाद एम.एस. सथ्यू निर्देशित 'दारा शिकोह' का मंचन किया गया. बड़े-बड़े टीवी स्रीसेन पर यह ड्रामा ऐसा लग रहा था मानो कोई फिल्म दिखाई जा रही है. इसके बाद रफाकत अली खान ने अपनी गायकी से जश्न-ए-रेख्ता को अपने शबाब पर पहुंचा दिया.

उधर दीवान-ए-खास में कार्यक्रम की शुरुआत 'उर्दू-हिंदी अदब: मुख्तलिफ लफ्जों में मुशतरका ख्वाब' पर चर्चा से हुई और फिर एक के बाद एक विषय पर चर्चा हुई. आखिर में 'बर्रे सगीर का अफसाना: इंतिजार हुसैन को खिराज-ए-अकीदत' पर चर्चा हुई. इस बीच एंफीथिएटर में किताबों का विमोचन, मजाहिया शायरी और अलग-अलग तरह के प्रोग्राम चल रहे थे.

संस्कृति की झलक
हाल के दिनों में इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स में कभी इतना मजमा नहीं जुटा होगा. मजेदार बात यह है कि उर्दू का जश्न मनाने वाले इस कार्यक्रम में ज्यादातर वे लोग थे जो उर्दू पढ़नी-लिखना तक नहीं जानते, लेकिन इसी देश में पैदा हुई और परवान चढ़ी जबान के कायल हैं. पूर्वी दिल्ली के पूर्व सांसद संदीप दीक्षित तीनों रोज वहां अलग-अलग कार्यक्रम में नजर आए. वे इसकी कामयाबी से काफी खुश थे, 'बेहद डिसेंट जेंटरी है. इनमें 90 फीसदी लोग उर्दू नहीं जानते होंगे, लेकिन साझी संस्कृति के कायल हैं.'

 

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रेख्ता के आयोजकों ने यह सुनिश्चित किया था कि पूरा माहौल साझा संस्कृति को पेश करे. इसके लिए जगह-जगह पर उर्दू के नजम, शेर या इसके बारे में बड़े लोगों की उक्तियों को प्लेकार्ड पर उकेरा गया था. नजीर अकबराबादी की कविता 'महादेवजी का ब्याह या इकबाल की 'इमाम-ए-हिंदू, हसरत मोहानी की 'कृष्ण' उर्दू और हिंदी में लिखी हुई थीं. सबसे मजेदार दिल्लू राम कौसरी का 'शनाख्वाने मुस्तफा' लगा, जिसमें उन्होंने दोजख बताया है कि उसकी आग उन्हें क्यों न जला सकी: हिंदू सही मगर हूं शनाख्वाने मुस्तफा, इस वास्ते तेरा शोला न मुझको जला सका/ है नाम दिल्लू राम तखल्लुस है कौसरी, अब क्या कहूं बता दिया जो कुछ बता सका.'

उर्दू के चाहने वालों के लिए एक 'उर्दू बाजार' था, जिसमें विभिन्न प्रकाशकों ने अपनी किताबों की नुमाइश की थी. इसके अलावा, बेहतरीन किस्म के खाने-पीने का इंतजाम था, जिनमें अवधी, कश्मीरी, दक्कनी, पंजाबी, मुगलई व्यंजनों का जायका लिया जा सकता था. एक ही स्टॉल पर 20 तरह की चाय का स्वाद लिया जा सकता था. इसके अलावा, स्टैंडर्ड पान भंडार पर हर तरह का पान उपलब्ध था. जगह-जगह मुफ्त में पानी का इंतजाम किया गया था.

संजीव सराफ और उनकी रेख्ता टीम ने उर्दू को शानदार और नफीस ऑडिएंस दिया, इस जबान को उन लोगों के बीच मकबूल कराया जो इससे वाकिफ नहीं. इसके लिए उन्हें काफी लोगों ने सराहा.

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