आपातकाल@50: 'हर हफ्ते 300 लोग नसबंदी के लिए...', जामा मस्जिद के पास नसबंदी कैंप चलाने वाली रुखसाना सुल्ताना की कहानी

बड़े काले चश्मे और स्टाइलिश सूट के लिए मशहूर रुखसाना सुल्ताना ने जामा मस्जिद के पास पुरानी दिल्ली के दुजाना हाउस में एक कुख्यात नसबंदी केंद्र चलाया. ये ऑपरेशन बहुत विवादित रहा. और तब स्थानीय लोगों और पुलिस के बीच यहां कई झड़पें हुईं.

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संजय गांधी की राजनीतिक सचिव रुखसाना सुल्ताना. संजय गांधी की राजनीतिक सचिव रुखसाना सुल्ताना.

संदीपन शर्मा

  • नई दिल्ली,
  • 25 जून 2025,
  • अपडेटेड 1:43 PM IST

25 जून 1975, वो तारीख जब इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा की थी. देश के इतिहास को बदल देने वाली इस घटना के आज 50 साल पूरे हो गए. 50 साल वो समय होता है जब एक देश की दो पीढ़ियां लोकतंत्र के अनुभव हासिल कर परिपक्व हो चुकीं होती हैं. आज देश इस तारीख को याद कर इसके सबक को आत्मसात कर रहा है.

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स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे काला अध्याय 25 जून 1975 की मध्य रात्रि को आपातकाल की घोषणा के साथ लिखा गया था, लेकिन ये इतना अचानक नहीं था. इसकी प्रस्तावना तो तब ही लिख दी गई थी जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उसी वर्ष 12 जून को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के रायबरेली से निर्वाचन को अमान्य घोषित कर दिया था. 

ऑल इंडिया रेडियो पर इंदिरा की आवाज

25 जून, 1975 को ऑल इंडिया रेडियो पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की आवाज गूंजी, "राष्ट्रपति ने आपातकाल की घोषणा की है," इंदिरा ने इसे "आंतरिक अशांति" के खिलाफ ढाल के रूप में प्रचारित किया. इंदिरा की ये घोषणा एक तानाशाही युग, आतंक के शासन की शुरुआत थी.

प्रधानमंत्री के बेटे संजय गांधी हालांकि किसी आधिकारिक पद पर नहीं थे. लेकिन उन्होंने आंतरिक सुरक्षा अधिनियम (MISA) के तहत गिरफ़्तारियों की पहली लहर की योजना बनाई. भोर की किरणें निकलते-निकलते मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी सहित 600 से ज़्यादा दिग्गज विपक्षी नेताओं को हिरासत में ले लिया गया. बंसीलाल की हरियाणा पुलिस दिल्ली में छापेमारी कर रही थी. इस पुलिस के निशाने पर थे राजनेता, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता.

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यह सुनिश्चित करने के लिए कि गिरफ़्तारियों की खबर आम लोगों तक न पहुंचे सरकार ने दिल्ली के प्रिंटिंग प्रेस की बिजली काटने के आदेश जारी किए, जिससे कई अखबारों का प्रकाशन ही नहीं हो पाया. 

 25 जून को सरकार ने Defence of India Rules लागू किया और संपादकों को 'दिशानिर्देश' दिया गया- कोई आलोचना नहीं, कोई अशांति की रिपोर्ट नही. थोड़े समय तक विरोध जताने के बाद मीडिया ने सरकार की बात मान ली.

बीजेपी नेता आडवाणी ने इस नतमस्तक होने पर एक टिप्पणी की थी, जो बड़ी प्रसिद्ध हुई. उन्होंने कहा, "जब उनसे झुकने के लिए कहा गया, तो वे रेंगने लगे." 

प्रतिरोध के सिर्फ कुछ ही झंडे लहरा रहे थे. 30 जून तक केंद्रीय सेंसरशिप समिति ने सरकार की सख्त नीति तक हर प्रकाशन की छानबीन शुरू कर दी. लेखक राम गुहा के शब्दों में इससे "मोनोक्रोम मीडिया परिदृश्य" का निर्माण हुआ.

सरकार की कार्रवाई

सरकार के कानूनी दांवपेंच बहुत तेज थे. 27 जून को एक अध्यादेश ने अदालतों को मीसा के तहत की गई गिरफ्तारियों की समीक्षा करने से रोक दिया. इससे संविधान के तहत जनता को मिले एक अहम अधिकार दी बंदी प्रत्यक्षीकरण (habeas corpus) निरस्त हो गया. 

इंडिया टुडे के अनुसार 1976 के मध्य तक बंदियों की संख्या 100,000 थी. ये कैदी तिहाड़ और बैंगलोर सेंट्रल जैसी जेलों में सड़ रहे थे, उन्हें कानूनी मदद नहीं मिल पा रही थी. गौरतलब है कि इंडिया टुडे आपातकाल के पहले साल में लॉन्च किया गया था. 

