आजकल हाल ये है कि गांव की पगडंडियों से लेकर शहर की तंग गलियों तक, हर मोड़ पर आपको एक बीएलओ टकराते मिल जाएंगे. हाथ में 10 किलो का भारी-भरकम बंडल, चेहरे पर हड़बड़ी, और जुबां पर- 'अरे भइया, ये एसआईआर फॉर्म है… भर दीजिए.'
बीएलओ घर-घर दस्तक दे रहे हैं. दरवाजे पर घंटी बजा रहे हैं. घर वालों से नाम पूछ रहे हैं. और फिर जिस तरह मोबाइल ऐप खोलकर ऊपर से नीचे तक स्क्रॉल करते हैं तो फोन भी कह उठता है- 'हर घड़ी मुझे क्यों परेशान कर रहे हो?'
बीएलओ ऐप में नाम खोजते-खोजते माथे पर पसीने की नदियां बहा देते हैं. आखिर में जब कोई नाम मैच हो जाता है तो समझिए जैसे कुंभ मेले में बिछड़ा भाई मिल गया हो.
फिर एक-एक फॉर्म पकड़ाते हैं. रजिस्टर खोलते हैं. नाम लिखवाते हैं. दस्तखत करवाते हैं. मोबाइल नंबर लिखवाते हैं. और जाते-जाते तीन बार समझाते हैं- 'फॉर्म तीन दिन में रेडी रखना. सबकी दो-दो फोटो लगेंगी. ध्यान रखना- फॉर्म लेने आऊंगा. जिसका फॉर्म नहीं भरा, उसका नाम वोटर लिस्ट से कट जाएगा. मैं भी कुछ नहीं कर पाऊंगा.'
हकीकत यही है कि 'ऊपरवालों' ने टाइम बॉम्ब बांध दिया है. आखिरी तारीख 11 दिसंबर है और काम सिर पर ऐसा लदा है जैसे पूरा ब्रह्मांड उठाकर दे दिया हो और समय इतना कि चाय भी ढंग से ना पी पाओ.
बीएलओ परेशान हैं. पब्लिक परेशान है. फोन की घंटियां परेशान हैं. हर कोई फोन घुमा दे रहा है. किसी को फॉर्म भरना नहीं आता, किसी को गांव की 2003 वाली वोटर लिस्ट ही नहीं मिल रही.
अब देखिए- गांव का नाम है सिमरधा… लेकिन ऑनलाइन वोटर लिस्ट में नाम ही नहीं मिलेगा. क्योंकि सिमरधा की लिस्ट सरसेड़ा में अटैच की गई. दोनों गांवों के बीच 40 किमी की दूरी है. भले विधानसभा एक है.
इसी तरह, बिरौना गांव की वोटर लिस्ट चुनाव आयोग की वेबसाइट पर नहीं मिलेगी. क्योंकि जब आप बछेह गांव की लिस्ट खोलेंगे तो उसमें बिरौना की वोटर लिस्ट भी मिल जाएगी. इन दोनों के बीच भी 25 किमी की दूरी है. विधानसभा एक ही है. ये दोनों उदाहरण सिर्फ झांसी जिले की गरौठा विधानसभा सीट से हैं. यही हाल अन्य जगहों पर है.
लखनऊ की सरोजनी नगर विधानसभा में बंगला बाजार आशियाना स्थित महाराजा बिजली पासी कॉलेज पोलिंग बूथ ऑनलाइन ढूंढे नहीं मिल रहा. यहां के लोग भाग संख्या लिए बीएलओ को फोन लगा रहे हैं और मजे की बात यह है कि बीएलओ को खुद पता नहीं है. वो भर-भर के वोटर लिस्ट शेयर करता जा रहा है कि खुद सर्च कर लो- जहां-जिस बूथ और पोलिंग में नाम हो. गजब हाल हैं.
मतलब इतना अजीब कनेक्शन कि खुद गूगल मैप भी शरमा जाए. आप चाहें जितनी अक्ल लगा लें, सिमरधा को सरसेड़ा से नहीं जोड़ पाएंगे और बिरौना को बछेह से. लेकिन चुनाव आयोग ने जोड़ दिया तो बस जोड़ दिया. अब जनता क्या कर लेगी? आयोग का आदेश है. मानना तो पड़ेगा ही. सब उसी के हाथ में है. जैसे- एसआईआर प्रक्रिया भी उसी के हाथ में है. बिना तैयारी के. बिना ट्रेनिंग के. बिना जागरूकता के.
बिहार चुनाव से ठीक पहले आयोग ने हुकुम दिया. और फिर हंगामा हुआ तो घोषणा कर दी कि ये तो पूरे देश में होना है. सबसे पहले वहां करवाएंगे, जहां साल-दो साल में चुनाव होने हैं. और फिर शुरू हो गया दौड़भाग का महायज्ञ.
पब्लिक क्या करे?
अब पब्लिक क्या कर सकती है. वो तो दर्शक है. तमाशा देखेगी, परेशान होगी, और आखिर में यही सोचेगी- सब कुछ तो चुनाव आयोग के हाथ में है.
बीएलओ नहीं रुक सकते...
भले वोटर लिस्ट खो जाए, ऐप हैंग हो जाए... परेशानी कुछ भी हो, लेकिन बीएलओ नहीं रुक रहे. सुबह फॉर्म बांट रहे. दोपहर में मीटिंग कर रहे और शाम को सुपरवाइजर की भी सुन रहे. बीएलओ फिलहाल नहीं थक रहे.
उधर जनता की अपनी लड़ाई है. उसे अब तक 2003 की वोटर लिस्ट ही नहीं मिल रही. हेल्पलाइन पर कॉल करो तो आवाज आती है- 'दिल्ली चुनाव आयोग कार्यालय में आपका स्वागत है…' और दो सेकंड बाद कहते हैं- 'आपकी आवाज साफ सुनाई नहीं दे रही… कृपया नेटवर्क में आइए…'
जनता दो-चार बार नंबर मिलाती है, माथा पकड़ लेती है, और फिर एसआईआर को राम-राम कहकर अपने घर के काम में लग जाती है.
लेकिन बीएलओ… अभी भी गलियों में भटक रहे हैं. उनका सफर जारी है. 11 दिसंबर तक उठते-बैठते-भागते गलियां नापेंगे और संघर्ष करेंगे.
लेकिन सच तो ये है कि इस सर्द मौसम में असली परीक्षा बीएलओ ही दे रहे हैं. गलियों की धूल में लिपटकर, ठंड में सांसें समेटकर, लोकतंत्र उन्हीं के थके कंधों पर सरपट दौड़ रहा है.
उदित नारायण