राहुल गांधी अगर मछली पकड़ने की बजाए सीट पकड़ते तो बिहार के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस बेहतर स्थिति में होती

बिहार चुनाव के दौरान राहुल गांधी का मछली पकड़ते हुए वीडियो भले ही सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, लेकिन राजनीतिक गलियारों में यह सवाल उठ खड़ा हुआ कि क्या यह समय ऐसे प्रतीकात्मक कदमों का था, या जमीनी तैयारी और सीट रणनीति पर ध्यान देने का?

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बिहार चुनाव के बीच राहुल गांधी का मछली पकड़ने वाला स्टंट कितना काम आएगा? (Photo: ITG) बिहार चुनाव के बीच राहुल गांधी का मछली पकड़ने वाला स्टंट कितना काम आएगा? (Photo: ITG)

सुजीत झा

  • पटना,
  • 04 नवंबर 2025,
  • अपडेटेड 4:44 PM IST

'राहुल गांधी का काम मोटरसाइकिल चलाना और प्रदूषण फैलाना है. वह अपना पूरा जीवन मछली पकड़ने में बिता देंगे. देश अंधेरे में डूब जाएगा... जलेबी छानना, मछली पकाना- उन्हें तो रसोइया होना चाहिए. वह राजनेता क्यों बने?' - तेजप्रताप यादव

'कल जब वह आए थे तो उन्होंने जितनी मछलियां पकड़ी थीं, उन्हें उससे भी कम वोट मिलेंगे. ठीक है, कम से कम उनकी तैराकी की शैली अच्छी थी. हम वहां वोट पकड़ रहे हैं और वह मछलियां पकड़ने में व्यस्त हैं.'- रवि किशन, बीजेपी सांसद

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'जिस प्रकार से राहुल गांधी मल्लाह समुदाय के दर्द को समझने का प्रयास कर रहे थे, उससे एनडीए के पेट में दर्द शुरू हो गया. यह निषाद समाज का अपमान है. आज पूरे बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश के निषाद गौरवान्वित हैं कि राहुल गांधी जैसे बड़े नेता उनसे जुड़ना चाहते हैं.' - मुकेश सहनी, वीआईपी नेता

इन बयानों के आईने में राहुल गांधी के 'मछली पकड़ने' वाले एपिसोड को देखने की जरूरत नहीं, बल्कि उसके सियासी सन्दर्भ को समझने की जरूरत है. अंदरखाने कांग्रेस नेताओं में यह चर्चा तेज है कि राहुल गांधी को बिहार में मछली पकड़ने की बजाय सीट पकड़ने पर ध्यान देना चाहिए था.

चर्चा से वोट नहीं मिलते

14 नवंबर के बाद यह साफ हो जाएगा कि राहुल गांधी का यह चुनावी अंदाज कितना असरदार साबित हुआ. कांग्रेस के सहयोगी दलों को लग रहा है कि बिहार चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी का 'मछली पकड़ने' के शौक में व्यस्त रहना और सहयोगियों से दूरी बनाना कांग्रेस के प्रदर्शन पर असर डालेगा.

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राजनीतिक जानकारों का कहना है कि अगर राहुल गांधी ने व्यक्तिगत गतिविधियों की जगह चुनावी रणनीति और जमीनी जुड़ाव पर फोकस किया होता, तो कांग्रेस आज कहीं मजबूत स्थिति में होती.

कांग्रेस इस बार 61 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, जिनमें 9 पर सहयोगी दलों से दोस्ताना लड़ाई है. बाकी 52 सीटों में से करीब 50 सीटें कांग्रेस बीजेपी और जेडीयू के खिलाफ लड़ रही है. जानकार बताते हैं कि इनमें से 23 सीटें ऐसी हैं, जहां महागठबंधन के किसी दल ने हालिया चुनाव में जीत दर्ज नहीं की. यानी सीटों के चयन से ही साफ है कि राहुल गांधी को सीटों पर ध्यान देना चाहिए था.

