अप्रैल 1946 में दीनदयाल उपाध्याय उत्तर प्रदेश के सह प्रांत प्रचारक थे और प्रांत प्रचारक थे भाऊराव देवरस. लखनऊ में संघ की बैठक हो रही थी, भाऊराव देवरस विषय के इतर उस चिंता के बारे में बात करने लगे, जो उन्हें पिछले दिनों संघ की शाखाओं में बाल स्वयंसेवकों को देख-देख कर हो रही थी, “बच्चों का संघ के प्रति आकर्षित होना सुखद अहसास है, बाल मन चंचल और निष्कपट होता है. ऐसे में वही वक्त होता है, जब बच्चों के कोमल मन में सदविचारों को अंकित किया जा सकता है. बच्चों को बाल साहित्य बहुत पसंद होता है, पर चिंता की बात है कि हमारे पास बाल साहित्य नहीं है. क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि कुछ ही समय में बच्चों से सम्बंधित थोड़ा साहित्य यहां उपलब्ध हो सके? ताकि बच्चे उस साहित्य का लाभ उठा सकें.” उनका ये कहना था कि स्वयंसेवक आपस में ही बात करना शुरू हो गए कि बाल साहित्य लिखना बहुत कठिन काम है? ये इतनी जल्दी नहीं लिखा जा सकता है, इस कार्य को करने के लिए तो कुशल लेखक की आवश्यकता होगी.
इस पर भाऊराव बोले, ‘’कुशल लेखक की तलाश में तो काफी समय बीत जाएगा’’. तब बाबा आप्टे ने रास्ता दिखाया और दीनदयाल उपाध्याय की तरफ देखते हुए बोले कि “पंडितजी इस काम को अच्छी तरह से कर सकते हैं, उनमें लेखन की प्रतिभा है”. फिर तो बाकी स्वयंसेवक भी कहने लगे कि हां, केवल दीनदयाल जी ही ये कर सकते हैं. भाऊराव ने भी कह ही दिया कि, “हां पंडितजी, आप तो बहुत गुणवान, कुशल और योग्य हैं. आपके लिए मैं क्या कहूं? पर मुझे भी विश्वास है कि आप इस कार्य को भी सहजता से कर सकते हें.” अब चूंकि भाऊराव का आग्रह था तो दीनदयाल मना कर ही नहीं सकते थे और ठीक 24 घंटे बाद अपना पांडुलिपि लेकर दीनदयाल जी भाऊराव के सामने उपस्थित थे, बोले “यह देखिए, बच्चों के लिए यह पुस्तक कैसी रहेगी? भाऊराव ने उसे पढ़ा और बोले, अरे वाह, ये कब लिख डाली? भाऊराव उनकी प्रतिभा देखकर हैरान थे, बोले- आपकी प्रतिभा अनमोल है, इसको सहेज कर रखना हमारी जिम्मेदारी है.
वो भाऊराव ही थे, जिनकी वजह से दीनदयाल उपाध्याय संघ में आए और लगातार भाऊराव उनकी प्रतिभा और लगन के हिसाब से जिम्मेदारियां सौंपते गए और एक दिन वो उनके सह प्रांत प्रचारक बन गए थे. लेकिन दोनों की पहली मुलाकात की कहानी बड़ी दिलचस्प है. लेकिन उनकी मुलाकात की वजह बन थे इंदौर के बलवंत महाशिंदे, जो संघ के स्वयंसेवक थे, पिलानी के बिड़ला कॉलेज में पढने आए तो वहां उनकी दोस्ती दीनदयाल जी से हुई. दसवीं की पढ़ाई के बाद आगे की पढ़ाई के लिए दीनदयाल उपाध्याय कानपुर आए तो बलवंत शिंदे भी उनके साथ थे. शिंदे और उनके बाकी मित्र एक छात्रावास में शाखा लगाया करते थे. दीनदयाल उपाध्याय ने भी वहां जाना शुरू कर दिया.
