राष्ट्रपति के रेफरेंस पर सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ आज फैसला सुनाएगी. पीठ की अगुआई चीफ जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई कर रहे हैं. पीठ में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी एस नरसिम्हा और जस्टिस अतुल एस चंदूरकर भी हैं. राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय के बाद उससे संबंधित 14 संवैधानिक प्रश्नों पर स्थिति स्पष्ट करने का आग्रह चीफ जस्टिस से किया था.
क्या है पूरा मामला?
दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय में सदन से पारित बिलों पर मंजूरी देने के लिए राष्ट्रपति और राज्यपालों को तीन महीने की अधिकतम अवधि निर्धारित की थी. यह संदर्भ राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए विधेयकों पर कार्रवाई करने की समय-सीमा निर्धारित करने और उनकी शक्तियों के दायरे से संबंधित है. राष्ट्रपति ने इस निर्णय को संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन मानते हुए चिंता जताई और सर्वोच्च न्यायालय से 14 सवालों पर सलाह मांगी कि क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति अपने विवेक का प्रयोग करते हुए विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोक सकते हैं.
इस संदर्भ के निहितार्थ भी व्यापक हैं. ये संघवाद, शक्तियों के पृथक्करण और कार्यकारी तथा न्यायिक भूमिकाओं के बीच की सीमाओं को परिभाषित करने में मदद करेंगे. इसे राष्ट्रपति और राज्यपालों की संविधान प्रदत्त विवेकाधीन शक्तियों में कटौती के तौर पर देखा गया. संविधान पीठ ने दस दिनों तक इस मामले में देश के वरिष्ठ वकीलों और संविधान विशेषज्ञों की दलीलें सुनीं. संविधान पीठ ने इन गंभीर संवैधानिक मुद्दों पर 11 सितंबर को सुनवाई पूरी कर निर्णय सुरक्षित रख लिया था.
राष्ट्रपति के 14 सवालों पर निर्णय देगा SC
राष्ट्रपति मुर्मू के 14 सवालों पर शीर्ष अदालत आज अपनी राय देगी. यह फैसला देश की संघीय व्यवस्था, राज्यों के अधिकार और गवर्नर की भूमिका पर दूरगामी प्रभाव डालेगा. सुप्रीम कोर्ट यह तय करेगा कि क्या अदालत गवर्नरों और राष्ट्रपति पर राज्य के विधेयकों (State Bills) पर निर्णय लेने की समयसीमा तय कर सकती है या नहीं. यह फैसला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की ओर से भेजे गए 14 संवैधानिक सवालों पर आएगा.
यह संदर्भ दो जजों के उस फैसले के बाद आया था जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार के पक्ष में निर्णय देते हुए कहा था कि गवर्नर बिलों पर फैसला करने में देरी नहीं कर सकते. सितंबर में सुप्रीम कोर्ट की पांच-जजों की संविधान पीठ ने 10 दिन की मैराथन सुनवाई के बाद अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था. CJI बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली बेंच में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा और जस्टिस ए.एस. चंदुरकर शामिल हैं.
8 अप्रैल के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का प्रभाव
जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने कहा था कि 'गवर्नर को किसी भी राज्य विधेयक पर तीन महीने में निर्णय लेना होगा, चाहे असेंट रोकना हो, पास करना हो या राष्ट्रपति को भेजना हो. दोबारा पारित बिल पर निर्णय एक महीने में लेना होगा. राष्ट्रपति को गवर्नर की ओर से भेजे गए बिल पर तीन महीने में फैसला करना चाहिए.' उसी के बाद राष्ट्रपति ने यह मुद्दा सुप्रीम कोर्ट के पास औपचारिक रूप से भेज दिया था.
14 महत्वपूर्ण सवालों में प्रमुख प्रश्न
-अनुच्छेद 200 के तहत गवर्नर के पास बिल आने पर क्या-क्या विकल्प हैं?
-क्या गवर्नर मंत्रिपरिषद की सलाह से बाध्य हैं?
-अनुच्छेद 200 के तहत गवर्नर के निर्णय न्यायिक समीक्षा (judicial review) के दायरे में आते हैं या नहीं?
-क्या अनुच्छेद 361 गवर्नर की कार्रवाई को न्यायालयीय समीक्षा से पूरी तरह बाहर करता है?
-जब संविधान में कोई समयसीमा नहीं है तो क्या सुप्रीम कोर्ट समयसीमा तय कर सकता है?
केंद्र ने क्या कहा?
SG तुषार मेहता ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के पास गवर्नर और राष्ट्रपति के लिए समयसीमा निर्धारित करने का अधिकार नहीं है लेकिन उन्होंने यह माना कि गवर्नर बिलों पर अनिश्चितकाल तक बैठ नहीं सकते.
राज्यों का पक्ष भी जानें
तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक सहित कई राज्यों ने कहा:
-8 अप्रैल का सुप्रीम कोर्ट का फैसला सही है.
-समयसीमा हटाने की कोई जरूरत नहीं है.
-गवर्नर की ओर से बिलों पर देरी संविधान की 'संघीय संरचना' को नुकसान पहुंचाती हैं.
सुप्रीम कोर्ट आज यह स्पष्ट करेगा कि:
-क्या अदालत गवर्नर और राष्ट्रपति पर बिलों पर निर्णय लेने की समयसीमा लागू कर सकती है?
-क्या गवर्नर की बिल-सम्बंधी शक्तियां न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं?
संजय शर्मा