पन्ना से Ground Report: 'पहले उनके फेफड़े पत्थर हुए, फिर देह मिट्टी...अब किस्मत में है विधवा होने का ठप्पा और खदानों की धूल'

जहां नदी में हीरे बहते हैं, जहां ठोकर मारते ही जमीन हीरा उगलती है, उसी पन्ना जिले का एक गांव है मनौर. पत्थर खदानों में काम करते यहां के ज्यादातर पुरुष कम उम्र में ही खत्म होने लगे. तब से मनौर विधवाओं का गांव हो गया. सांझ के झुटपुटे में यहां मिली एक महिला कहती है- ‘चाहे जितना पुराना हो जाए, दुख नहीं बिसरता’.

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पत्थर खदानों में सिलिका धूल की वजह से फेफड़ों की गंभीर बीमारी का खतरा रहता है. पत्थर खदानों में सिलिका धूल की वजह से फेफड़ों की गंभीर बीमारी का खतरा रहता है.

मृदुलिका झा

  • पन्ना, मध्य प्रदेश.,
  • 10 दिसंबर 2025,
  • अपडेटेड 10:55 AM IST

'35 साल के थे, जब वो अचानक खत्म हो गए. डॉक्टर बताते, फेफड़ों में धूल भर गई थी. पहले बोलते-बताते थे. बाद में चार कदम चलते मुंह से खून उगलने लगे. उनके जाने के बाद तीन अकेले बच्चे पाले. अब तो वो चेहरा भी ठीक से याद नहीं. न फोटो है, न आधार कार्ड. लेकिन दुख भूलता कहां है! कितना भी खाओ-पियो, हंसो-बोलो- संगी का सोग पकड़े रखता है.'

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निकलते हुए हमने मनौर पर ठीक-ठाक होमवर्क कर रखा था. हेडक्वार्टर से दूरी. आबादी. पेशा. कम उम्र विधवाएं...लगभग सब कुछ. लेकिन तैयारी धरी की धरी रह जाती है, जब बातचीत के लिए बुलाने पर ढेर की ढेर महिलाएं इकट्ठा हो जाती हैं.

'ये सब वही हैं'- चूड़ी-बिंदी में सजी एक युवती सूने चेहरों को दिखाते हुए कहती है. 'और भी हैं, जिनके साथ अभी-अभी घटना हुई. वे काम के लिए बाहर जा चुकीं.'

पैंतीस से पैंतालीस.. स्टोन माइन्स में काम करते पुरुष इसी उम्र तक पहुंच पाते हैं. वजह है सिलिकोसिस बीमारी. 

खदानों में काम के दौरान सिलिका डस्ट सांस के जरिए लंग्स तक पहुंचकर जम जाती है और फेफड़े सख्त हो जाते हैं. करीब-करीब पत्थर. मरीज ठीक से सांस नहीं ले पाता. दो-चार कदम चलना भी उसे बेदम करने लगता है. आखिर-आखिर में थकान, तेज बुखार के साथ मुंह से खून आने लगता है और मौत हो जाती है.

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यह बीमारी लाइलाज है, जिसे महंगे ट्रीटमेंट से सिर्फ मैनेज किया जा सकता है, वो भी कुछ समय के लिए. 

पहली किस्त यहां पढ़ें: पन्ना से Ground Report: हीरे की चाह में जिंदगी तबाह...पीढ़ियां खपीं, किस्मत रूठी मगर मजदूरों की उम्मीद नहीं टूटी

आखिरी जनगणना के अनुसार, लगभग एक हजार की आबादी वाले मनौर में तीन टोले यानी मोहल्ले हैं. वहां के रोजगार सहायक अमित कुमार कहते हैं- यहां एक आदिवासी बस्ती है. एक साहू मोहल्ला है और एक छोर पर यादव बस्ती है. आदिवासी मोहल्ले के ज्यादातर लोग स्टोन माइन्स में काम करते रहे. यही वो समुदाय है, जिसपर बीमारी की गाज गिरी. इसमें कुल 70 विधवाएं हैं, जो गांव में हैं. इसके अलावा काफी महिलाएं बाहर जा चुकीं. 

