जानें किस तरह बड़े सितारे हो रहे हैं बॉक्स ऑफिस पर ढेर

बॉक्स ऑफिस पर लगातार पिटती फिल्मों से बॉलीवुड के बड़े सितारों के होश फाक्चता, बिन कहानी बढ़ता बजट और सितारों की बढ़ती फीस नाकामी की बड़ी वजहें.

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aajtak.in

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  • 27 अप्रैल 2015,
  • अपडेटेड 5:27 PM IST

शहंशाह बॉक्स ऑफिस पर कब्जे की लड़ाई में अपना हक तो दूर, अस्तित्व के लिए जूझता नजर आ रहा है. छोटे नवाब का आइडिया टिकट खिड़की पर सैड एंडिंग के अलावा कुछ नहीं दे पा रहा है. हिम्मतवाला भी ऐक्शन के फेर में फंसकर पानी मांगता नजर आ रहा है जबकि सीरियल किसर से सीरियल हिटर का खिताब पाने वाला सितारा एक अदद हिट के लिए तरस रहा है. ये बॉलीवुड के ताजा हालात हैं, जहां बड़ी-बड़ी फिल्में और सितारे धूल चाटते नजर आ रहे हैं. अमिताभ बच्चन से लेकर इमरान हाशमी जैसे दिग्गजों की फिल्में बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिर रही हैं. हर हफ्ते के साथ घाटा बढ़ता जा रहा है और पिटी हुई फिल्मों की संख्या भी. फ्लॉप फिल्मों की इस गुत्थी को तोड़ने की बॉलीवुड की हर कोशिश नाकाम होती दिख रही है.

सवाल उठता है कि क्या बढ़ता बजट, सितारों की आसमान छूती फीस, कमजोर कहानी या फिर नए दौर से बॉलीवुड का तालमेल न बिठा पाना इस हालत का जिम्मेदार है? फिल्म डायरेक्टर और प्रोड्यूसर महेश भट्ट के मुताबिक, फिल्मों की लागत आसमान छू रही है और कंटेंट गर्त में जा रहा है, जिससे फिल्मों की कामयाबी की दर में जबरदस्त गिरावट आ रही है. वे कहते हैं, ''रेत के महल बन रहे हैं तो गिरेंगे ही. कमजोर कथानक और मोटा बजट नाकामयाबी की वजह बन रहा है.''


इस साल की पहली तिमाही बड़े सितारों के हौसले बढ़ाने वाली नहीं रही है. अमिताभ बच्चन (शमिताभ), रणबीर कपूर (रॉय), इमरान हाशमी (मि. एक्स) का हश्र बुरा रहा है जबकि युवा सितारों अर्जुन कपूर (तेवर), सुशांत सिंह राजपूत (डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी) और आयुष्मान खुराना (हवाईजादा) की फिल्में भी बॉक्स ऑफिस पर पानी मांगती नजर आईं. इन फिल्मों का कोई नामलेवा तक नहीं था. हालांकि ट्रेड एक्सपर्ट अतुल मोहन मानते हैं कि परीक्षाओं और क्रिकेट की वजह से पहली तिमाही हमेशा ही थोड़ी फीकी रहती है. इसी वजह से, वे कहते हैं, ''अमूमन इस तिमाही में ऐसी फिल्मों को रिलीज करने की कोशिश होती है, जिनके न कथानक में दम होता है और जो जैसे-तैसे बनी होती हैं.'' वजह चाहे जो हो लेकिन सचाई यही है कि पिछले साल सितंबर से लेकर अब तक पीके को छोड़ दें तो बॉक्स ऑफिस पर किसी बड़े सितारे की फिल्म चमत्कार नहीं कर सकी है. यह उस इंडस्ट्री के लिए अच्छे संकेत तो नहीं हैं जिससे करोड़ों लोगों के सपने जुड़े हैं और जिसने भारत को विश्व मंच पर अलग पहचान दिलाई है.

