न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी (MSP) की व्यवस्था पूरे देश के लिए शुरू की गई थी, लेकिन दुर्भाग्य से इसका फायदा कुछ ही राज्यों तक सिमटकर रह गया है. केंद्र सरकार की नीति ऐसी है कि एमएसपी नामक 'आम' का ज्यादातर हिस्सा आम किसानों को मिल ही नहीं रहा. इस 'आम' का बड़ा हिस्सा दो 'खास' राज्यों के किसानों को मिल रहा है, जबकि बाकी सूबों के हिस्से सिर्फ गुठली आ रही है. इस समय सरकार एमएसपी के तौर पर जो रकम खर्च कर रही है, उसका 35 से लेकर 38 फीसदी तक सिर्फ पंजाब-हरियाणा को मिल रहा है. सवाल यह है कि एमएसपी का फायदा लेने के मामले में बाकी राज्यों के साथ भेदभाव क्यों है? यही नहीं, ताज्जुब की बात तो यह है कि एमएसपी पर खर्च होने वाली रकम का सबसे ज्यादा हिस्सा पाने के बावजूद पंजाब-हरियाणा के किसान ही बार-बार केंद्र सरकार के खिलाफ आंदोलन भी कर रहे हैं.
एमएसपी का ज्यादातर पैसा सिर्फ दो राज्यों और दो फसलों तक सीमित है. बाकी राज्य और बाकी फसलें हाशिए पर हैं. सवाल यह है कि क्या इसी भेदभाव की वजह से एमएसपी गारंटी की लड़ाई में पंजाब-हरियाणा के साथ बाकी राज्यों की भागीदारी नहीं दिखती? क्या इसी भेदभाव के कारण क्रॉप डाइवर्सिफिकेशन नहीं हो पा रहा है? क्या इसीलिए हमारा किसान दो फसलों के दुष्चक्र में फंसा हुआ है? और क्या इसीलिए देश के अधिकांश किसानों को यह नहीं पता होता कि आखिर एमएसपी है क्या?
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एमएसपी पर खर्च
एमएसपी की व्यवस्था से किस राज्य को कितना पैसा मिल रहा है, इसकी सटीक जानकारी के लिए हमने केंद्रीय कृषि मंत्रालय से फसलों की सरकारी खरीद का पूरा डेटा जुटाया. आंकड़े बताते हैं कि साल 2023-24 में पंजाब और हरियाणा के किसानों को एमएसपी के तौर पर 1,01,107 करोड़ रुपये मिले, जो केंद्र द्वारा एमएसपी पर खर्च की गई कुल रकम का लगभग 38 फीसदी है. इस साल सरकार ने एमएसपी पर कुल 2,67,723.5 करोड़ रुपये खर्च किए थे. अगर दो राज्यों को इतना अधिक हिस्सा मिलेगा तो जाहिर है कि कुछ सूबे ऐसे भी होंगे, जिन्हें इसका बिल्कुल फायदा नहीं मिला होगा — जैसे पूर्वोत्तर के राज्य.
एमएसपी में कब होगा सुधार?
एमएसपी का बहुत कम किसानों को फायदा मिल रहा है, तो इसकी वजह सरकारी नीतियां हैं. भारतीय खाद्य निगम (FCI) के पुनर्गठन के लिए बनाई गई शांता कुमार कमेटी के अनुसार, देश में केवल 6 फीसदी किसानों को ही एमएसपी का लाभ मिलता है. इस आधार पर कई लोग एमएसपी को बेमानी बताते हैं. लेकिन यहां मुद्दा किसी व्यवस्था को बेकार बताने का नहीं बल्कि इस सवाल का जवाब खोजने का है कि बाकी राज्यों या किसानों को फायदा क्यों नहीं मिला?
आखिर सरकार ने एमएसपी की ऐसी भेदभावपूर्ण व्यवस्था क्यों बनाई हुई है, जिसका फायदा न तो सभी किसानों तक पहुंच रहा है और न ही सभी फसलों तक. क्यों नहीं ऐसी व्यवस्था बने कि सभी सूबों को इसका फायदा मिले — चाहे हर राज्य में एमएसपी अलग-अलग करके, या फिर एमएसपी में कवर की गई फसलों का विस्तार करके और उन्हें खरीदकर?
