उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजे बीजेपी के लिए भूकंप जैसे रहे. लेकिन ये भूकंप तब ज्यादा महसूस होने लगा जब संघ के नेताओं का रिएक्शन सामने आने लगे. नसीहत के तौर पर भी, और कटाक्ष के रूप में भी.
जैसे ही संघ प्रमुख मोहन भागवत की तरफ से नसीहत आई और सीनियर नेता इंद्रेश कुमार ने कटाक्ष कर किया.
कुछ हल्के फुल्के झटके तब भी महसूस किये गये जब 24 घंटे के भीतर ही इंद्रेश कुमार की तरफ से भूल सुधार जैसी कोशिश नजर आई - और तभी गोरखपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रम में मोहन भागवत के पहुंचने के साथ ही नई चर्चा शुरू हो गई, क्योंकि चर्चा में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का नाम जुड़ गया.
अब तो हालत ये हो गई है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बनारस दौरे से पहले यूपी की राजनीति का एपिसेंटर गोरखपुर बन गया है. लोकसभा चुनाव के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 18 जून को पहली बार अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी जाने वाले हैं - और संघ के कार्यकर्ता विकास वर्ग प्रशिक्षण सम्मेलन के बीच योगी आदित्यनाथ गोरखपुर जाकर लखनऊ लौट आये हैं.
योगी आदित्यनाथ के गोरखपुर दौरे से पहले से ही संघ प्रमुख मोहन भागवत के से उनकी मुलाकात की जोरदार चर्चा रही. मीडिया में तो मुलाकात तक की खबरें भी आ गईं. इंडियन एक्सप्रेस ने तो एक दिन में दो दो मुलाकातों की खबर दे दी, समय और स्थान के साथ - लेकिन सूत्रों के हवाले से.
और फिर ये भी खबर आने लगी कि भागवत और योगी की गोरखपुर में कोई मुलाकात नहीं हुई है. संघ प्रमुख पहले भी गोरखपुर जाते रहे हैं, और योगी आदित्यनाथ से मुलाकात भी होती रही है, लेकिन ऐसा कन्फ्यूजन तो पहले नहीं देखा गया.
4 जून को चुनाव नतीजे आने के बाद से ही योगी आदित्यनाथ को सवालों के कठघरे में खड़ा किया जाने लगा है. करीब करीब वैसे ही जैसे 2017 के गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव पर खड़ा किया जा रहा था. कोई प्रयोग हो, या संयोग दो बार बीजेपी की हार के कारण ही सवाल उठे.
लेकिन संघ प्रमुख के बयान के बाद मामले में नया ट्विस्ट आ गया. कुछ ऐसा लगा जैसे सवालों का वो कठघरा योगी आदित्यनाथ के इर्द गिर्द से शिफ्ट होकर मोदी-शाह के आस-पास खड़ा हो गया है - सन्नाटा तो नहीं लेकिन सस्पेंस जरूर छाया हुआ है.
यूपी बीजेपी में क्या चल रहा है?
केंद्र की सत्ता में बीजेपी की दस साल पहले वापसी हुई थी. और 2014 से अब तक यूपी में दो विधानसभा के लिए और दो लोकसभा के चुनाव हो चुके हैं. 2014 के आम चुनाव को मिला कर गिनें तो कुल पांच बड़े चुनाव कह सकते हैं.
2014 में योगी आदित्यनाथ उतनी ही चर्चा में थे, जितने पहले के चुनावों में हुआ करते थे. वो खुद भी गोरखपुर लोकसभा सीट से पांचवीं पर चुनाव मैदान में थे, और हर बार की तरह जीते भी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में बहुत सारे नेता मंत्री बनाये गये लेकिन योगी आदित्यनाथ को मौका नहीं दिया गया.
तीन साल बाद भी जब 2017 में यूपी में विधानसभा के चुनाव हो रहे थे तब भी योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री पद की रेस में कहीं नजर नहीं आये थे. बहुत सारे नाम चर्चा में हुआ करते थे, लेकिन योगी आदित्यनाथ का नाम या तो नहीं होता, या फिर सूची में सबसे नीचे हुआ करता था.
