जैसा आम आदमी पार्टी के नेता कहते आ रहे थे, अरविंद केजरीवाल फिलहाल जेल से ही दिल्ली की सरकार चलाने की कोशिश कर रहे हैं. और उनके ऐसा करने के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट ने वो याचिका भी खारिज कर दी है, जिसमें मांग की गई थी कि गिरफ्तारी के बाद अरविंद केजरीवाल को दिल्ली के मुख्यमंत्री के पद से हटा दिया जाये.
याचिका खारिज करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि ऐसी कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं है कि अरविंद केजरीवाल अपने पद पर नहीं बने रह सकते. कार्यपालिका से जुड़ा मसला बताते हुए हाईकोर्ट ने कहा है कि इस मामले में कोर्ट का कोई रोल नहीं है, ये केस दिल्ली के उपराज्यपाल देखेंगे - और अपनी सिफारिश वो राष्ट्रपति को भेजेंगे. उपराज्यपाल का रुख इस मामले में पहले ही सामने आ चुका है, वो जेल से सरकार नहीं चलने देंगे.
अरविंद केजरीवाल फिलहाल ईडी की कस्टडी में हैं - और उनकी गिरफ्तारी के वक्त से ही दिल्ली सरकार के दो मंत्री आतिशी और सौरभ भारद्वाज मोर्चे पर लगातार बने हुए देखे जा सकते हैं.
कहने को तो सोशल मीडिया पर आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद राघव चड्ढा और पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान भी एक्टिव हैं, लेकिन दिल्ली में कोई और दिखाई नहीं दे रहा है. राघव चड्ढा को लेकर तो तमाम चर्चाएं भी जोरों पर हैं.
और ऐसे बेहद नाजुक वक्त में पंजाब में जालंधर से आम आदमी पार्टी के एकमात्र लोकसभा सांसद सुशील कुमार रिंकू ने भी अरविंद केजरीवाल का साथ छोड़ दिया है. वो अब बीजेपी के साथ जा चुके हैं. अपने साथ एक विधायक को भी भगवा धारण करा चुके हैं - आगे क्या क्या हो सकता है, समझना बहुत मुश्किल भी नहीं है.
सुनीता केजरीवाल का ऐसे गाढ़े वक्त में मोर्चा संभालना स्वाभाविक है, और बहुत जरूरी भी. लेकिन वो जो तरीका अपना रही हैं, वो जरूरत के हिसाब से ऊंट के मुंह में जीरे से ज्यादा नहीं लगता. सोशल साइट X पर अपने बॉयो में सुनीता केजरीवाल ने स्वैच्छिक सेवानिवृति लेने वाली 1993 बैच की आईआरएस अधिकारी बताया है.
जब भी सुनीता केजरीवाल दिल्ली के लोगों को संबोधित कर रही हैं, सबसे पहले अपना नाम बताने के बाद खुद को 'अरविंद केजरीवाल की धर्मपत्नी' बोल कर परिचय देती हैं - और अरविंद केजरीवाल के संदेशों को लोगों तक पहुंचाने के लिए वो भी उसी कुर्सी और जगह का इस्तेमाल कर रही हैं, जो गिरफ्तार होने से पहले तक अरविंद केजरीवाल किया करते थे.
सुनीता केजरीवाल ऐसे ही ये लड़ाई कहां तक लड़ेंगी
अरविंद केजरीवाल ही अभी दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं, और आम आदमी पार्टी के संयोजक भी. मतलब, आम आदमी पार्टी की सरकार और पार्टी दोनों के मुखिया. जाहिर है, अपने घर के भी मुखिया वही हैं.
अरविंद केजरीवाल को गिरफ्तार कर लिये जाने के बाद सुनीता केजरीवाल पर घर की पूरी जिम्मेदारी तो है ही, आम आदमी पार्टी को भी संभालने की जिम्मेदारी आ पड़ी है. दिल्ली की सरकार तो अरविंद केजरीवाल के बाहर रहते हुए भी मुख्य रूप से आतिशी और सौरभ भारद्वाज ही चलाते आ रहे थे. और उससे पहले मनीष सिसोदिया पर ये पूरा दारोमदार हुआ करता था. दिल्ली शराब नीति केस में मनीष सिसोदिया पहले से ही जेल में हैं, अरविंद केजरीवाल का दाहिना हाथ माने जाने वाले संजय सिंह और सपोर्ट सिस्टम सत्येंद्र जैन भी फिर से जेल पहुंच चुके हैं.