दलहन-तिलहन की उपेक्षा क्यों?
एमएसपी पर सरकार 22 फसलें खरीदती है, लेकिन 85 से 90 फीसदी तक का बजट सिर्फ धान-गेहूं खरीदने में खर्च हो जाता है. गेहूं और चावल की खरीद बहुत जरूरी है, लेकिन अब समय आ गया है कि दलहन और तिलहन की भी खरीद सुनिश्चित हो, ताकि किसान इसकी खेती बढ़ाएं और हर साल खाद्य तेलों और दालों के आयात पर खर्च होने वाले करीब पौने दो लाख करोड़ रुपये दूसरे देश में जाने से बच जाएं.
दोषपूर्ण एमएसपी का साइड इफेक्ट
कुछ लोग यह कह सकते हैं कि जब पंजाब, हरियाणा में सरप्लस अनाज है तो फिर खरीद भी वहीं से होगी. लेकिन, आखिर ज्यादा पानी की खपत करने वाली फसलों की एमएसपी पर इतनी खरीद क्यों हो रही है, जिसमें भू-जल जैसे कीमती संसाधन का इतना अंधाधुंध इस्तेमाल हुआ कि इन दोनों सूबों में पानी पाताल में चला गया. आज धान, गेहूं वाली फसलों के कल्चर ने दोनों सूबों में जल संकट की एक बड़ी समस्या खड़ी कर दी है. एक हेक्टेयर में धान की खेती करने पर पूरे सीजन में 150 लाख लीटर पानी की खपत हो जाती है. अगर पानी की कीमत एक रुपये प्रति लीटर भी लगाएं तो उसकी कीमत कितनी होगी? दूसरी ओर, कम पानी की खपत वाली फसलों जैसे दलहन और तिलहन की एमएसपी पर खरीद को लेकर जोर नहीं दिया जा रहा है, जिससे दूसरे राज्यों के किसान इसके लाभ से वंचित रहे हैं.
हरित क्रांति के बाद बदल गया खेती का चेहरा
हरित क्रांति की शुरुआत के बाद पंजाब में धान के सामने दलहन, तिलहन, गन्ना, कॉटन, मक्का और बाजरा की औकात बिल्कुल खत्म कर दी गई. पिछले कुछ दशकों में पंजाब में धान और गेहूं का क्षेत्र बहुत तेजी से बढ़ा है. पंजाब के कृषि विभाग के एक रिकॉर्ड में बताया गया है कि 1960-61 के दौरान राज्य में सिर्फ 4.8 फीसदी कृषि क्षेत्र में ही धान की खेती होती थी, जो 2020-21 तक 40.2 फीसदी तक हो गई. धान वहां की स्वाभाविक फसल नहीं थी. इसी दौरान गेहूं 27.3 फीसदी से बढ़कर 45.15 फीसदी क्षेत्र तक पहुंच गया. दूसरी ओर, कम पानी की खपत वाली दलहन की फसल 19.1 फीसदी से घटकर 0.4 फीसदी क्षेत्र में ही रह गई है.
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कब होगा सबका साथ, सबका विकास?
अंत में, कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि यदि एमएसपी की व्यवस्था बेहतर बनाई जाएगी तो इसका फायदा सभी राज्यों को मिलेगा. भू-जल की स्थिति भी सुधरेगी. क्रॉप डाइवर्सिफिकेशन भी होगा. इससे जमीन की उर्वरता क्षमता लंबे समय तक बनी रहेगी. अन्यथा तो एमएसपी की व्यवस्था सिर्फ दो फसलों और दो सूबों का स्पेशल पैकेज बनकर रह जाएगी. एमएसपी का मकसद सभी किसानों का हित है, तो एमएसपी की यह झोली सबके लिए खुलनी चाहिए — सिर्फ कुछ खास राज्यों के लिए नहीं. एमएसपी की व्यवस्था में भी ‘सबका साथ, सबका विकास’ का आइडिया लागू होना चाहिए.
ओम प्रकाश