समय लौटकर नहीं आता

भारत में शीर्ष नेताओं का चुनावी सक्रियता दिखाना एक परंपरा रही है. राहुल गांधी से अपेक्षा थी कि वे रैलियों के साथ-साथ गठबंधन की गणित, सीट समीकरण और स्थानीय मुद्दों पर गहराई से ध्यान दें. पर पार्टी के भीतर ही यह माना जा रहा है कि उन्होंने कई अहम मौकों पर बिहार की राजनीति से दूरी बनाए रखी. यहां तक कि चुनावी सरगर्मी के बीच व्यक्तिगत अवकाश पर चले गए. वहीं तेजस्वी यादव ने लगातार जमीन पर रहकर चुनावी मुद्दों को धार दी.

राहुल गांधी का ‘कंफ्यूज’ आचरण

सीट बंटवारे के समय राहुल गांधी की निष्क्रियता कांग्रेस नेताओं को अखर गई. कई सीटें ऐसी थीं जहां कांग्रेस का आधार कमजोर था, लेकिन पार्टी वहां उतरी- क्योंकि केंद्रीय नेतृत्व ने ठोस रणनीति नहीं बनाई. यदि राहुल गांधी ने समय रहते सीटों पर फोकस किया होता, तो पार्टी के पास जीतने योग्य सीटों का बड़ा बैंक होता.

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लेकिन अभी स्थिति उलट है. राहुल गांधी सीटों और वोटरों को पकड़ने की जगह मछली पकड़ने में व्यस्त हैं, जिससे कांग्रेस नेताओं में नाराज़गी बढ़ी, हालांकि वे खुलकर कुछ नहीं कह रहे.

तेजस्वी यादव ज्यादा आक्रामक

तेजस्वी यादव ने अकेले दम पर आक्रामक प्रचार किया. उनका 'नौकरी और विकास' केंद्रित अभियान युवाओं को आकर्षित कर रहा है. इसके विपरीत राहुल गांधी की सीमित भागीदारी महागठबंधन के लिए सियासी स्लो फैक्टर बन गई.

मुकेश सहनी के साथ मछली पकड़ने का उनका वीडियो चर्चा में आया, पर लोगों में सवाल भी उठा कि जो मल्लाह का बेटा कहलाता है, वो तैरना नहीं जानता? यानी राहुल गांधी की यह एक्टिविटी राजनीतिक चर्चा से ज्यादा मनोरंजन का विषय बन गई.

कांग्रेस का निशाना भटका

राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि राहुल गांधी की प्रचार शैली और सीमित रैलियों ने कांग्रेस को स्थानीय मुद्दों से काट दिया. जहां तेजस्वी यादव बेरोजगारी, शिक्षा और विकास पर बोल रहे हैं, वहीं राहुल गांधी के भाषणों में स्थानीय फोकस की कमी रही. मतदाताओं को यह संदेश गया कि शायद राहुल बिहार चुनाव को उतनी गंभीरता से नहीं ले रहे जितनी जनता अपने मुद्दों को.

अंदर ही अंदर उबल रही कांग्रेस

पार्टी के भीतर यह असंतोष बढ़ रहा है कि राहुल गांधी को जमीन पर संगठन और कार्यकर्ताओं से जुड़ना चाहिए, न कि केवल प्रतीकात्मक गतिविधियों में समय देना चाहिए. एक मजबूत संगठन ही सीटें जीतता है और यह राहुल गांधी का कमजोर पक्ष रहा है. अगर वे मछली की जगह सीट पकड़ने की रणनीति पर काम करते- यानी संगठन, उम्मीदवार चयन और जमीनी संसाधनों पर ध्यान देते तो कांग्रेस की स्थिति बदली हुई दिखती.

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मछली जल की रानी है...

राजनीति में नेताओं की हर गतिविधि जनता के नजरिए से देखी जाती है. राहुल गांधी का मछली पकड़ना व्यक्तिगत रुचि नहीं, बल्कि जनता के लिए एक राजनीतिक प्रतीक बन गया. बिहार कांग्रेस के नेता कंफ्यूजन में हैं कि दिशा क्या है, प्राथमिकता क्या है. अगर राहुल गांधी अपने शौक को किनारे रखकर रैलियों, जनसंपर्क और कार्यकर्ताओं के साथ मैदान में डटे होते, तो कांग्रेस निश्चित तौर पर मछलियों से कहीं ज्यादा सीटें पकड़ने की स्थिति में होती. क्योंकि राजनीति में अंततः, 'सीट पकड़ना' हमेशा 'मछली पकड़ने' से अधिक महत्वपूर्ण होता है.

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