ऊंची दुकान, फीके पकवान
हाल ही में इमरान हाशमी की मि. एक्स ने बॉक्स ऑफिस पर दस्तक दी. वीएफएक्स का कमाल. गायब आदमी की कहानी और थ्रीडी का मजा. फिर इमरान हाशमी किसिंग के साथ अपने टारगेट ऑडियंस को भी लुभा रहे थे. लेकिन 40 करोड़ रु. की लागत से बनी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर पस्त हो गई. फिल्म पहले पांच दिन में लगभग 16.50 करोड़ रु. की ही कमाई कर सकी. इस तरह इमरान की 2012 के बाद यह लगातार पांचवीं फ्लॉप थी. हालांकि इमरान इन झटकों से सबक नहीं ले सके हैं और कमजोर कहानी वाली फिल्में लगातार करते जा रहे हैं. मगर फिल्म के प्रोड्यूसर महेश भट्ट इसकी कुछ और ही वजह बताते हैं, ''हमने आशिकी-2 10 करोड़ रु. में बनाई थी और फिल्म ने 100 करोड़ रु. कमाए लेकिन इस बार हमारा बजट कुछ ज्यादा ही हो गया और ऐसी फिल्म बनाई जैसी फिल्में हॉलीवुड में धड़ल्ले से बनती हैं.''

फिल्म का बजट प्रोड्यूसर और इंडस्ट्री के लिए सिरदर्द बनता जा रहा है. बजट बढ़ने की मोटी वजह ऐक्टरों की बढ़ती फीस बताई जाती है. एक ट्रेड एक्सपर्ट बताते हैं कि बड़े स्टार वाली फिल्मों में करीब एक-तिहाई तो स्टारों की फीस ही हो जाती है यानी 50 करोड़ रु. की फिल्म है तो 30-35 करोड़ रु. तक उनकी फीस पर ही खर्च हो जाते हैं. इससे कमाई की मार्जिन लगातार कम होती जा रही है और कई मामलों में तो लागत तक नहीं निकल पाती. हाल में अमिताभ की शमिताभ रिलीज हुई, फिल्म का बजट 58 करोड़ रु. बताया जाता है पर यह बॉक्स ऑफिस पर 18 करोड़ रु. ही जुटा सकी.

बड़े सितारों की फिल्मों के पिटने की दास्तान तो काफी बुरी है. अमिताभ लगातार सात फ्लॉप दे चुके हैं तो सैफ अली खान (हमशकल्स और हैप्पी एंडिंग) और रणबीर कपूर की पिछली दोनों फिल्में रॉय (2015) और बेशर्म (2013) भी मुंह के बल गिरी हैं. इमरान खान तो फ्लॉप फिल्में देने के बाद दृश्य से ही गायब हैं जबकि अजय देवगन की सिंघम रिटर्न्स को छोड़ दिया जाए तो हिम्मतवाला, सत्याग्रह और ऐक्शन जैक्सन जैसी फ्लॉप उनके नाम दर्ज हैं. अतुल मोहन मानते हैं कि बड़े स्टार ऑडियंस कनेक्ट खोते जा रहे हैं. उनके मुताबिक, ''आज की ऑडियंस कुछ नया चाहती है. वह अपने हीरो को बार-बार वही चीजें करते नहीं देखना चाहती. लेकिन यह भी ध्यान में रखें कि अलग करने का मतलब यह नहीं कि ऐसी चीज कर दी जाए, जो लोगों के पल्ले ही न पड़े.'' इमरान और अमिताभ के मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ.

पैशन बनाम बिजनेस
आज बॉलीवुड का सबसे बड़ा संकट शायद यही है कि यहां सब कुछ बिजनेस और करियर के ख्याल से होने लगा है. फिल्म बनाने का पैशन तो शायद ही किसी फिल्मकार या सितारे में दिखता है. गुरुदत्त या कमाल अमरोही जैसे पैशन वाले फिल्मकार तो पुराने जमाने की बात हो चुके हैं, कोई नया आइडिया भी अब किसी को नहीं सूझता. महज पैसा कमाना ही जब पैशन बन गया है, तो फिल्मों में कला पक्ष गौण होता गया है. सुपरस्टारों के दौर में तो रही-सही कसर भी पूरी हो गई. कलाकार कला से ऊपर होता चला गया. नई सदी में कदम रखने के साथ यह बात बॉलीवुड में हावी हो गई. ऐड गुरु प्रह्लाद कक्कड़ कहते हैं, ''अब डायरेक्टरों की फिल्में बनना बंद हो गई हैं. आज फिल्में सुपरस्टार्स के नाम पर टिकी होती हैं. बड़ा ऐक्टर साइन होना चाहिए, स्क्रिप्ट तो सेट पर भी तैयार हो जाती है. हमारे इंडस्ट्री के लोग ट्रेंड नहीं हैं.''

