'जाति' को जाना ही होगा... यूपी में शुरू हुई मुहिम से किसे ऐतराज होगा?

मुख्‍यमंत्री योगी आदित्‍यनाथ ने 'जातिवाद' को बढ़ावा देने वाले सभी आयोजनों और प्रतीकों पर रोक लगाने का फैसला लिया है. जिसका आधार इलाहाबाद हाईकोर्ट का एक आदेश है. बहस, इस बात पर है क‍ि क्‍या सरकारी आदेश से जातिवाद की जड़ों को उखाड़ा जा सकता है? क्‍या जातियों की खुराक पाकर खड़ी हुई पार्टियां इस मुहिम से जुड़ेंगी?

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जातियों के स्‍टीकर से पटी कारें बताती हैं कि जातिवाद की जड़ें कितनी गहरी हैं. (फोटो- AI generated) जातियों के स्‍टीकर से पटी कारें बताती हैं कि जातिवाद की जड़ें कितनी गहरी हैं. (फोटो- AI generated)

धीरेंद्र राय

  • नई दिल्ली,
  • 24 सितंबर 2025,
  • अपडेटेड 1:37 PM IST

डॉ. भीमराव अंबेडकर समाज में जातिवाद के जहर को मिटाने और समानता लाने के लिए 'annihilation of caste' यानी जातियों के खात्‍मे की बात करते हैं. जातिवाद की नहीं, सीधे जातियों के खात्‍मे की वकालत. जयप्रकाश नारायण कहते हैं कि 'जब जाति खत्‍म होगी तभी संपूर्ण क्रांति होगी.' नतीजे में उस दौर के कई युवा अपने नाम के आगे से जातिसूचक उपनाम हटा लेते हैं. ऐसे प्रयासों के बावजूद बदलता कुछ नहीं. बल्कि जेपी के समाजवादी आंदोलन से जुड़े नेता एक-एक जाति पकड़कर अपनी राजनीति चमका लेते हैं. ऐसे में समाज से जातिवाद के जहर को मिटाने के लिए ताजा पहल उत्तर प्रदेश में हुई है.

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उत्तर प्रदेश, जहां की राजनीति सदियों से जाति के इर्द-गिर्द घूमती रही है, अब एक नए दौर में प्रवेश कर रहा है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार ने 22 सितंबर 2025 को एक महत्वपूर्ण आदेश जारी किया, जिसमें प्रदेश में जातिगत रैलियों, जाति-आधारित राजनीतिक सभाओं और सार्वजनिक स्थानों पर जाति-प्रदर्शन पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया है. इस आदेश का आधार इलाहाबाद हाईकोर्ट का हालिया फैसला है, जिसने जातिगत वैमनस्य को 'राष्ट्र-विरोधी' करार दिया. कोर्ट ने पुलिस रिकॉर्ड्स, एफआईआर, वाहनों पर स्टीकर्स और साइनबोर्ड्स से जाति का उल्लेख हटाने का निर्देश दिया है. यह कदम न केवल कानूनी है, बल्कि समाज में फैलते जातिगत विद्वेष को जड़ से मिटाने का प्रयास भी. लेकिन सवाल उठता है- क्या यह रोक वास्तव में प्रभावी होगी? क्‍योंकि समाज में जाति से उपजे वैमनस्‍य को दूर करने के लिए डॉ. अंबेडकर से जय प्रकाश नारायण तक कई प्रभावशाली लोगों ने प्रयास किए, लेकिन वह समाधान नहीं मिला, जिसकी समाज को उम्‍मीद थी.

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इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला: जाति को 'राष्ट्र-विरोधी' घोषित करना

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में एक मामले में जाति-प्रथा की कड़ी आलोचना की. कोर्ट ने कहा कि पुलिस दस्तावेजों में आरोपी की जाति का उल्लेख पूर्वाग्रह को बढ़ावा देता है और संविधान के समानता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है. हाईकोर्ट ने जाति-गौरव को 'झूठा घमंड' बताते हुए इसे राष्ट्र की एकता के लिए खतरा माना. इसके आधार पर योगी सरकार ने तुरंत कार्रवाई की. 

