राष्ट्रपति ने झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रघुवर दास और तेलंगाना के वरिष्ठ नेता इंद्रसेना रेड्डी नल्लू को राज्यपाल नियुक्त किया है. रघुवर को ओडिशा और नल्लू को त्रिपुरा का राज्यपाल बनाया गया है. दोनों नेताओं की नियुक्ति का आदेश भी जारी हो चुका है. अब सियासी गलियारों में इस फैसले के पीछे की वजह को लेकर चर्चा शुरू हो गई है.
कोई इसे नेताओं की पदोन्नति बता रहा है तो कोई मुख्यधारा की राजनीति से किनारे किया जाना. चर्चा ये भी है कि बीजेपी ने राज्य इकाइयों का क्लेश मिटाने के लिए नया फॉर्मूला निकाला है- नेताओं को राज्यपाल बनाकर संबंधित राज्य से दूर कहीं राजभवन की चहारदीवारी में सीमित कर देने, संवैधानिक पद के दायरे में सीमित कर देने की रणनीति. रघुवर और नल्लू को राज्यपाल बनाए जाने के फैसले को भी इसी नजरिए से देखा जा रहा है.
दरअसल, नल्लू जिस तेलंगाना से आते हैं, वहां चुनाव का मौसम है. 30 नवंबर को मतदान होना है और नतीजे 3 दिसंबर को आएंगे. बीजेपी ने अभी कुछ महीने पहले ही वहां प्रदेश संगठन की कमान बंदी संजय को सौंपी है. इंद्रसेना रेड्डी नल्लू अविभाजित आंध्र प्रदेश की विधानसभा में बीजेपी के टिकट पर तीन बार विधायक रहे हैं, प्रदेश अध्यक्ष के साथ ही विधानसभा में विधायक दल के नेता की जिम्मेदारी भी संभाल चुके हैं. इंद्रसेना अब करीब 73 साल के हो चुके हैं और बीजेपी में 75 साल से अधिक उम्र के नेताओं को टिकट देने की नीति के लिहाज से भी उनकी टिकट दावेदारी कमजोर मानी जा रही थी.
हालांकि, कहा ये भी जा रहा था कि पार्टी जिस राज्य में अपनी सियासी जमीन तैयार करने की कोशिश कर रही है. वहां इंद्रसेना जैसे अनुभवी और पुराने सिपहसालार की अनदेखी का खतरा मोल नहीं लेना चाहेगी. इंद्रसेना उम्र की बाधा के बावजूद बीजेपी के चुनाव अभियान के लिहाज से महत्वपूर्ण किरदार माने जा रहे थे. टिकट बंटवारे से पहले ही इंद्रसेना को राज्यपाल बनाए जाने के फैसले से साफ हो गया है कि बीजेपी तेलंगाना में नए नेतृत्व के साथ ही आगे जाएगी.
रघुबर की नियुक्ति मरांडी के नेतृत्व पर मुहर?
झारखंड के पहले गैर आदिवासी मुख्यमंत्री रघुवर दास को राज्यपाल बनाए जाने को दो नजरिए से देखा जा रहा है. एक झारखंड बीजेपी में मरांडी युग रिटर्न पर मुहर और दूसरा ओडिशा में तेजी से पैर पसारती पार्टी की ओर से नवीन पटनायक सरकार पर नकेल. राजनीतिक विश्लेषक अमिताभ तिवारी ने कहा कि आजकल राजभवन और मुख्यमंत्री कार्यालय में तकरार आम बात हो गई है. पश्चिम बंगाल से लेकर केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली तक इसी तरह के उदाहरण देखने को मिलते हैं.
उन्होंने आगे कहा कि झारखंड से आने वाले रघुवर को ओडिशा का राज्यपाल बनाया गया है जिन्हें खुद भी बतौर मुख्यमंत्री काम करने का अनुभव है. ओडिशा में लोकसभा चुनाव के साथ ही विधानसभा के भी चुनाव होने हैं तो सियासी एंगल की बात होगी ही. रघुवर भी उस राज्य के सीएम रहे हैं जहां आदिवासी मतदाताओं की बहुलता है और ओडिशा में भी मतदाताओं का ये वर्ग प्रभावी है.
