लेट ट्रायल, कम मजदूरी, ओवरक्राउडेड... सुप्रीम कोर्ट की रिपोर्ट ने खोले देश की जेलों के चौंकाने वाले सच

सुप्रीम कोर्ट की रिपोर्ट ने साफ किया है कि देश की जेलें सिर्फ भीड़भाड़ से नहीं बल्कि व्यवस्था की पुरानी लापरवाहियों से भी जूझ रही हैं. FSL रिपोर्टों में देरी से मौत मामलों की जांच अटक जाती है, ट्रायल और अपील वर्षों तक शुरू नहीं होते और कैदियों के काम-काज में आज भी जातिगत भाषा और भेदभाव दिखता है. रिपोर्ट सवाल उठाती है कि क्या सच में सुधार हो रहे हैं?

Advertisement
Repersentational image Repersentational image

अनीषा माथुर

  • नई दिल्ली,
  • 24 नवंबर 2025,
  • अपडेटेड 7:24 PM IST

सुप्रीम कोर्ट के सेंटर फॉर रिसर्च ऐंड प्लानिंग (CRP) ने देश की जेलों पर एक विस्तृत रिपोर्ट जारी की है. ये रिपोर्ट हाई कोर्ट और राज्य सरकारों से मिली जानकारियों पर आधारित है और ये दिखाती है कि भारत की जेल व्यवस्था कई गंभीर खामियों से जूझ रही है जिन्हें सुधारने की मांग वर्षों से होती रही है, लेकिन हालात अब भी चिंताजनक हैं. 

Advertisement

मौत की जांच में भारी देरी: FSL रिपोर्ट नहीं, इसलिए फाइलें अटकी

कैदियों की मौत की जांच सबसे संवेदनशील मामला होता है, लेकिन रिपोर्ट (Prisons in India: Mapping Prison Manuals and Measures for Reformation and Decongestion) बताती है कि ये प्रक्रिया महीनों तक अटकी रहती है.  राज्य की फॉरेंसिक लैबों में 52% पद खाली हैं, जिसके कारण रिपोर्ट समय पर नहीं आतीं. 

31 दिसंबर 2023 तक 1,237 कस्टोडियल डेथ जांचें जिला अदालतों में एक साल से ज्यादा समय से लंबित थीं.  SC रिपोर्ट कहती है कि देर से मिलने वाली FSL रिपोर्ट मौत की जांच का सबसे बड़ा कारण है.

जेलों में जातिगत भेदभाव अब भी मौजूद

रिपोर्ट का सबसे चौंकाने वाला हिस्सा यह है कि कई राज्यों की जेल मैन्युअल में आज भी काम जाति के आधार पर बांटने का प्रावधान है. कुछ मैन्युअल अब भी 'गुड कास्ट', 'हाई कास्ट', 'सूटेबल कास्ट' जैसे शब्द इस्तेमाल करते हैं. सफाई, कचरा उठाने और टॉयलेट साफ करने जैसे काम को 'menial' या 'degrading' लिखा गया है जो एक पुरानी, भेदभावपूर्ण सोच को दर्शाता है. SC का कहना है कि ये भाषा और व्यवस्था आधुनिक संविधान की मूल भावना के खिलाफ है.

Advertisement

कैदियों की मजदूरी में भारी असमानता: कहीं 20 रुपये, कहीं 524 रुपये

रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में कैदियों को मिलने वाली दैनिक मजदूरी में भारी अंतर है. मिजोरम में सिर्फ 20 रुपये रोज जबकि कर्नाटक में 524 रुपये प्रतिदिन तक मजदूरी मिलती है. कई राज्यों में दी जाने वाली मजदूरी न्यूनतम मजदूरी कानून से भी कम है. रिपोर्ट सवाल उठाती है कि अगर जेल को सुधार गृह कहा जाता है तो कैदियों को इतना कम भुगतान क्यों?

मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी: 2018 एक्ट का उल्लंघन

2018 के मेंटल हेल्थकेयर एक्ट के अनुसार हर जेल में मेडिकल स्टाफ को मानसिक स्वास्थ्य की ट्रेनिंग दी जानी चाहिए. लेकिन रिपोर्ट कहती है कि अधिकांश राज्यों में जेल मेडिकल ऑफिसरों को ऐसी कोई ट्रेनिंग नहीं मिलती. मानसिक बीमारी वाले कैदियों की पहचान और इलाज को लेकर जागरूकता बेहद कम है. 

ट्रायल में देरी से हालात खराब

ट्रायल में देरी एक बड़ी वजह है. आधे से ज्यादा केस सबूत और पेशी के चरण में अटके.  ट्रायल में देरी जेलों के ओवरक्राउड‍िंं  की सबसे बड़ी वजह मानी जाती है. 

रिपोर्ट के मुताबिक 52.5% केस सबूत (evidence) के चरण में अटके हैं,  वहीं 37.4% केस पेशी (appearance) में और 6% केस बहस (arguments) के स्तर पर अटके हैं.  गैर-हाजिरी, गवाहों का न आना और नोटिस/समन समय पर जारी न होना आदि ये बड़ी वजहें हैं.

Advertisement

अपील शुरू ही नहीं होती: 10 साल से जेल में 1,220 कैदी

NALSA की सूचना के मुताबिक 1,220 कैदी ऐसे हैं जो 10 साल से ज्यादा समय से जेल में हैं, लेकिन उनकी अपील की सुनवाई अभी तक शुरू भी नहीं हुई. हालांकि एक सकारात्मक पहल के तहत, उत्तराखंड ने गरीब कैदियों की अपील लड़ने के लिए एक विशेष पैनल बनाया है जिससे ऐसे मामलों की सुनवाई तेज हो सके.

सुप्रीम कोर्ट की ये रिपोर्ट बताती है कि भारत की जेल प्रणाली सिर्फ भीड़, सुविधाओं और बजट की कमी से नहीं जूझ रही बल्कि सिस्टमेटिक देरी, भेदभाव, संसाधनों की कमी और पुरानी सोच सबसे बड़ी बाधाएं हैं. रिपोर्ट ये सवाल भी उठाती है कि क्या हम जेलों को वास्तव में सुधार गृह बनाना चाहते हैं, या सिर्फ सजा काटने की जगह बनाए हुए हैं?

---- समाप्त ----

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement