उत्तराखंड के धराली गांव में आई भीषण अतिवृष्टि ने जब सब कुछ तहस-नहस कर दिया, तब एक ही बात हर किसी की जुबां पर थी- अगर उस दिन हारदूद मेला नहीं होता, तो शायद हालात और भी भयावह होते. यह मेला, जो श्रावण मास में समेश्वर देवता की विशेष पूजा के साथ आयोजित होता है, इस बार अनजाने में पूरे गांव के लिए सुरक्षा कवच बन गया. प्रत्यक्षदर्शी रजनीश पंवार की आंखें आज भी उस रात की भयावहता को याद कर नम हो उठती हैं. वे बताते हैं- सभी समेश्वर देवता के मंदिर में थे. विशेष पूजा और आराधना चल रही थी. अगर हम वहां नहीं होते, तो उस समय धराली बाजार में होते... और बाजार तो पूरी तरह तबाह हो गया.
धराली के अधिकांश लोग इस बात को देवकृपा मानते हैं कि हारदूद मेले के आयोजन के चलते गांव के सभी लोग एक जगह, देवता के सान्निध्य में एकत्र थे. यही कारण रहा कि आपदा के समय अधिकांश ग्रामीण सुरक्षित रहे और जनहानि न्यूनतम रही.
क्या है हारदूद मेला?
श्रावण माह में मनाया जाने वाला यह पारंपरिक त्यौहार धराली, मुखवा और आसपास के गांवों की आस्था का केंद्र है. बुग्यालों से लाए गए ब्रह्म कमल और जयान जैसे दुर्लभ फूल समर्पित कर समेश्वर देवता की आराधना की जाती है. पहले दिन रात्रि पूजा और विशेष अनुष्ठान होते हैं, और दूसरे दिन देव आराधना के साथ मेले का समापन होता है.
आपदा की पहली रात की एक तस्वीर, जिसमें समेश्वर देवता के प्रांगण में ग्रामीण पूरी श्रद्धा से पूजा कर रहे हैं, आज गांव के हर घर में आस्था और आभार का प्रतीक बन चुकी है. धराली के लोग मानते हैं कि 'धरती हिली, घर बहे, बाजार उजड़े- पर भगवान ने अपने भक्तों को अपनी छांव में बचा लिया.' यह घटना बताती है कि परंपराएं, श्रद्धा और सामूहिक एकजुटता कभी-कभी जीवन रक्षक बन जाती हैं. समेश्वर देवता की यह कृपा धराली गांव की स्मृतियों में हमेशा अमिट रहेगी.
ओंकार बहुगुणा