नई शादीशुदा रोशनी गौड़ हमारा पहला पड़ाव थीं.

वे कहती हैं- मेरी पसंद की शादी थी. जब ब्याह के बाद पहली बार मायके गई, सब परेशान थे. एक रिश्तेदार ने बता दिया था कि इस गांव में औरतें जल्दी विधवा हो जाती हैं. तब तो अनसुना कर दिया, लेकिन बेटी के होने पर डॉक्टर ने भी कह दिया कि उसे बीमारी से दूर रखना. मैं डर गई. न कहीं उठने-बैठने जाती हूं, न खाने-पीने का लेन-देन रखा. घर में किसी को सर्दी-खांसी भी हो जाए तो घबराहट होती है कि कहीं टीबी तो नहीं हो गया. 

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सिलिकोसिस के उच्चारण में अटक रही रोशनी बीमारी को टीबी कहने की छूट लेती हैं.

अपने नाम की तरह ही धूपधुली ये हंसोड़ युवती टीबी कहते हुए वाकई डरी हुई दिखती है. यहां हर घर में कोई न कोई विधवा है. जो भी पुरुष पत्थर खदान में काम करते हैं, 40 साल के होते-होते खत्म हो जाते हैं. 60 साल के दो-चार आदमी ही मिलेंगे गांव में, तुम खुद देख लो. 
 
फिर, उन महिलाओं का, उनके बाल-बच्चों का काम कैसे चलता है? 
 
मजदूरी करने पन्ना चली जाती हैं, या फिर किसी और बड़े शहर. बाल-बच्चों को भी साथ लिए जाती हैं. अभी भी बहुत-सी बाहर रह रही हैं. जिनकी उम्र कम है, वे दिल्ली चली जाती हैं. जो काफी साल पहले पति को खो चुकीं, वे बाकी हैं. 

हमें ठहरने का कहते हुए रोशनी ऐसी महिलाओं को एक जगह बुलाने का जिम्मा लेती हैं. एक-एक करके कुछ ही मिनटों में सात-आठ महिलाएं जमा हो जाती हैं. वे ऐसी गर्मजोशी से मिलती हैं, जैसे मैं उनकी पड़ोसी हूं जो छुट्टियां बिताने बाहर गई थी. 

बेहद जल्द और ऊंची आवाज में एक-साथ बोलती इन महिलाओं में एक बात कॉमन है- उनके धूल-रंगे चेहरे. ऐसा लगता है कि पतियों के साथ-साथ जानलेवा सिलिका डस्ट उनके चेहरे पर जम गई हो. अपने तमाम बातुनीपन में भी वे चुप लगती हैं. और हंसते हुए भी खोयापन है. 

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कैमरे पर बात करने से वे एक झटके में मना कर देती हैं. मैं ऑडियो ऑन करती हूं, लेकिन एक साथ कई आवाजें सुनते हुए हारकर उसे भी बंद करना पड़ता है. 

दूसरी किस्त यहां पढ़ें: पन्ना से Ground Report: 'कभी राजी से तो कई बार जबरन भी'...हीरे के लिए खदानों में महिलाओं संग 'गंदा' टोटका!

लगभग 40 साल की ललिता (नाम बदला हुआ) देखने में 60 पार की लगती हैं. लगभग डेढ़ दशक पहले पति को खो चुकी ललिता याद करती हैं- मुंह से खून आता था. वे अस्पताल भी नहीं जा पाए. मेरे तीन बच्चे थे. एक छह महीने का. उसे धरे-धरे मजदूरी करने लगी. पैसे कम पड़े तो लकड़ी काटने जंगल जाने लगी. 

वहां तो जानवरों का डर रहता होगा! मैं पिछली बातें याद करती हूं.