देखा जाये तो सुनीता केजरीवाल मोर्चा संभाल चुकी हैं. अरविंद केजरीवाल के संदेशों को वो उनकी कुर्सी पर बैठ कर ही लोगों को भेज रही हैं - लेकिन जो हालात हैं, इतने भर से काम नहीं चलने वाला है.
ये तो बहुत पहले ही तय लगने लगा था कि एक दिन अरविंद केजरीवाल को भी जेल जाना पड़ सकता है. खासकर ईडी के समन को नजरअंदाज किये जाने के बाद तो पक्का ही हो चुका था - तभी ये चर्चा भी होती रही कि अरविंद केजरीवाल की जगह कौन लेगा? आम आदमी पार्टी के अंदर भी कई नामों पर चर्चा हुई. गोपाल राय से लेकर आतिशी तक. फिर भी आखिरकार यही तय हुआ कि अरविंद केजरीवाल जेल से सरकार चलाएंगे, जिसे लेकर दिल्ली के लोगों की राय भी ले ली गई - और अरविंद केजरीवाल का ये शौक भी पूरा हो ही रहा है, लेकिन कब तक?
कुछ और न हो जाय, उससे पहले कोई कारगर कदम तो उठा ही लिये जाने चाहिये - कहीं ऐसा तो नहीं गिरफ्तारी के लिए सही वक्त का लंबा इंतजार करने वाले अरविंद केजरीवाल सरकार को भी बर्खास्त किये जाने की प्रतिक्षा कर रहे हैं?
बहरहाल, कुछ ऐसे पूछे जाने पर कि अरविंद केजरीवाल की जगह सुनीता केजरीवाल को आगे लाये जाने की क्या योजना है?
दिल्ली सरकार की मंत्री आतिशी कहती हैं, सुनीता केजरीवाल, अरविंद केजरीवाल की पत्नी हैं... उनका और AAP के सभी नेताओं का परिवार संघर्ष में शामिल रहा है. इंडिया अगेंस्ट करप्शन से लेकर आम आदमी पार्टी के बनने तक सुनीता केजरीवाल और अरविंद केजरीवाल के माता पिता भी हर संघर्ष में साथ रहे हैं... और आज भी संघर्ष में शामिल हैं.
ये तो सवाल टाल देना हुआ. या घुमा फिरा कर जवाब देने जैसा है. अगर वास्तविकता यही है, तो तैयारी कमजोर है. लिहाजा लड़ाई में जीत की भी गुंजाइश कम नजर आ रही है. किसी भी लड़ाई को जीतने के लिए कुछ चीजें अनिवार्य होती हैं. सही रणनीति, ठोस तैयारी और आगे बढ़ कर मैदान में डटा रहने वाला एक नेता. अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी के बाद ये सब लड़खड़ाता हुआ दिखाई पड़ रहा है.
सुनीता केजरीवाल को पूरी कमान सौंप दी जाये तो बात बहुत अलग हो सकती है. सुनीता केजरीवाल को दिल्ली का मुख्यमंत्री बना दिये जाने पर जेल से सरकार चलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी - और जिन संभावित चुनौतियों की आशंक है, वे भी टाली जा सकेंगी.
जरूरी नहीं है कि सुनीता केजरीवाल को दिल्ली का मुख्यमंत्री ही बनाया जाये. आम आदमी पार्टी का संयोजक बना कर भी ये काम हो सकता है, सरकार का कामकाज तो आतिशी और सौरभ भारद्वाज यथाशक्ति संभाल ही रहे हैं - वैसे दिल्ली की संवैधानिक व्यवस्था में उपराज्यपाल के पास ज्यादातर अधिकार होने की सूरत में संभालने के नाम पर कामकाज में बहुत कुछ है भी तो नहीं.
सुनीता केजरीवाल की भूमिका करीब करीब वैसी ही लगती है जैसी सोनिया गांधी के अंतरिम अध्यक्ष रहते कांग्रेस के अंदर के हालात थे, जब जी23 का वो तूफान मचा देने वाला पत्र आया था. अव्वल तो मल्लिकार्जुन खर्गे के आ जाने के बाद भी बहुत कुछ बदला नहीं है, लेकिन कागज पर दस्तखत कौन करेगा - इसके लिए किसी को घाट घाट का पानी पीने की जरूरत नहीं है.