यूपी सरकार के आदेश में शामिल हैं: जातिगत रैलियों पर रोक, वाहनों पर जाति-चिह्न हटाना, पुलिस स्टेशनों के नोटिस बोर्ड से जाति कॉलम मिटाना, और सोशल मीडिया पर जाति-प्रचार या नफरत फैलाने वाले कंटेंट पर कार्रवाई. अपवाद केवल एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम के मामलों में है. यह आदेश सभी जिलाधिकारियों और पुलिस अधिकारियों को भेजा गया है.

विपक्ष ने इस आदेश को 'कॉस्मेटिक' और 'आंखों में धूल झोंकने वाला' बताया है. समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने कहा कि 5000 सालों के जातिगत भेदभाव को मिटाने के लिए सिर्फ आदेश काफी नहीं, बल्कि सोच बदलनी होगी. भाजपा के सहयोगी भी चिंतित हैं, क्योंकि यह आदेश उनकी राजनीतिक रणनीति पर असर डाल सकता है. फिर भी, कई लोग इसे सकारात्मक कदम मान रहे हैं, जो जाति की जड़ों को कमजोर करेगा.

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उत्तर प्रदेश में कलह से भरी रही है जातिगत राजनीति

यूपी की राजनीति में जाति हमेशा से केंद्रीय रही है. मंडल कमीशन के बाद 1990 के दशक से जातिगत वोटबैंक मजबूत हुए. बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और अन्य दलों ने जाति-आधारित रैलियां आयोजित कीं, जो कई बार हिंसा का कारण बनीं. उदाहरणस्वरूप, हाल के वर्षों में कई जातिगत सभाओं में झड़पें हुईं, जो सामाजिक एकता को चोट पहुंचाती हैं. गांवों में 'जातिगत' बोर्ड लगे हैं, जो भेदभाव को बढ़ावा देते हैं. शहरों में होर्डिंग्स पर जातिगत प्रतिनिधित्व गिनाया जाता है. यह सब 'राष्ट्र-विरोधी' है, जैसा कोर्ट ने कहा.
समाज में यह वैमनस्य गहरा है. जाति के नाम पर नौकरियां, शादियां और सामाजिक संबंध प्रभावित होते हैं. लेकिन अब समय बदलाव का है. इस रोक से राजनीति को जाति से मुक्त करने का अवसर मिला है. बस, सवाल उठता है कि जिन पार्टियों की खुराक जातियों के बंटवारे और टकराव से ही मिलती है, वे ऐसे किसी प्रयास से अपने आपको क्‍यों जोड़ेंगे?

सोशल मीडिया: जातिगत वैमनस्यता का नया अखाड़ा

आज सोशल मीडिया जातिगत नफरत का सबसे बड़ा प्लेटफॉर्म बन चुका है. एक्स (पूर्व ट्विटर) पर पोस्ट्स में जाति-गौरव या निंदा आम है. उदाहरण के लिए, एक पोस्ट में इस आदेश को 'हिंदुओं को बांटने वाली पार्टियों के लिए दो मिनट का मौन' बताया गया. एक अन्य में इसे राष्ट्रव्यापी सुधार की जरूरत बताते हुए सोशल मीडिया पर कार्रवाई की मांग की गई. विपक्षी नेता इसे 'राजनीति से प्रेरित' मानते हैं, जबकि समर्थक इसे एकता का कदम कहते हैं.

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सर्वे बताते हैं कि भारत में सोशल मीडिया कंटेंट का बड़ा हिस्सा जाति से जुड़ा है, जो वैमनस्य फैलाता है. सरकार का आदेश इसमें कार्रवाई का प्रावधान करता है, लेकिन सख्ती जरूरी है. आईपीसी की धारा 153ए के तहत मुकदमे दर्ज हों, एआई-आधारित मॉनिटरिंग बढ़े. किसी को छूट न मिले. न सत्ताधारी को, न विपक्ष को. अगर भाजपा या एसपी ने पहले ऐसी रैलियां कीं, तो अब सभी पर रोक लगे. जागरूकता अभियान चलें, शिक्षा में जातिविहीनता सिखाई जाए. तभी वैमनस्य दूर होगा.