दीनदयाल उपाध्याय को संघ से जुड़ने से पहले चाहिए था इस ‘यक्ष प्रश्न’ का उत्तर
दीनदयाल संघ से प्रभावित थे लेकिन वह केवल शिंदे के कहने पर संघ से नहीं जुड़ना चाहते थे बल्कि अपने एक सवाल का जवाब चाहते थे. वो सवाल था, “क्या हिंदू धर्म की स्थापना और उसकी रक्षा.. क्या संघ इस मूल सिद्धांत पर आधारित है? क्या संघ कटट्ररवाद का समर्थक है? क्या अन्य धर्मो के प्रतिं उसका व्यवहार फक्षपातपूर्ण है? ऐसा नहीं है तो फिर संघ अन्य धर्मों के प्रति उदासीन क्यों है?” महाशिंदे उन्हें इसका जवाब देने में नाकाम रहे. तब शिंद ने उनकी भेंट एक बार भाऊराव देवरस से करवाई. भेंट के दौरान दीनदयालजी ने अपने मन के संदेह को उनके समक्ष रखते हुए उनसे भी वही सवाल पूछे. शांतिपूर्वक सारी बातें सुनने के बाद भाऊराव देवरस उनके प्रश्नों का उत्तर देते हुए बोले, “हिंदू धर्म भारतवर्ष का सबसे प्राचीन धर्म है. भारतीय सभ्यता और संस्कृति का प्रादुर्भाव हिंदू धर्म से ही हुआ है. यह सही है कि संघ हिंदू धर्म की स्थापना और रक्षा की बात करता है, लेकिन इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि वह कट्टरता का समर्थक है. पर्वत से निकलने वाली गंगा की धारा विभिन्न स्थानों पर अलग- अलग नामों से पुकारी जाती है, लेकिन उसका स्वरूप और कार्य एक ही है. उसी प्रकार भारतवर्ष के सभी धर्म हिंदुत्व रूपी गंगा की ही अलग-अलग धाराएँ हैं. जब हिंदुत्व की बात की जाती है तो इसमें वे सभी धर्म सहज ही सम्मिलित हो जाते हैं. हिंदू धर्म की स्थापना वास्तव में उन धर्मों की स्थापना भी है, जो किसी ना किसी रूप में उससे जुड़े हुए हैं. ये ठीक वैसा ही है जैसे किसी वृक्ष की ज़ड़ों की देखरेख करने से उसकी टहनियां भी हरी भरी हो जाती हैं”. ये सुनकर दीनदयाल इतने संतुष्ट हुए थे कि उनके चेहरे पर साफ दिख रहा था. फिर तो दीनदयाल उपाध्याय ने उनका जमकर साथ निभाया, ना केवल बच्चों के लिए किताबें लिखीं, गोरखपुर में पहले शिशु मंदिर की स्थापना में भी अहम भूमिका निभाई. बाद में राष्ट्रधर्म, पांचजन्य आदि अखबारों को भी भाऊराव देवरस के सहयोग से शुरु किया.
RSS के सौ साल से जुड़ी इस विशेष सीरीज की हर कहानी
भाऊराव देवरस बाला साहब देवरस के छोटे भाई थे, दोनों के पिता एक सरकारी कर्मचारी थे. कुल पांच भाई और चार बहनों का बड़ा परिवार था, जिनमें से तीनों बड़े भाई सिविल सेवा अधिकारी, डॉक्टर, इंजीनियर आदि बन गए, लेकिन चौथे नंबर के बाला साहब देवरस डॉ हेडगेवार द्वारा शुरू की गई पहली शाखा में जाने लगे. तो बाद में भाऊराव को भी जोड़ लिया. भाऊराव का जन्म 19 नवम्बर, 1917 को नागपुर के इतवारी मोहल्ले में हुआ था. उन दोनों भाइयों की जोड़ी बाल-भाऊ के नाम से प्रसिद्ध थी. संघ की स्थापना होने पर पहले बाल और फिर 1927-28 में भाऊ भी शाखा जाने लगे. हालांकि पिता शुरू में दोनों के संघ से जुड़ाव को पसंद नहीं करते थे. लेकिन डा. हेडगेवार के घर में खूब आना-जाना होने से दोनों का मन पूरी तरह से संघ में रम गया था. 1937 में भाऊराव ने स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की तो डा. हेडगेवार ने उन्हें उत्तर प्रदेश का काम संभालने को कहा. तब संघ की रीत थी कि आगे की पढ़ाई भी करो, और वहीं संघ का कार्य भी जमाओ.
नेताजी बोस ने जमकर की भाऊराव देवरस की तारीफ
भाऊराव ने लखनऊ विश्वविद्यालय में. में बी.कॉम तथा एल.एल.बी. में प्रवेश ले लिया. उन दिनों वहां दो वर्ष में दोहरी डिग्री पाठ्यक्रम की सुविधा थी. भाऊराव संघ कार्य करते हुए भी मेधावी थे, दोनों विषयों में स्वर्ण पदक प्राप्त किये. लखनऊ में वे संघ के साथ स्वाधीनता आंदोलन में भी सक्रिय रहे. उनके प्रयासों से 1938 में वहां सुभाष चंद्र बोस का एक भव्य कार्यक्रम हुआ था औऱ उनकी व्यवस्थाओं व बाद में भाऊराव देवरस के भाषण से नेताजी बोस इतने खुश हुए थे कि मंच से कई बार उनका नाम लेकर ताऱीफ की. एमएससी. के छात्र बापूराव मोघे भी उनके साथ थे. घर वालों ने पैसे भेजना बंद कर दिया थाय. अतः ट्यूशन पढ़ाकर तथा एक समय भोजन कर वे दोनों शाखा विस्तार में लगे रहे. यूं तो उत्तर प्रदेश में संघ की पहली शाखा लगाने का श्रेय भैयाजी दाणी को जाता है, काशी विश्वविद्यालय में ये शाखा शुरू हई थी. लेकिन पूरे उत्तर प्रदेश में संघ का इतना कार्य विस्तार हुआ तो उसकी नींव रखने का का श्रेय भाऊराव देवरस को जाता है. उनको दीनदयाल जैसे कर्मठ कार्यकर्ताओं को जोड़ने और गढ़ने में महारत हासिल थी.
