यूपी में विधानसभा चुनाव में बीजेपी की प्रचंड जीत के बाद सफलता का सिलसिला जारी रखते हुए पार्टी ने विधान परिषद चुनाव में 36 सीटों में से 33 पर क्लीन स्वीप किया. इसके बाद राज्यसभा की 11 में से 8 सीटों पर चुनाव में निर्विरोध निर्वाचन दर्ज़ कर अपना प्रदर्शन बरकरार रखा. एक बार फिर विधानपरिषद की 9 सीटों पर पार्टी के प्रत्याशियों ने नामांकन किया है. इस बीच जिस नाम की सबसे ज़्यादा चर्चा होती रही उस नाम को किसी लिस्ट में जगह नहीं मिल पाई. मुलायम परिवार की छोटी बहू और लखनऊ की कैंट सीट से चुनाव लड़ चुकी अपर्णा यादव को फ़िलहाल सिर्फ़ इंतज़ार करना पड़ रहा है. हालांकि, हर सूची आउट होने से पहले सबसे ज़्यादा क़यास अपर्णा यादव के नाम पर ही लगाए जाते रहे.
9 प्रत्याशियों ने किया नामांकन
बीजेपी के 9 प्रत्याशियों ने विधान परिषद के लिए नामांकन की आख़िरी तारीख़ 9 जून को नामांकन किया. हालांकि, सूची में 7 मंत्रियों को शामिल करना तय था, क्योंकि डिप्टी सीएम केशव मौर्य और मंत्री भूपेन्द्र चौधरी का कार्यकाल 6 जुलाई को ख़त्म हो रहा है और 5 ऐसे मंत्री हैं जिनको विधान परिषद भेजना औपचारिक रूप से ज़रूरी था. क्योंकि बिना किसी सदन का सदस्य बने उनको सरकार में शामिल किया गया था. इसलिए उनको सदन में भेजने की औपचारिकता ज़रूरी थी. पर इसके बावजूद दो सीटों के लिए अटकलें लगायी जाती रहीं और इन दो सीटों के लिए कई नाम चर्चा में रहे.
पुराने कार्यकर्ताओं को तरजीह
उनमें मुलायम परिवार की छोटी बहू और चुनाव से पहले बीजेपी में शामिल हुईं अपर्णा यादव का नाम सबसे ज़्यादा चर्चा में रहा. पर बीजेपी ने अपने पुराने कार्यकर्ताओं बनवारी लाल दोहरे और मुकेश शर्मा को चुनाव में उनकी दावेदारी छोड़ने का ईनाम देते हुए उनको विधान परिषद भेजने का फ़ैसला किया.
हर सूची से पहले दावेदारी के क़यास
दरअसल अपर्णा यादव को विधानसभा चुनाव से पहले टिकट के दावेदार के रूप में उसके बाद विधान परिषद चुनाव में भी दावेदार के रूप में देखा गया. लेकिन दोनों बार पार्टी की घोषित सूची में नाम नहीं आया. इसके बाद राज्यसभा के प्रत्याशी के तौर पर उम्मीद कम थी फिर भी क़यास लगते रहे. वो सूची भी घोषित हुई पर नाम नहीं घोषित हुआ. और अब विधान परिषद की लिस्ट जारी होने से पहले तक प्रत्याशी बनने की चर्चा होती रही. पर सूची में बीजेपी ने अपने पुराने कार्यकर्ताओं को मौक़ा दिया.
जिनकी वैल्यू उन्हें टिकट
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि बीजेपी बाहर से आए उन्हीं नेताओं को ‘सीट’ रिवॉर्ड के तौर पर देती है जिनकी उपयोगिता या तो साबित हो चुकी है या आगे साबित हो सकती है. पार्टी में अगर कोई ऐसा हाई प्रोफाइल चेहरा शामिल होता है तो भी उनको अपनी निष्ठा संगठन के प्रति साबित करनी पड़ती है. ये इसलिए भी है, क्योंकि रणनीति के तहत बीजेपी जब कभी ऐसे धुर विरोधियों या विरोधी ख़ेमे के नेताओं को पार्टी में शामिल करती है तो संगठन में हर स्तर पर उन नेताओं की स्वीकार्यता नहीं होती. इसके लिए कुछ वक्त लगता है.हाँ, अगर तात्कालिक रूप से उनसे कोई सियासी लाभ मिल रहा हो तो पार्टी इस फ़ैक्टर को दरकिनार भी कर देती है. हालांकि, कई बार ये बात तय ही रहती है पर किसी नेता के शामिल होने पर पार्टी ज़ाहिरा तौर पर यही कहती है किसी से कोई वायदा सीट के लिए नहीं किया जाता.