डॉ. बी.आर. अंबेडकर: जाति विनाश के पैरोकार

जाति और जातिवाद मिटाने को लेकर डॉ. अंबेडकर का योगदान अहम है. संविधान निर्माता अंबेडकर ने जाति को शोषण का साधन माना. उनकी पुस्तक 'एनिहिलेशन ऑफ कास्ट' में वे जाति-व्यवस्था को जड़ से उखाड़ने की बात करते हैं. 1932 के पूना पैक्ट से उन्होंने दलितों के लिए आरक्षण सुनिश्चित किया, लेकिन उनका लक्ष्य जातिविहीन समाज था. हिंदू कोड बिल के माध्यम से महिलाओं और दलितों को समान अधिकार देने की कोशिश की, जो जातिगत विरोध के बावजूद आंशिक सफल रही. 1956 में बौद्ध धर्म अपनाकर उन्होंने जाति का खंडन किया. अंबेडकर का मानना था कि शिक्षा और कानूनी सुधार से भेदभाव मिटेगा. यूपी सरकार का आदेश अगर सच्‍चे मायने में अमल कर दिया गया तो अंबेडकर का सपना साकार हो जाएगा.

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जयप्रकाश नारायण: संपूर्ण क्रांति में जाति के अंत का पैगाम

जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने भी जाति को लोकतंत्र का दुश्मन माना. 1974 की संपूर्ण क्रांति में उन्होंने जातिगत राजनीति का विरोध किया. बिहार आंदोलन के दौरान 'समाजवादी युवा संगठन' बनाया, जहां सभी जातियों के युवा एकजुट हुए. जेपी का विश्वास था कि ग्राम स्वराज से जाति मिटेगी-साझा संसाधनों से भेदभाव खत्म होगा. 1977 के चुनावों में इंदिरा गांधी के खिलाफ उन्होंने जाति-वोटबैंक तोड़ा, जनता पार्टी की जीत में योगदान दिया. जेपी कहते थे, 'जाति का जहर समाज को खोखला कर रहा है. क्रांति तभी पूरी होगी जब जाति मिटेगी.' उनके इस आह्वान का असर यह हुआ कि उस दौरान बिहार के कई युवाओं ने अपने नाम के आगे से जातिगत पहचान वाले सरनेम हटा दिये. बिहार में कुमार, प्रसाद, रंजन, भारती और कुमारी जैसे सरनेम प्रचलित हुए. योगी सरकार की पहल में जेपी के विचारों की झलक है. लेकिन, सवाल उठता है क‍ि क्‍या राजनीतिक सभाओं को जाति से मुक्त किया जा सकेगा? खासतौर से उन पार्टियों द्वारा जिनको जातियों से ही खुराक मिलती है.

योगी सरकार की पहल पहला पड़ाव है, असली क्रांति मन बदलने से होगी

यह रोक सामाजिक एकता का अवसर है, लेकिन सफलता सख्ती पर निर्भर है. सोशल मीडिया पर निगरानी बढ़े, नफरत फैलाने वालों पर कार्रवाई हो. अंबेडकर और जेपी के प्रयास सिखाते हैं कि जाति का अंत दृढ़ इच्छाशक्ति से संभव है. अगर छूट मिली, तो प्रयास विफल होगा. यूपी से शुरू यह बदलाव पूरे भारत में फैले. सरकारी रोकथाम तो इस मुहिम की शुरुआत भर है. यदि जातिगत वैमनस्‍य को मिटाना है तो समाज को चिंतन करना होगा. तभी भेदभाव जड़ से मिटेगा और राष्ट्र एकजुट बनेगा.

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