यही बात आखिर में नैरेशन क्राइसिस के रूप में सामने आती है. बिना प्रशिक्षण के लोगों का काम भी फिर अलग ही ढर्रे पर चलता है. विशेषज्ञ मानते हैं कि नैरेशन क्राइसिस की वजह से ही रीजनल सिनेमा मजबूती के साथ उभर रहा है या फिर छोटे बजट की मजबूत कहानी वाली फिल्मों को पसंद किया जा रहा है. जिसका इशारा पिछले दिनों किस्सा (पंजाबी फिल्म) के तौर पर देखने को मिला जबकि एनएच10, दम लगा के हइशा और बदलापुर जैसी छोटे और मझोले बजट की फिल्में बॉक्स ऑफिस की चहेती बनीं. महेश भट्ट कहते हैं, ''रिजनल सिनेमा जड़ों से जुड़ा है तो हिंदी सिनेमा की जड़ें खोती जा रही हैं.'' कला की सोच न होने से एक ही विषय पर एक जैसी फिल्में दर्शकों को बोर करती हैं. मसलन, फगली (2014) और उंगली (2014) तो भ्रष्टाचार से एक ही तरह से निबटती हैं. अब अक्षय कुमार भी गब्बर इज बैक में वही करते नजर आएंगे.

चट रिलीज, पट पलीता
पहले फिल्मों के कुछ ही प्रिंट रिलीज किए जाते थे और जनता की दिलचस्पी दिखने के बाद प्रिंट की संख्या बढ़ाई जाती थी. लेकिन, अब करण जौहर जैसे बड़े प्रोड्यूसरों ने थोक में एक साथ प्रिंट जारी करने का रिवाज शुरू कर दिया है. हालांकि इसकी एक वजह यह भी है कि प्रिंट बनाना काफी सस्ता हो गया है. पहले एक प्रिंट की कीमत एक लाख रु. तक पड़ती थी वहीं प्रिंट के डिजिटल होने से मामूली खर्च में ही सब हो जाता है. प्रह्लाद कक्कड़ कहते हैं, ''बड़े प्रोड्यूसर्स ने 4,000 प्रिंट एक साथ रिलीज करने शुरू किए और इस तरह फिल्म खराब भी हो तो पहले हफ्ते में अपनी लागत निकाल लेती थी. लेकिन सोशल मीडिया ने दर्शकों को सयाना बना दिया है. अब शनिवार आते-आते अगर फिल्म खराब है तो उसकी हवा निकल जाती है.''
ट्विटर पर पीके को लेकर हैशटैग वार काफी अहम रहा और इसने फिल्म को आगे ले जाने में अहम भूमिका भी निभाई. फिल्म के समर्थकों ने 'we support pk'  हैशटैग वार चलाया तो फिल्म का विरोध करने वालों ने 'boycott pk'  को हवा दी. इस तरह इस जंग की वजह से लोगों में जिज्ञासा जगी और फिल्म ने रफ्तार पकड़ी.

हालांकि सोशल नेटवर्किंग साइट्स की दुनिया बड़ी बेरहम है. यहां, सिर्फ अच्छे और बुरे की जंग चलती है, आपका कंटेंट कैसा है, यही मायने रखता है. तभी तो अमिताभ के ट्विटर पर 1,40,46,059 फॉलोअर्स हैं, लेकिन जब बात फिल्म देखने और अपने डेढ़ सौ रु. दांव पर लगाने की आती है तो ये भी फूंक-फूंककर ही कदम रखते हैं. यह बात भी गौर करने लायक है कि अमिताभ बच्चन, अजय देवगन और सैफ अली खान जैसे टीवी वगैरह पर प्रचार से दूर रहने वाले सितारे भी अब इससे गुरेज नहीं कर रहे हैं. फिर भी, कामयाबी हाथ नहीं आ रही है.

तो, उपाय क्या है? कक्कड़ कहते हैं, ''बड़े प्रोडक्शन हाउस और सितारों की मोनोपॉली को तोडऩा होगा. इससे छोटी फिल्में या तो डिब्बे में बंद रह जाती हैं या उन्हें पर्याप्त सिनेमाघर नहीं मिल पाते.'' बिलाशक, सिनेमा के बेहतर भविष्य के लिए यह एक बड़ा सूत्र है, और 2015 की सफल फिल्मों को देखकर संकेत मिलने लगे हैं कि वह दिन दूर नहीं जब यह बात सच हो जाएगी.

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