जब भाऊराव को गुब्बारे बेचने पड़े
संघ में कभी सेनापति का पद होता था, पूर्व सैन्य अधिकारी मार्तंड राव जोग संघ के सर सेनापति बनाए गए थे. उनके जिम्मे स्वंयसेवकों की मिलिट्री ट्रेनिंग थी. उनके परिवार का एक गुब्बारे का कारखाना भी था. लखनऊ में आर्थिक जरुरतें पूरा करने ले लिए भाऊराव देवरस ने उन दिनों मार्तंड राव जोग के उस कारखाने से बने गुब्बारे भी बेचने शुरू किए थे. लेकिन वो काम सफल नहीं हो पाया था. 1941 में भाऊराव काशी चले गए और पूरा दिन उनका छाज्ञावासों में बीतने लगा था. इसी दौरान उनके सम्पर्क में रज्जू भैया और अटल बिहारी बाजपेयी जैसे स्वयंसेवक भी आए थे. जो बाद में जाकर सरसंघचालक और प्रधानमंत्री जैसे शीर्षस्थ पदों पर पहुंचे. रज्जू भैया की तो वो मां को समझाकर आए थे कि संघ कैसा संगठन है. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने संस्मरण में लिखा है कि वे दीनदयाल उपाध्याय के साथ-साथ भाऊराव देवरस से भी बहुत प्रभावित थे. उन्होंने बताया कि ग्वालियर उस समय भाऊराव जी के क्षेत्र में नहीं था, लेकिन एक बार वे बालासाहब आप्टे (तत्कालीन बौद्धिक प्रमुख) के साथ ग्वालियर आए थे, जिससे वाजपेयी को प्रेरणा मिली. इन लोगों से मिलकर, बातचीत कर ही बाजपेयीजी ने संघ को लेकर ज्यादा गंभीरता से लेना शुरू किया था.
1938 में उन दिनों कम्युनिस्ट नेताओं और कांग्रेस का कब्जा था, आज भी कहा जाता है कि कानपुर की मिलों को वहां कम्युनिस्ट पार्टी की आए दिन की हड़तालों ने बर्बाद कर दिया था. ऐसे में पहले 1938 में दीनदयाल उपाध्याय को संघ का स्वयंसेवक बनाना, फिर वहीं अटल बिहारी बाजपेयी का पढ़ने आना, दोनों ने ही कानपुर में संघ के विस्तार में अहम योगदान दिया. जब गांधी हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लगा था, तब कानपुर में ही कचहरी तक उन्होंने विरोध में प्रदर्शन जुलूस का नेतृत्व किया था.