2014 की ही तरह यूपी में 2017 का विधानसभा चुनाव भी बीजेपी ने मोदी के नाम पर ही जीता था. ऐसा ही कहा भी गया, माना भी गया और समझा भी गया. और उसी तरह 2019 के बाद 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में भी अमित शाह मोदी के ही नाम पर वोट मांग रहे थे. चुनावी रैलियों में सुनने को तो अपील यही की जाती रही कि लोग योगी को इसलिए मुख्यमंत्री बनायें ताकि 2024 में मोदी फिर से प्रधानमंत्री बन सकें. 2022 में तो यूपी के लोगों पर अमित शाह की अपील पूरा असर हुआ, लेकिन 2024 के नतीजे आने तक तो ऐसा लगा जैसे सब कुछ बेअसर हो गया था.
ताजा लोकसभा चुनाव के नतीजों की जिम्मेदारी एक बार फिर योगी आदित्यनाथ से लेकर मोदी-शाह के बीच घूम रही है. बल्कि ऐसा लग रहा है जैसे झूल रही है - और बीजेपी के चुनावी प्रदर्शन में संघ की भी भूमिका देखी जा रही है.
संघ किसके साथ है, योगी या बीजेपी नेतृत्व के?
चुनाव नतीजे आने के बाद पहली बार संघ प्रमुख मोहन भागवत की जो भी समझाइश सामने आई, सुन कर तो ऐसा ही लगा जैसे निशाने पर बीजेपी नेतृत्व ही हो. अब बीजेपी नेतृत्व को संयुक्त रूप से देखा जाये, या बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा, केंद्रीय मंत्री अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अलग अलग करके. तकनीकी तरीका जो भी हो, लेकिन बीजेपी के फैसले मोटे तौर तो ऐसे ही लगते हैं, जैसे अमित शाह के फैसलों पर मोदी की मुहर लग जाने के बाद जेपी नड्डा दस्तखत कर देते हैं - और ऐसा होना कोई बुरा भी नहीं है. कहीं भी मिलजुल कर फैसले लिये जायें, ये तो अच्छा ही. कांग्रेस में भी तो घुमा फिराकर ऐसा ही फॉर्मैट दिखता है. कुछ क्षेत्रीय दलों में भी ऐसा ही होता होगा.
संघ प्रमुख की एक टिप्पणी में तो बीजेपी नेतृत्व ही निशाने पर लगता है, 'ये सही नहीं है कि टेक्नोलॉजी की मदद से झूठ फैलाया जाये... केंद्र में भले ही एनडीए सरकार वापस आ गई है, लेकिन देश के सामने चुनौतियां खत्म नहीं हुई हैं.'
और उसके ठीक बाद संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य इंद्रेश कुमार का कहना, 'राम राज्य का विधान देखिये... जिनमें राम की भक्ति थी और धीरे-धीरे अहंकार आ गया, उन्हें 240 सीटों पर रोक दिया... जिन्होंने राम का विरोध किया, उनमें से राम ने किसी को भी शक्ति नहीं दी.'
संघ प्रमुख ने तो और भी बातें कही थी, जिनमें करीब करीब सभी बीजेपी नेतृत्व के लिए नसीहत लगीं, लेकिन इंद्रेश कुमार अपने बयान से पलट गये और मोदी सरकार के गुणगान करने लगे. अपनी तरफ से सफाई देकर इंद्रेश कुमार ने डैमेज कंट्रोल करने की पूरी कोशिश की - और शायद इसीलिए अभी तक दत्तात्रेय होसबले की कोई टिप्पणी सुनने को नहीं मिली है, जबकि संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर में बहुत कुछ लिखा गया और निशाने पर बीजेपी ही रही.
यूपी के नतीजों को लेकर योगी आदित्यनाथ के लपेटे में आने की एक वजह दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का एक बयान भी रहा, जिसमें उन्होंने कहा था कि चुनाव बाद प्रधानमंत्री मोदी रिटायर हो जाएंगे, और अमित शाह यूपी के मुख्यमंत्री की कुर्सी से योगी आदित्यनाथ को हटा देंगे.