रहता क्यों नहीं बाई. भालू मिला. शेर दिखा. सांप पांव के नीचे से गुजरा. सब हुआ. जंगल में वो ही तो रहते हैं, हम तो घरों में रहते हैं. हम जी-जान लेकर भागते. पेट भरना है तो सब करना ही होगा. छाती से बच्ची को बांधे पीठ पर लकड़ियों का ढेर लिए लौटती. अगले दिन पैदल पन्ना जाती. दो दिन में थोड़े पैसे हो पाते थे. 

बीच में ही कई महिलाएं एक साथ बोलने लगती हैं. साझा दर्द सुनाने की साझा इच्छा. 

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ललिता अगली बार जब बोलती हैं, वे मुझसे नहीं, किसी और से बात कर रही थीं. गोबर लिपी जमीन से. बल्ब पर मंडराते पतंगे से. या शायद खुद से. वे कहती हैं- उनकी कोई फोटो मेरे पास नहीं. तब आज की तरह आधार कार्ड भी जरूरी नहीं था. मेरा बेटा, जो तब छह महीने का था, वो अब उनकी तरह दिखता है. उसे देखकर याद है कि वे कैसे दिखते थे. 

छोटे-से जिले के बेहद छोटे गांव की ये महिला अपने दर्द को भी इस खूबसूरती से बोलती है कि सुनते मन न भरे. वो अनपढ़ है, लेकिन तकलीफ कब से ऑक्सफोर्ड ग्रेजुएट मांगने लगी! 

बेटे आपके खदान जाते हैं?

नहीं. अब घर में कोई पत्थर खदान नहीं जाता. सब मजदूरी करते हैं. खदानें भी धीरे-धीरे बंद हो रही हैं. 
 
ललिता की ये बात ठीक है. पर्यावरणीय पैमानों पर खरा न उतरने की वजह से कई खदानों का रिन्यूअल रुक गया. कई को टाइगर रिजर्व की सीमा में आने की वजह से रुकना पड़ा. कई अवैध हैं, इसलिए बंद करा दी गईं. अब पत्थर खदानें कम हैं, लेकिन काफी नुकसान पहले ही हो चुका. 

भरे-पूरे परिवार की मुखिया ममता देवी (नाम बदला हुआ) गोद में एक छोटे बच्चे को लिए हुए हैं. उनकी चुप में ही बाकियों की आवाज से ज्यादा जुंबिश है. मैं उम्र पूछती हूं तो कहती हैं- 40 होंगे. सबकी उम्र यहीं अटकी हुई. 

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टोकने पर हंसती हैं- हम शहर वाले नहीं कि फल-फ्रूट खाकर छोटे बने रहें. आवाज में तंज या शायद तकलीफ.

ममता बताती हैं- ये हमारी नातिन है. इसकी मां खत्म हो गई. बकरी का दूध पिलाकर बड़ा किया है. 

आपके पति?

छोटी उम्र थी हमारी, जब वो गए. सबने दूसरी शादी के लिए कहा लेकिन हम माने नहीं. पति-पत्नी का संजोग जब तक रहता है, तब तक है. अब नहीं है तो क्या करें! काट रहे हैं. वैसे भी बच्चे से प्यारा पति नहीं होता. दूसरी कर लेते और वो बच्चों को नहीं देखता, तो क्या होता! 

तो बच्चों से अब मन बहल जाता होगा आपका!

पति जैसा साथ कौन देगा. बच्चा दो रोटी देगा तो थाली में ताना भी परोस देगा. हमारी छाती पिराती है. कान से कम सुनते हैं. लेकिन किसे बताएं.

वो होते तो रो लेते. लड़कर फिर मिल जाते. जोड़ी टूट जाए तो कोई सुनने वाला नहीं रहता. 

पति को क्या हुआ था, वही छाती की बीमारी?