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नसबंदी कार्यक्रम का तमाशा

जुलाई में इंदिरा गांधी ने भूमि सुधार और मूल्य नियंत्रण का वादा करते हुए अपना 21 सूत्री कार्यक्रम पेश किया. संजय गांधी इस कार्यक्रम के कर्ताधर्ता थे, लेकिन संजय ने इसे जबरदस्ती के औजार में बदल दिया. दिल्ली के तुर्कमान गेट से शुरू हुए उनके झुग्गी-झोपड़ियों को हटाने के अभियान ने सैकड़ों लोगों को विस्थापित कर दिया. जगमोहन द्वारा संचालित इस विध्वंस अभियान ने संजय को आधुनिक शाहजहां का नाम दिया. 

इस दौरान संजय गांधी का सपना देश की बढ़ती आबादी को कंट्रोल करना था. पूरे भारत में जबरन नसबंदी शुरू हुई, जिसमें सरकार ने कोटा तय किया. जिसके तहत सरकारी कर्मचारियों और ग्रामीणों को मजबूर किया गया. डॉक्टरों के पास इस अभियान के लिए एक आकर्षक लेबल था- "जनसंख्या अनुशासन."

1976-77 के दौरान लगभग 62 लाख से एक करोड़ दस लाख नसबंदी की गई. इसमें से ज्यादातर मर्द थे. लेकिन इस कार्यक्रम में खूब जबरदस्ती हुई. 


उत्तर प्रदेश में इसके लिए शिविर लगाए गए. इन नसबंदी शिविरों में रोजाना हजारों नसबंदी किए गए. कुछ रिपोर्टों के अनुसार प्रतिदिन 5,500 से ज़्यादा नसबंदियां हुईं. 

टारगेट पूरा न होने पर शिक्षकों, स्वास्थ्य कर्मियों और ग्रामीणों को वेतन कटौती जैसे दंड का सामना करना पड़ा. कुछ असामान्य और हैरान करने वाले मामलों में पुलिस ने कथित तौर पर पुरुषों को, कभी-कभी अविवाहित या निःसंतान पुरुषों को पकड़ा और उनकी जबरन नसबंदी कर दी. गलत तरीके से हुए नसबंदी के कारण संक्रमण हुए और कुछ मौतें भी हुईं.

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खूंखार 'चश्मेवाली'

संजय गांधी की राजनीतिक सचिव रुखसाना सुल्ताना इस दुःस्वप्न का प्रतीक बन गईं. अपने बड़े काले चश्मे और स्टाइलिश सूट के लिए मशहूर सुल्ताना ने जामा मस्जिद के पास पुरानी दिल्ली के दुजाना हाउस में एक कुख्यात नसबंदी केंद्र चलाया. सरकारी बयानों के अनुसार अपनी मुस्लिम पहचान का लाभ उठाते हुए सुल्ताना ने 15,000 लोगों को इस प्रक्रिया के लिए प्रेरित किया. पत्रकार ख्वाजा अहमद अब्बास ने लिखा है कि जनसंख्या नियंत्रण में उनकी भूमिका के लिए उन्हें प्रोत्साहन के रूप में 84,000 रुपये का भुगतान किया गया था.

उस दौर में सुल्ताना अपार शक्तियों की स्वामिनी थी. अब्बास एक घटना का वर्णन करते हैं जब एक टॉप पुलिस अधिकारी उनके इंतजार में खड़ा था और सुल्ताना पुरानी दिल्ली में डिनर कर रही थीं. 

रुखसाना सुल्ताना बुटीक मालकिन और सामाजिक कार्यकर्ता थीं. संजय गांधी ने रुखसाना को पुरानी दिल्ली के संवेदनशील क्षेत्र में नसबंदी को प्रोत्साहन देने का जिम्मा सौंपा, जहां उन्होंने हजारों पुरुषों की नसबंदी कराने में योगदान दिया. उन्होंने पुरानी दिल्ली क्षेत्र, विशेष रूप से मुस्लिम बहुत इलाकों में इस अभियान को सख्ती से लागू करवाया.

उनकी भूमिका विवादों में घिरी रही. रुखसाना सुल्ताना ने एक दफे ऑफर देते हुए कहा था कि वे दिल्ली के तुर्कमान गेट के पास झुग्गियों-झोपड़ियों के अतिक्रमण हटाओ अभियान को बंद कर देंगी. अगर इस इलाके से हर सप्ताह 300 लोग नसबंदी कराने आते हैं. दरअसल उन्होंने झुग्गी-झोपड़ियों की सफाई का अभियान परिवार नियोजन से जोड़ दिया. 

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इससे नाराजगी भड़क उठी, क्योंकि मुसलमानों ने इस अभियान को अपनी आबादी कम करने के लिए इसे "हिंदू साजिश" के रूप में देखा, जिससे सांप्रदायिक तनाव बढ़ गया. 

इस प्रतिक्रिया ने 1977 में इंदिरा गांधी की चुनावी हार में योगदान दिया, खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे उत्तरी राज्यों में जहां नसबंदी अभियान सबसे तीव्र था. यहां कांग्रेस पार्टी का वोट शेयर गिर गया और "नसबंदी" शब्द आपातकालीन ज्यादतियों का पर्याय बन गया.

 दिल्ली की लोकप्रिय कांग्रेस नेता सुभद्रा जोशी 1977 में संजय की मंडली द्वारा कथित रूप से मजबूर किए गए मुसलमानों के गुस्से के कारण हार गईं. इस हार में जगमोहन के तुर्कमान गेट सौंदर्यीकरण अभियान की वजह से बेघर हुए लोगों का गुस्सा भी शामिल था. 

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