बांग्‍लादेश के 'भावी प्रधानमंत्री' कहे जा रहे तारिक रहमान का रिकॉर्ड भी एंटी-इंडिया ही है

शेख हसीना सरकार के अपदस्‍थ होने के बाद मोहम्‍मद यूनुस की अंतरिम सरकार ने जमकर भारत विरोधी एजेंडा चलाया. शेख हसीना की गैर-मौजूदगी में अब बांग्‍लादेश का भवि‍ष्‍य वहां की सबसे बड़ी पार्टी BNP के हाथ जाता दिख रहा है. इस पार्टी के कर्ता-धर्ता तारिक रहमान 17 साल के निर्वासन के बाद गुरुवार को ढाका लौट रहे हैं. फरवरी 2026 में होने वाले आम चुनाव में हिस्‍सा लेने.

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17 साल निर्वासित रहे BNP के एक्टिंग चेयरमैन तारिक रहमान गुरुवार को बांग्‍लादेश आ रहे हैं. 17 साल निर्वासित रहे BNP के एक्टिंग चेयरमैन तारिक रहमान गुरुवार को बांग्‍लादेश आ रहे हैं.

धीरेंद्र राय

  • नई दिल्ली,
  • 25 दिसंबर 2025,
  • अपडेटेड 8:46 AM IST

बांग्लादेश की राजनीति एक बार फिर इतिहास के मोड़ पर खड़ी दिखाई दे रही है. लगभग 17 वर्षों के निर्वासन के बाद बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (BNP) के एक्टिंग चेयरमैन तारिक रहमान की गुरुवार को स्वदेश वापसी न सिर्फ ढाका की सियासत को झकझोरने वाली घटना है, बल्कि इसका सीधा असर भारत की स्‍ट्रेटेजी पर भी पड़ेगा. ढाका में भव्‍य स्‍वागत की तैयारी हो रही है. पांच लाख समर्थकों के एयरपोर्ट पहुंचने की उम्‍मीद है. पोस्टर, रैलियां और पार्टी के झंडों से रास्ते सजा दिए गए हैं. यह शक्ति-प्रदर्शन सिर्फ जनता के लिए नहीं, बल्कि देश के सभी इंस्‍टीट्यूशंस और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए भी एक संदेश है कि BNP अब सत्ता के लिए पूरी तरह तैयार है. पार्टी नेतृत्व मानता है कि यह वापसी कार्यकर्ताओं में नई जान फूंकेगी और चुनावी मोर्चे पर बढ़त दिलाएगी.

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लेकिन, फरवरी 2026 को होने वाले आम चुनावों से ठीक पहले तारीक की वापसी कई सवालों को जन्म भी देती है. क्या तारिक रहमान वाकई ‘भावी प्रधानमंत्री’ हैं? उनकी पार्टी मौजूदा हालात में कितनी निर्णायक है? और भारत को बांग्‍लादेश में तेजी से बदलते राजनीतिक हालात के लिए कैसी तैयारी करनी चाहिए?

निर्वासन से सत्ता के दरवाजे तक

बांग्‍लादेश की सियासत में तारिक रहमान कोई नया नाम नहीं हैं. वह पूर्व राष्ट्रपति जियाउर रहमान और तीन बार प्रधानमंत्री रहीं खालिदा जिया के बेटे हैं. 60 साल के हो चुके तारीक पर 2007–08 के दौरान भ्रष्टाचार और हिंसा के कई मुकदमे दर्ज हुए. ये वो समय था जब उनकी मां खालिदा जिया का छह साल का शासन खत्‍म हो रहा था और शेख हसीना का रुतबा बढ़ता जा रहा था. आखिर में तब तारीक उसी तरह बांग्‍लादेश से भागकर लंदन चले गए, जैसे अब शेख हसीना ने पलायन करके भारत की शरण ली है. लंबे समय तक निर्वासन में रहकर भी उन्होंने पार्टी की कमान नहीं छोड़ी. BNP के भीतर फैसले, गठबंधन की दिशा और आंदोलन सब कुछ लंदन से ही संचालित होता रहा. अब अदालतों से राहत और बदलते राजनीतिक हालात ने उनकी वापसी का रास्ता साफ किया है. मोहम्‍मद यूनुस की अंतरिम सरकार ने उनके खिलाफ सारे मुकदमे वापस ले लिए हैं.