सवाल ये है कि क्या ऐसा हो सकता है? हो भी सकता है, और नहीं भी. जिस तरीके से राजस्थान में वसुंधरा राजे, और मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान को चुनाव जीतने के बाद ठिकाने लगा दिया गया, कुछ भी संभव है.
लेकिन ये सब इस बात पर निर्भर करता है कि योगी आदित्यनाथ, वसुंधरा और शिवराज के मुकाबले ताकतवर हैं या कमजोर? शिवराज सिंह तो नहीं, लेकिन वसुंधरा भी 2018 के राजस्थान चुनाव से पहले तक अपनी ताकत दिखाती रही हैं. हां, चुनावी हार के बाद वो कमजोर हो गईं.
अब योगी की ताकत का अंदाजा लगाने के लिए पहले तो ये समझना होगा कि यूपी में बीजेपी का हालिया प्रदर्शन योगी की हार है या नहीं. वसुंधरा वाले प्रसंग में देखें तो वो 2022 का चुनाव तो जीत ही चुके हैं, और आने वाले चुनाव में अभी तीन साल का वक्त है.
हाल फिलहाल योगी को लेकर सबसे ज्यादा चर्चित मुद्दा ये है कि मोहन भागवत से उनकी मुलाकात हुई या नहीं? अगर मुलाकात नहीं हुई तो किसकी वजह से?
भूतकाल में ऐसे कई मौके आये हैं, जब योगी आदित्यनाथ ने अपनी ताकत का खुलेआम प्रदर्शन किया है, और बीजेपी नेतृत्व कुछ नहीं कर सका है - और संघ के मामले में भी ऐसी ही मिसाल देखने को मिली है.
2002 में गोरखपुर शहर सीट पर जब योगी आदित्यनाथ को अनसुना कर बीजेपी ने अधिकृत उम्मीदवार घोषित कर दिया तो वो आपे से बाहर हो गये. डंके की चोट पर राधामोहन दास अग्रवाल को मैदान में उतार दिया, और जबरदस्त कैंपेन करके जिता भी दिया. बाद में बीजेपी ने भी मजबूरन विधायक को अपना लिया था.
अव्वल तो योगी के सीएम बनने के पीछे उनके संघ कनेक्शन का ही प्रभाव माना जाता है, लेकिन एक उदाहरण तब भी देखने को मिला जब उनके इस्तीफे के बाद गोरखपुर उपचुनाव में भी बीजेपी नेतृत्व ने उनकी सिफारिश को तवज्जो नहीं दी - और नतीजे के रूप में हार का मुंह देखना पड़ा.
2024 के नतीजों को भी ऐसे ही पैमाने पर तौलने की कोशिश हो रही है?
लेकिन संघ प्रमुख और इंद्रेश कुमार के पहले वाले बयान से तो यही लगता है कि संघ योगी आदित्यनाथ को निःसंदेह बेनिफिट ऑफ डाउट दे रहा है. बाद में डैमेट कंट्रोल का तरीका चाहे जो भी अपनाया जाये.
रही बात मोहन भागवत और यूपी के मुख्यमंत्री के संभावित मुलाकात होने या न होने पर जारी सस्पेंस की, तो योगी आदित्यनाथ इस मामले में भी मिसाल पेश कर चुके हैं.
ये वाकया 2022 के यूपी विधानसभा चुनावों से पहले का है, और संघ नेता दत्तात्रेय होसबले से जुड़ा हुआ है. चुनावी तैयारियों के सिलसिले में लखनऊ जाने से पहले दिल्ली में वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा से गहन विचार विमर्श कर चुके थे. लखनऊ पहुंचने के बाद भी मुलाकातों का सिलसिला जारी रहा. लेकिन तभी कुछ ऐसा हुआ कि योगी आदित्यनाथ अचानक सोनभद्र के दौरे पर निकल गये. दत्तात्रेय होसबले इंतजार करते रहे लेकिन योगी आदित्यनाथ लखनऊ लौटने के बजाय सोनभद्र से मिर्जापुर चले गये - और फिर वहां से गोरखपुर. आखिरकार दत्तात्रेय होसबले बगैर योगी आदित्यनाथ से मिले बगैर ही लौटना पड़ा था.
मृगांक शेखर