'केजरीवाल को आशीर्वाद' यूं ही तो नहीं मिलने वाला है
अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं, लेकिन उनकी गिरफ्तारी को लेकर अब भी पूरे देश में चर्चा हो रही है. हफ्ते के शुरू में मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गांव में था. मेरे पास ही दो लोग आपस में बातचीत कर रहे थे. उनकी बातचीत में मुझे अरविंद केजरीवाल का नाम सुनाई पड़ा. मैं उनकी बातें सुनने लगा.
एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से कह रहा था, 'केजरीवाल के त सेंकि देले स... ना भइया...' दूसरा व्यक्ति बगैर कुछ बोले, बस मुस्कुराते हुए सुने जा रहा था. बोलने वाला बोले जा रहा था. वो काफी खुश था. ये भी मालूम हुआ कि वो बिहार में हाल ही में हुई भर्ती में प्राइमरी स्कूल का शिक्षक हो गया है, लेकिन बातचीत सुन कर जो महसूस हुआ वो नीतीश कुमार के लिए फिक्र की बात हो सकती है.
अरविंद केजरीवाल को लेकर ऐसी बातचीत मैंने 2014 के आम चुनाव से पहले भी सुनी थी. बनारस के लहुराबीर में चाय की दुकान पर ऐसे दो लोग आपस में बात कर रहे थे. जब एक व्यक्ति ने बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के खिलाफ अरविंद केजरीवाल के चुनाव मैदान में उतरने की बात कही तो दूसरे का रिएक्शन था, 'अरे गुरु, काहे चिंता करत हउअ... मार के भगा देवल जाई.'
ताज्जुब मुझे इस बात पर हो रही है कि 10 साल बाद भी किसी नेता के प्रति लोगों की सोच बदली क्यों नहीं? आखिर बार बार आम आदमी पार्टी नेताओं की तरफ से किस सोच की बात कही जाती रही है. वो कौन सी सोच है, जिसे अरविंद केजरीवाल नाम दिया जाता है. ये तो बस फिल्मी बातें लगती हैं. जैसे फिल्म सरकार में एक डायलॉग सुनाई देता है - सरकार किसी व्यक्ति का नाम नहीं है, सरकार एक सोच है.
अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी के बाद ऐसा समझा जा रहा था कि आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता और समर्थक सड़कों पर उतर आएंगे, और कांग्रेस के लोग भी उसमें साथ नजर आएंगे - लेकिन ये क्या, आम आदमी पार्टी को तो व्हाट्सऐप पर 'केजरीवाल को आशीर्वाद' कैंपेन चलाना पड़ रहा है.
किसी भी नेता के लिए जनता की सहानुभूति तभी मिलती है, जब वो लोकप्रिय हो. हो सकता है दिल्ली में चीजें बेहतर हों, लेकिन बाकी जगह भी अगर पूर्वांचल और बनारस जैसी ही हालत है, तो ये अरविंद केजरीवाल के लिए बहुत ही ज्यादा चिंता की बात है.
लोकसभा चुनाव 2024 के दौरान अरविंद केजरीवाल की जरा सी चूक बहुत भारी पड़ सकती है, और सुनीता केजरीवाल भी तो उनकी ही तरह नौकरशाही की पृष्ठभूमि से ही आई हैं - सुनीता केजरीवाल को आगे कर अरविंद केजरीवाल के पास नई शुरुआत का बेहतरीन मौका है.
सुनीता केजरीवाल को लेकर अरविंद केजरीवाल के मन में एक ही संकोच हो सकता है. वो भी परिवारवाद की राजनीतिक को लेकर निशाने पर आ जाएंगे, लेकिन ये सब सोचने का वक्त अरविंद केजरीवाल के पास बचा है क्या? अज्ञेय के शब्दों में समझने की कोशिश करें, तो - मरा क्या और मरे, इसलिए अगर जीये तो क्या? जिसे पीने को पानी नहीं, लहू का घूंट पिये तो क्या?
मृगांक शेखर