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भारत को लेकर तारिक रहमान का 'विरोधी' नजरिया

इसी बात पर भारत की चिंता शुरू होती है. अतीत में BNP शासन के दौरान भारत-बांग्लादेश रिश्ते अक्सर शंका से ग्रस्त रहे. सीमा सुरक्षा, नार्थ-ईस्‍ट में आतंकवाद और अवैध घुसपैठ जैसे मुद्दों पर मतभेद सामने आते रहे. तारिक रहमान ने हाल के वर्षों में भारत-विरोधी बयानबाजी से परहेज किया है और ‘संतुलित विदेश नीति’ की बात की है. हसीना सरकार के‍ गिर जाने के बाद उन्‍होंने कहा कि 'न दिल्‍ली, न पिंडी, कोई और देश नहीं, बांग्‍लादेश सबसे पहले.' यानी वे भारत और पाकिस्‍तान से समान दूरी का रुख अपनाते हैं. लेकिन BNP के भीतर मौजूद उनके पुराने भारत-विरोधी रुख को पूरी तरह नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता. तीस्‍ता जलसंधि पर तारीक का नजरिया भारत के खिलाफ रहा है. वे भारत की विदेश नीति की मुखर आलोचना करते रहे हैं. भारत के लिए यह देखना अहम होगा कि सत्ता में आने पर उनकी प्राथमिकताएं सहयोग की होंगी या घरेलू राजनीति के दबाव में कठोर राष्ट्रवादी स्वर उभरेगा. 

भारत के लिए रणनीतिक मायने

भारत-बांग्लादेश संबंध सिर्फ कूटनीति तक सीमित नहीं हैं. यह रिश्ता सुरक्षा, ट्रेड, एनर्जी और क्षेत्रीय स्थिरता से जुड़ा है. यदि ढाका में सत्ता परिवर्तन होता है, तो बॉर्डर मैनेजमेंट, उत्तर-पूर्वी राज्यों की सुरक्षा और अल्पसंख्यकों की स्थिति पर असर पड़ सकता है. हाल के वर्षों में बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों पर हमलों की खबरें भारत में राजनीतिक और सामाजिक चिंता का कारण बनी हैं. नई सरकार का रवैया इन मुद्दों पर द्विपक्षीय रिश्तों की दिशा तय करेगा. भारत के नीति-निर्माताओं के लिए यह वक्त ‘इंतजार और नजर’ का है. खुले हस्तक्षेप से बचते हुए संवाद के चैनल खुले रखने का.

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मौजूदा राजनीतिक माहौल में BNP की अहमियत

पिछले कुछ वर्षों में बांग्लादेश की राजनीति तीव्र उथल-पुथल से गुजरी है. छात्र आंदोलनों, सरकार-विरोधी प्रदर्शनों और संस्थागत टकराव ने माहौल को अस्थिर किया. ऐसे में BNP खुद को एकमात्र विश्वसनीय विकल्प के रूप में पेश कर रही है. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यदि विपक्ष बिखरा रहा और सत्तारूढ़ खेमे पर जनता की नाराज़गी बनी रही, तो BNP सबसे बड़े दल के रूप में उभर सकती है. तारिक रहमान की वापसी पार्टी के लिए चेहरे और बांग्‍लादेश के नेतृत्व का संकट साथ साथ खत्म करती है. अमेरिका के इंटरनेशनल रिपब्लिकन इंस्‍टीट्यूट ने दिसंबर महीने में ही बांग्‍लादेश में एक सर्वे कराया है, जिसके मुताबिक BNP को चुनाव में एकतरफा बढ़त मिलेगी. और कुछ सीटें जमात-ए-इस्‍लामी को भी मिल सकती हैं. शेख हसीना की पार्टी को चुनाव लड़ने से रोक दिया गया है.

