जो मेरे घर कभी नहीं आएंगे
मैं उनसे मिलने
उनके पास चला जाऊंगा
और सचमुच, विनोद कुमार शुक्ल चले गए...शुक्ल का जाना हम सबके घर से अपने किसी बुजुर्ग का चला जाना है. भारतीय साहित्य उदास है. इसलिए नहीं कि उसने 88-89 साल के अपने एक वरिष्ठ रचनाकार को खो दिया. बल्कि वह इसलिए भी उदास है कि शुक्ल के साथ ही सहजता, सरलता और तरलता का वह अध्याय भी चला गया, जो अब बमुश्किल ही देखने को मिलेगा.
अभी कल की ही बात है. राजधानी के एक पत्रकार शिशिर सोनी ने ह्वाट्सएप संदेश भेजकर इस बात का आग्रह किया था कि साहित्य तक और 'साहित्य आजतक' इस बात का अभियान चलाए कि केंद्र और राज्य सरकार कलम के इस योद्धा को एयर लिफ्ट कराकर दिल्ली लाकर इलाज कराए.
उनकी चिंता में हर उस साहित्य प्रेमी की चिंता झलक रही थी, जो अपने वरिष्ठ साहित्यकारों से अनुराग रखती है. पर शुक्ल जी की स्वास्थ्यगत स्थितियां ऐसी नहीं थीं कि उन्हें रायपुर से बाहर लाया जाता.
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सरकारी अस्पताल में हुआ इलाज
इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहेंगे कि शुक्ल का निधन राज्य सरकार की तमाम सदिच्छाओं, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक की तमाम चिंताओं के बावजूद एक सरकारी अस्पताल में हुआ, जबकि शुक्ल ने ग़रीब की बीमारी, महंगे डाक्टर और सरकारी अस्पताल के संबंधों अपनी एक कविता में कुछ यों लिखा था…
सबसे गरीब आदमी की
सबसे कठिन बीमारी के लिए
सबसे बड़ा विशेषज्ञ डॉक्टर आए
जिसकी सबसे ज़्यादा फ़ीस हो.
सबसे बड़ा विशेषज्ञ डॉक्टर
उस ग़रीब की झोंपड़ी में आकर
झाड़ू लगा दे
जिससे कुछ गंदगी दूर हो…
इसी कविता की आखिरी पंक्तियों में वह कामना करते हैं -
…बीमार को सरकारी अस्पताल
जाने की सलाह न दे.
कृतज्ञ होकर
सबसे बड़ा डॉक्टर सबसे ग़रीब आदमी का इलाज करे
और फ़ीस मांगने से डरे.
सबसे ग़रीब बीमार आदमी के लिए
सबसे सस्ता डॉक्टर भी
बहुत महंगा है…
विनोद कुमार शुक्ल की लोकप्रियता के पीछे उनकी सहजता के साथ ही उनके लेखन के तेवर का भी बड़ा हाथ था. वे भारतीय साहित्य में जन सामान्य के प्रतिनिधि थे. उनकी रचनाओं के कथ्य और भाव ही नहीं बल्कि शीर्षक तक में आम आदमी झलकता था.
सम्मानित लेखकों में होती थी गिनती
1 जनवरी, 1937 को छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव में पैदा हुए विनोद कुमार शुक्ल समकालीन हिंदी साहित्य के सबसे लोकप्रिय और सम्मानित लेखकों में गिने जाते थे. उन्होंने जबलपुर कृषि विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा हासिल की थी. कथा, उपन्यास और कविता के क्षेत्र में उनकी समान गति थी. साहित्य में चल रहे ‘वाद’ से अप्रभावित शुक्ल युवाओं, बुजुर्गों और अपने समकालीनों के बीच समान रूप से लोकप्रिय थे. उनकी पुस्तकों की लोकप्रियता ‘नई वाली हिंदी’ के लेखकों तक के लिए ईर्ष्या का विषय थीं.
उनकी चर्चित पुस्तकों में कविता-संग्रह ‘लगभग जयहिन्द’, ‘वह आदमी नया गरम कोट पहिनकर चला गया विचार की तरह’, ‘सब कुछ होना बचा रहेगा’, ‘अतिरिक्त नहीं’, ‘कविता से लम्बी कविता’, ‘कभी के बाद अभी’, ‘प्रतिनिधि कविताएं’ के अलावा उपन्यास 'नौकर की कमीज़', 'खिलेगा तो देखेंगे', 'दीवार में एक खिड़की रहती थी', 'हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़', 'यासि रासा त', 'एक चुप्पी जगह' और कहानी संग्रह 'पेड़ पर कमरा', 'महाविद्यालय', 'एक कहानी' और 'घोड़ा और अन्य कहानियां' शामिल हैं.
साहित्य अकादमी पुरस्कार, गजानन माधव मुक्तिबोध फेलोशिप, रजा पुरस्कार और मातृभूमि बुक ऑफ द ईयर अवॉर्ड से भी सम्मानित शुक्ल को वर्ष 2024 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. यह सम्मान पाने वाले वे छत्तीसगढ़ के पहले साहित्यकार थे. इसके अलावा उन्हें अमेरिका का प्रतिष्ठित पेन नाबोकॉव अवॉर्ड भी दिया गया था.
उनकी कृति ‘नौकर की कमीज’ पर निर्देशक मणि कौल ने एक फिल्म भी बनाई थी. इसके अलावा उनकी कई कहानियों को भी परदे पर उतारा गया था. अमित दत्ता के निर्देशन में बनी फिल्म ‘आदमी की औरत’ को वेनिस फिल्म फेस्टिवल में स्पेशल इवेंट पुरस्कार भी मिला था.
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तीस लाख की रॉयल्टी की खूब हुई थी चर्चा
शुक्ल हाल ही में अपने एक उपन्यास के प्रकाशन के दशकों बाद अपेक्षाकृत एक नए प्रकाशक द्वारा तीस लाख की रॉयल्टी पाकर भी चर्चा में थे. प्रकाशक शैलेष भारतवासी का दावा था कि उनकी 'किताब दीवार में एक खिड़की रहती थी' की 87 हजार प्रतियां बिकी थीं. सच कहें तो अपनी सहजता और सृजन में शुक्ल इन सबसे परे थे. उम्र के इस पड़ाव पर भी उनका लिखना, पढ़ना जारी था. गति भले ही धीमी थी. उनकी उसी कविता ‘जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे’ की आखिरी पंक्तियां कुछ यूं हैं-
असंख्य पेड़ खेत
कभी नहीं आएंगे मेरे घर.
खेत-खलिहानों जैसे लोगों से मिलने
गाँव-गांव, जंगल-गलियां जाऊंगा.
जो लगातार काम में लगे हैं
मैं फ़ुरसत से नहीं
उनसे एक ज़रूरी काम की तरह
मिलता रहूँगा-
इसे मैं अकेली आख़िरी इच्छा की तरह
सबसे पहली इच्छा रखना चाहूंगा.
विनोद कुमार शुक्ल जी, आपकी इस इच्छा के प्रति नमन! हमारे समय के महत्त्वपूर्ण रचनाकार...
जय प्रकाश पाण्डेय