हां. टोन लंग (स्टोन लंग्स ) बताया था. हम छतरपुर भी गए. सागर भी. सब बेच-बूच दिया कि कुछ इलाज हो जाए, लेकिन नहीं हो सका. जब शरीर जलाया तो टोन लंग सबसे देर से जला था, ऐसा सीमेंट भर गया था उसमें. पुरानेपन में पीली पड़ी आवाज धीरे-धीरे बताती है. 

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सिलिकोसिस वाले फेफड़े धूल में सनकर ऐसे सख्त हो जाते हैं कि जलाने पर आसानी से नहीं जलते.

कई बार पूरे शरीर के खाक होने के बाद भी सीमेंटी फेफड़े जिंदा रहते हैं. जिंदा रहते हुए सांस के लिए तड़पते, और मरकर खत्म न हो सके इन लंग्स को देख-सुन चुकी ममता का चेहरा उस घायल चिड़िया का हो चुका, जो अधबैठी, अधउड़ी खुद को खत्म होता देख रही हो. 

मनौर में ज्यादातर औरतें दो बार मरती हैं…! 

गांव में कई नई विधवाएं भी हैं. ज्यादातर कमाने-खाने बाहर जा चुकीं. जो हैं, वे बच्चों की रोटी-पानी में व्यस्त हैं. गांव से विदा लेते हुए भी विधवाओं का झुंड मेरे साथ है. तेजी से बोलती बुंदेली मुझे समझ नहीं आती, लेकिन ये आवाजें ताजा जख्म जैसी हैं, जिसकी टीस हर दिन के साथ बढ़ेगी. 

अगले रोज हम बडोर गांव में हैं. यहां हमारी मुलाकात लच्छू लाल गोंड से होती है, जिन्हें पहले ही हमारे आने की सूचना पहुंच चुकी थी. साफ-सुथरे कपड़ों में वे इंतजार कर रहे थे. 

लच्छू की आंखों के नीचे जमा चांद साफ दिखता है.

वे धीरे-धीरे बोलते हैं क्योंकि पता नहीं कब मुंह से खून आ जाए. उनकी उम्र उतनी ही है, जितनी बड़े शहरों में मिड-करियर प्रोफेशनल्स की होती है. लगभग पचास. सर्दी के हिसाब से पहने कपड़ों के बावजूद बोलते हुए उनकी पसलियां समझ आती हैं. 

लगभग डेढ़ दशक तक पत्थर खदानों में काम करते हुए वे बीमार हुए. काम पर जाना छूटा. जांच में पता लगा टीबी है. लच्छू याद करते हैं- तीन बार कई महीनों तक टीबी की दवा खाई लेकिन तबीयत बिगड़ती गई. फिर जांच हुई. अबकी पता लगा कि सिलिको है. सालों से शरीर से चिपटी बीमारी को वे घरेलू नाम से बुलाते हैं, जैसे वो परिवार का कोई पुराना सदस्य हो. 

अस्पताल का कार्ड बन गया. पहले छह महीने फ्री दवा मिली. अब खरीदकर खानी होती है. हर पंद्रह दिन में तेज बुखार आ जाता है. खून की उल्टियां होती हैं. महीने में दो बार तो अस्पताल में भर्ती रहता हूं. 

वहां ठीक इलाज मिलता है?

बुखार कम करने की गोली दे देते हैं. गैस या दर्द का इंजेक्शन लगा देते हैं. फ्री का खाना मिलता है और डॉक्टर आसपास होते हैं. हम गरीबों के लिए तो यही बहुत है.

पैसे थे तो दवा करवाई. भोपाल-सतना-रीवा सब जगह गए. महीना-महीना रहे लेकिन कुछ नहीं हुआ. अब शरीर गरम होते ही पन्ना चले जाते हैं. जानते हैं कि मरना है. आज नहीं तो कल. कल नहीं तो परसों. 