वेंटिलेटर पर मां खालिदा जिया, पार्टी में नई जान फूंकने आए तारीक

तारीक के बांग्‍लादेश से बाहर होने के चलते BNP का नेतृत्‍व अब तक खालिदा जिया ही संभालती आईं थीं. अब उनकी सेहत बहुत खराब है और वो वेंटि‍लेटर पर हैं. ऐसे में नेतृत्‍वहीन BNP के लिए तारीक का लौटना पार्टी को नई सांस मिलने जैसा है. 12 फरवरी को होने वाले आम चुनाव  के लिए नामांकन भरने की आखिरी तारीख 29 दिसंबर है. इसलिए तारिक रहमान के आने से पहले ही उनका नामांकन पत्र ले लिया गया है. उनके चुनाव मैदान में उतरने की सिर्फ औपचारिकताएं बाकी हैं. BNP ने तारीक की वापसी को केवल एक नेता की घर-वापसी नहीं, बल्कि ‘लोकतंत्र की वापसी’ के प्रतीक के रूप में पेश किया है. 

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छात्र राजनीति और कट्टरपंथ के उभार से निपटने की चुनौती

बांग्लादेश की सियासत में छात्र संगठनों की भूमिका ऐतिहासिक रही है. हालिया आंदोलनों ने एक बार फिर साबित किया कि युवा शक्ति सरकारें गिरा सकती हैं और बना भी सकती है. BNP के लिए सबसे बड़ी चुनौती इन छात्र समूहों और कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों के साथ संतुलन बनाना होगी. छात्र नेता उस्‍मान हादी की मौत ने छात्रों को आंदोलित किया है. और वे काफी एकजुट हैं. ऐसे में बांग्‍लादेश का अगला चुनाव पुरानी सियासी पार्टियों के लिए साधारण नहीं है. पिछले साल जुलाई में शेख हसीना को सत्‍ता से हटने के लिए मजबूर करने वाले छात्रों ने जनवरी 2025 में अपनी एक पार्टी बना ली है. नेशनल सिटिजन पार्टी के नाम से छात्र अगले साल चुनाव में उतरेंगे. सर्वे बता रहे हैं कि उनके पास करीब 15 फीसदी वोटरों का समर्थन है. ऐसे में BNP चाहेगी कि छात्रों का वोट उनकी पार्टी से कहीं और बिखरे नहीं. तारीक को अंतरराष्ट्रीय समुदाय और पड़ोसी देशों को यह भरोसा भी देना है कि कट्टरपंथ को सत्ता के केंद्र में जगह नहीं मिलेगी. यही संतुलन तय करेगा कि तारिक रहमान ‘सहमति के नेता’ बनते हैं या विवादों के केंद्र में रहते हैं.

तारिक रहमान की वतन-वापसी बांग्लादेश के लिए सिर्फ एक व्यक्ति की घर-वापसी नहीं, बल्कि एक नए राजनीतिक चैप्‍टर की शुरुआत है. उनके स्वागत की भव्यता, BNP की आक्रामक तैयारियां और चुनावी गणित सब संकेत देते हैं कि ढाका की सत्ता अब उनसे दूर नहीं. भारत के लिए यह घटनाक्रम अवसर और चुनौती साथ साथ लेकर आता है. यदि संवाद और सहयोग की नई जमीन बनती है, तो दक्षिण एशिया में स्थिरता को बल मिलेगा. लेकिन यदि पुरानी शंकाएं और वैचारिक टकराव हावी हुए, तो रिश्तों में ठंडक लौट सकती है. जिसका बांग्‍लादेश में कट्टरपंथी और पाकिस्‍तान का खुफिया तंत्र शिद्दत से इंतेजार कर रहे हैं. लकड़बग्‍घे की तरह. जो चाहते हैं कि बांग्‍लादेश में अस्थिरता रहे और खून बिखरता रहे. फिलहाल, इतना तय है कि तारिक रहमान की वापसी ने बांग्लादेश की राजनीति को फिर से सुर्खियों में ला दिया है और भारत की नजरें ढाका पर टिकी हैं.

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