बीजेपी में वापसी के बाद से ही एक्टिव हैं मरांडी
कहा तो ये भी जा रहा है कि बीजेपी में वापसी के बाद बाबूलाल मरांडी एक्टिव मोड में हैं. बीजेपी ने मरांडी को झारखंड के प्रदेश अध्यक्ष का दायित्व दे रखा है और वह लोकसभा चुनाव से पहले संकल्प यात्रा पर निकले हुए हैं. एक्टिव रघुवर दास भी थे लेकिन पिछले चुनाव में उनका अपनी सीट भी नहीं बचाना उनके खिलाफ गया और अब पार्टी ने सूबे में आदिवासी चेहरे के साथ ही आगे बढ़ने का फैसला कर लिया है. रघुवर और मरांडी, दोनों ही नेताओं की सक्रियता से नेताओं और कार्यकर्ताओं में नेतृत्व को लेकर भ्रम की स्थिति बन जा रही थी तो सूबे की सत्ता पर काबिज झारखंड मुक्ति मोर्चा भी बीजेपी को घेर रहा था.
चर्चा ये भी है कि पार्टी ने झारखंड के एक अन्य पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा से दिल्ली में अपने मंत्रालय के कामकाज पर ही ध्यान केंद्रित करने को कह दिया है. अगर ऐसा है तो इसका सीधा मतलब है कि बीजेपी झारखंड की सियासत में फिर से अपने पुराने कद्दावर बाबूलाल मरांडी की ओर ही देखने का मन बना चुकी है. रघुबर की नियुक्ति को राज्य इकाइयों के क्लेष मिटाने के लिए बीजेपी के राजभवन फॉर्मूले के तौर पर भी देखा जा रहा है. दरअसल, ये पहला मौका नहीं है जब किसी प्रदेश के शीर्ष नेताओं में गिने जाने वाले किसी नेता को राज्यपाल बनाया गया हो.
बीजेपी पहले भी इस्तेमाल कर चुकी है ये फॉर्मूला
पहले भी ये देखा गया है जब कहीं नेताओं की आपसी प्रतिद्वंदिता कहें या गुटबाजी हावी होती है, तब इसे समाप्त करने के लिए किसी एक को एक्टिव पॉलिटिक्स से दूर करने के लिए राज्यपाल बना दिया जाता है. यही राजभवन फॉर्मूला है. राज्यपाल बनाए जाने का सीधा मतलब है एक्टिव पॉलिटिक्स, चुनावी राजनीति से दूरी. राजस्थान विधानसभा में विपक्ष के नेता रहे गुलाबचंद कटारिया हों या यूपी में शिवप्रताप शुक्ल, मध्य प्रदेश से थावरचंद गहलोत हों या गुजरात की पूर्व मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल, राज्य इकाइयों के क्लेश दूर करने के लिए बीजेपी पहले भी राजभवन फॉर्मूले का सहारा लेती रही है.
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गुलाबचंद कटारिया को एक समय राजस्थान की सियासत में वसुंधरा राजे के विकल्प के तौर पर देखा जा रहा था. वसुंधरा और कटारिया की अदावत के चर्चे भी आम रहे. कटारिया को राज्यपाल बनाए जाने के बाद वसुंधरा राजे ने ट्वीट कर बधाई देते हुए जो कहा था, वह दोनों नेताओं के संबंधों की कहानी बताने के लिए अपने आप में काफी है. वसुंधरा ने कहा था कि गुलाबचंद कटारिया और वसुंधरा शुरुआत में प्रतिद्वंदी थे लेकिन अब मैं प्रधानमंत्री को धन्यवाद देना चाहूंगी कि उन्होंने राज्यपाल के रूप में इतने अनुभवी, संजीदा व्यक्ति को चुना.
वसुंधरा का ये बयान कटारिया के साथ उनकी केमिस्ट्री बताने के लिए काफी है. वहीं, यूपी की सियासत में शिवप्रताप शुक्ला और सीएम योगी आदित्यनाथ के बीच मनमुटाव की चर्चा भी आम रही हैं. थावरचंद गहलोत केंद्र सरकार में मंत्री रहे, एक समय तो उन्हें मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने की रेस में भी शामिल माना जाता था. बीजेपी का बड़ा दलित चेहरा रहे थावरचंद गहलोत को भी राज्यपाल बना दिया गया. गुजरात की मुख्यमंत्री रहीं आनंदीबेन पटेल उत्तर प्रदेश की राज्यपाल हैं. उत्तराखंड के पूर्व मु्ख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी भी महाराष्ट्र के राज्यपाल रहे तो वहीं कल्याण सिंह भी राजस्थान के.
सवाल ये भी उठ रहे हैं कि क्या रघुबर दास राजभवन के बाद एक्टिव पॉलिटिक्स में वापसी कर पाएंगे जिस तरह बीजेपी की ही बेबीरानी मौर्य ने किया या फिर उनकी किस्मत कल्याण सिंह और सत्यपाल मलिक जैसी साबित होगी जो कभी चुनावी राजनीति में वापस नहीं लौट सके? ये देखने वाली बात होगी.
बिकेश तिवारी