जो उपयोगी उन्हें मौका
पिछले कई वर्षों में ऐसे ढेरों उदाहरण हर स्तर पर मौजूद हैं. हाल के वर्षों में सबसे बड़े उदाहरण के तौर पर ज्योतिरादित्य सिंधिया को लिया जा सकता है. खुद बीजेपी की शीर्ष नेताओं में शामिल रहीं स्व. राजमाता विजयराजे सिंधिया हो या बाद में कांग्रेस का चेहरा बन चुके माधवराव सिंधिया, उनके सियासी वारिस ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीजेपी में शामिल होने पर उनको मिलने वाले पद को लेकर बहुत क़यास लगे थे पर पार्टी ने उनकी उपयोगिता को माना जब उन्होंने विधायकों को साथ लाकर कमलनाथ की सरकार गिराकर बीजेपी में सियासी तौर कर अपनी उपयोगिता साबित की.
वरिष्ठ पत्रकार रतन मणि लाल कहते हैं ‘अपर्णा यादव अभी अपनी उस उपयोगिता को नहीं दिखा पायी हैं जिसकी अपेक्षा उनसे की गयी है. ये ठीक है कि चुनाव से पहले उन्होंने पार्टी के कहने पर पार्टी के लिए प्रचार किया पर बड़े आयोजनों में एकमात्र लखनऊ में आयोजित वही मार्च है जो महिला वोटरों को संदेश देने के लिए उन्होंने बीजेपी की दूसरी महिला नेत्रियों के साथ किया था. इसके अलावा अपर्णा यादव ने अपने दम कर बहुत सक्रियता बाद में नहीं दिखाई. ज़ाहिर है पार्टी में अभी इस बात को साबित होना है कि सियासी तौर कर अपर्णा क्या कर सकती हैं.’ पार्टी के सूत्र भी इसी बात की पुष्टि करते हैं. अगर अपर्णा यादव को कोई पद दिया जाता है तो आगे वो किस तरह सियासी लाभ बीजेपी को पहुंचा सकती हैं ये पार्टी देखेगी.
विधानसभा चुनाव के पहले से चर्चा
दरअसल समाज सेवा में सक्रिय अपर्णा यादव ने जब चुनाव से ऐन पहले बीजेपी का दामन थामा तो बहुत सारे लोगों को इस बात का भरोसा था कि पार्टी अपर्णा को किसी सीट से चुनाव लड़ा सकती है. हालांकि, अपर्णा यादव ने 2017 का विधानसभा चुनाव समाजवादी पार्टी के टिकट पर लखनऊ कैंट सीट से लड़ा था लेकिन उनको बीजेपी प्रत्याशी रीता बहुगुणा जोशी के हाथों हार का सामना करना पड़ा था. इसके बाद बीजेपी सरकार बनी तो भी अपर्णा यादव लगातार अपने इसी क्षेत्र में सक्रिय रहीं, लोगों के बीच जाती रहीं. इस बीच हर राजनीतिक मुद्दे पर वो खुल कर बोलीं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तारीफ़ की. वो कहती भी रहीं कि जो उनको सही लगता है उस पर वो बोलती हैं.भले ही पीएम का स्वच्छता अभियान हो या सीएम के विकास कार्य अपर्णा यादव ने कई बार अपने बातों को पार्टी लाइन से हट कर बेबाक़ी से रखा और पार्टी को असहज करती रहीं.
कई बार माना गया दावेदार
विधानसभा चुनाव से ऐन पहले अपर्णा यादव के शामिल होने से इस क़यास को बल मिला कि अपर्णा को बीजेपी चुनाव लड़ा सकती है. कैंट सीट को लेकर कई दावेदार होने की वजह से कैंट सीट की घोषणा में देरी हुई हो इस वक्त भी अपर्णा यादव की दावेदारी को एक वजह माना गया. हालांकि, ये भी चर्चा होती रही कि पार्टी अपर्णा यादव को कैंट जैसी सुरक्षित सीट न देकर कोई और सीट से सकती है. पर अपर्णा यादव ने खुद हर बार यही कहा कि वो किसी सीट की वजह से बीजेपी में नहीं आयीं और उन्हें पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में भरोसा है. पार्टी ज़रूर उन लोगों के लिए कुछ सोचती है जो कार्यकर्ता हैं और वो भी उनमें से एक हैं.
पार्टी के एक नेता ये भी कहते हैं कि पार्टी सबके लिए सोचती है और आगे आने वाले दिनों में पार्टी का शीर्ष नेतृत्व क्या फ़ैसला करेगा ये कोई नहीं जानता. आगे निगमों और आयोगों में भी जगह बन सकती है. साथ ही विधानपरिषद की मनोनयन वाली सीटों पर भी नाम तय होने हैं. पर इसके बावजूद अभी कुछ तय नहीं है क्योंकि पार्टी में समायोजन के लिए कार्यकर्ताओं की संख्या भी बहुत ज़्यादा है.
शिल्पी सेन