लच्छू के लिए मौत का जिक्र जैसे रोजमर्रा की बात हो, वैसी ही जितना हमारे लिए सुबह आंख खुलना. 

क्या होता है सिलिको में?

थोड़ा भी चलो तो सांस फूल जाती है. भूख नहीं लगती. उल्टियां होती हैं. कभी-कभी खून की. शरीर में दर्द रहता है. लच्छू बता रहे हैं. बीच-बीच में सांस लेने के लिए रुकते हुए वे कहते हैं- तब तक आप आंगन देख लीजिए. 

छोटी-सी झोपड़ी, बड़े-से आंगन से घिरी हुई. शरीफा से लेकर अमरूद के पेड़. दिन का वक्त लेकिन झींगुर की तेज आवाज. तितलियां बेखौफ उड़ती हुईं. जिस बगीचे में कितने ही जीव सांस ले रहे हैं, उसका मालिक अब-तब सांस छूटने के इंतजार में है. 

कोई मदद?

मरने के बाद तीन लाख रुपये मिलेंगे बाल-बच्चों को. मैंने अर्जी लगाई थी कि कुछ तो जीते-जी दे दें कि दवा ले सकें. लेकिन मना कर दिया गया- लच्छू के चेहरे से ज्यादा उनकी आवाज में वक्त और बीमारी की झुर्रियां हैं. 

पन्ना में दो दशक से कुछ वक्त पहले बलुआ पत्थर की खदानों में काम करते मजदूर बीमारी से मरने लगे. शुरुआती लक्षणों के आधार पर इसे टीबी मान लिया गया.

साल 2011-2012 में वहां काम करते एनजीओ पृथ्वी ट्रस्ट ने हेल्थ कैंप लगवाकर खुद डॉक्टरों से जांच करवाई. इसी दौरान 162 मजदूरों को सिलिकोसिस होने की पुष्टि हुई थी. इसके बाद सरकारी जांच भी हुई, जिसमें संख्या घटकर 50 से भी कम रह गई. 

आंकड़ों में इस फर्क पर बात करते हुए ट्रस्ट की डायरेक्टर समीना युसुफ कहती हैं- सिर्फ मनौर गांव में 72 महिलाएं विधवा हैं, वहीं मनौर पंचायत, जिसमें तीन गांव लगते हैं, वहां मिलाकर 300 विधवाएं हैं, जिनके पति पत्थर खदानों में काम करते हुए कम उम्र में खत्म हो गए. 

बकौल समीना, लक्षणों की वजह से गांवों में सिलिकोसिस का इलाज टीबी की तरह होता है. गांवों में समान लक्षण वाले बहुत से पुरुष हैं, जो टीबी की दवाओं का कई-कई कोर्स ले चुके और बीमार के बीमार हैं. उनके पास आगे जांच और इलाज के पैसे नहीं. इससे पता ही नहीं लग पाता कि वे सिलिकोसिस पीड़ित हैं. 

हरियाली और धूप की महक से भरे आंगन में बैठे लच्छू अपनी ही जिंदगी में एक्स्ट्रा कैरेक्टर लगते हैं, जिसे किसी भी मिनट जाना होगा. 

वे बहुत-सी बातें बताते हैं. सांप काटने से मर चुकी पत्नी की. डेढ़ साल की बेटी की, जिसे मां बनकर उन्होंने ही पाला. सिलिको से बीत चुके दोस्तों की, जो उनकी तरह अस्पताल नहीं जा सके. और इन सबके बीच मौत की, जिसका घर आना वे सालों से टाल रहे हैं. 

सिलिकोसिस के इस मरीज की जिंदगी में मौत का जिक्र इतना आम है कि जिंदगी पीछे छूट चुकी. हमारे जाने से पहले वे अपना कार्ड लेकर आते हैं, जिसमें बीमारी की पहचान लिखी है. उसे सीने पर चिपकाते हुए वे तस्वीर खिंचाते हैं, मानो अब यही उनकी पहचान हो.

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