युगवार्ता पत्रिका ने संघ के 100 साल पर ‘संघ की नींव के पत्थर’ नाम से एक विशेषांक छापा है, जिसमें वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय अपने लेख में लिखते हैं कि, “भाऊराव देवरस चलते फिरते विश्वविद्यालय थे, वे आचार्य भी थे और संस्थान भी. अपने व्यवहार से कार्यकर्ता गढ़ते थे, उसे अपना संरक्षण देते थे और जब तक वो पौधे की अवस्था में होता था, तब तक उसकी देखरेख वे स्वयं करते थे,”
उत्तर प्रदेश. में संघ कार्य को दृढ़ करने के बाद भाऊराव क्रमशः बिहार, बंगाल और पूर्वोत्तर भारत के क्षेत्र प्रचारक तथा फिर सह सरकार्यवाह बनाये गये. इन दायित्वों पर रहते हुए उन्होंने पूरे देश में प्रवास किया. फिर उनका केन्द्र दिल्ली हो गया. यहां रहते हुए वे विद्या भारती तथा भारतीय जनता पार्टी जैसे संगठनों के कार्यों की देखरेख करते रहे
इजरायल से सम्बंध बनाने में भाऊराव देवरस की भूमिका
पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी इजरायल से सहायता लेने में पीछे नहीं थे, लगभग हर युद्ध और ऑपरेशंस में पिता-पुत्री ने कई बार इजरायल से सहायता ली, लेकिन फिलीस्तीन के मुद्दे के चलते कभी भी इन रिश्तों में गर्माहट नहीं आने दी. ऐसे में संघ को लगता था कि इजरायल भारत का प्राकृतिक मित्र होना चाहिए. भाऊराव देवरस को यहूदियो और इजरायल के अच्छे रिश्ते बनाने की जिम्मेदारी मिली. भाऊराव देवरस ने भारतीय यहूदियों (मुंबई, केरल आदि से) के साथ संपर्क बनाए रखा और इज़राइल के साथ संबंधों की वकालत की. उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव को प्रभावित किया कि भारत को इज़राइल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंध बनाना चाहिए. 1991 के अंत में उन्होंने एल.के. आडवाणी के साथ मिलकर पीएम राव से मुलाकात की और इस मुद्दे पर दबाव बनाया. जनवरी 1992 में भारत ने इज़रायल में दूतावास खोला, जो सोवियत संघ के पतन के बाद की नई वैश्विक स्थिति में एक महत्वपूर्ण कदम था. यह भूमिका अपेक्षाकृत कम चर्चित है, लेकिन कई इतिहासकार और विश्लेषक इसे RSS की विदेश नीति में एक महत्वपूर्ण कड़ी मानते हैं.
जब इंदिरा गांधी ने राजीव गांधी को भाऊराव देवरस से मिलने भेजा
आपातकाल के बाद सत्ता में वापसी और संजय गांधी की मौत के बाद की इंदिरा गांधी के बारे में नीरजा चौधरी अपनी किताब ‘हाउ प्राइम मिनिस्टर्स डिसाइड्स’ में लिखती हैं- “सत्ता में वापसी व संजय गांधी की मौत के बाद उनका झुकाव दक्षिणपंथ की तरफ होने लगा था. जिस इंदिरा ने आपातकाल के दौरान संघ प्रमुख देवरस से मिलने से इनकार कर दिया था, उसी इंदिरा ने 1982 में अपने बेटे राजीव गांधी को देवरस के भाई भाऊराव देवरस से मिलने और उनके साथ बातचीत शुरू करने के लिए भेजा था”. नीरजा चौधरी ने अपनी किताब में लिखा है, “साल 1982 से 1984 के बीच राजीव गांधी और भाऊराव देवरस के बीच तीन बार मुलाकात हुई थी. पहली बैठक सितंबर 1982 में कपिल मोहन 7 के 46, पूसा रोड स्थित आवास पर हुई थी. भाऊराव से मोहन की पुरानी दोस्ती थी. दूसरी बैठक भी पूसा रोड वाले आवास पर ही हुई. तीसरी मुलाकात फ्रेंड्स कॉलोनी स्थित अनिल बाली के आवास पर हुई थी. चौथी बैठक 10 जनपथ पर साल 1991 की शुरुआत में हुई थी, जब राजीव पॉवर से बाहर थे”.
‘राजीव संघ की बात घर पर ना करें, क्योंकि सोनिया संघ को पसंद नहीं करतीं’
मोहन मीकिंस ग्रुप के कपिल मोहन के भतीजे अनिल बाली के अनुसार, इन बैठकों को आयोजित करने वाले मुख्य व्यक्ति इंदिरा के राजनीतिक सचिव एमएल फोतेदार थे. नीरजा अपनी किताब में बाली के हवाले से लिखती हैं, "अगर 1985-87 के बीच राजीव गांधी पर हिंदूवादी प्रभाव डालने वाला कोई एक व्यक्ति था, तो वह फोतेदारजी ही थे... फोतेदार ने एक बातचीत के दौरान खुलासा किया था कि इंदिरा गांधी ने राजीव को आरएसएस के साथ चल रही बातचीत के बारे में घर पर बात करने से मना किया था, क्योंकि वह जानती थीं कि सोनिया संघ को बिल्कुल पसंद नहीं करतीं.” दिलचस्प बात है कि इंदिरा गांधी राष्टीय कला केन्द्र के निदेशक रामबहादुर राय राजीव गांधी-भाऊराब देवरस की मुलाकात को अपने लेख में चार लाइनों में बड़े दिलचस्प तरीके से समेटते हैं. वो लिखते हैं कि, “संघ पर दूसरा प्रतिबंध नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी ने लगाया, तब लोकतंत्र की बहाली के लिए भूमिगत आंदोलन का नेतृत्व भाऊराव देवरस ने किया. तानाशाह इंदिरा गांधी की पुलिस भाऊराव देवरस को बंदी नहीं बना सकी. इंदिरा गांधी ने अपनी पराजय मानी और सत्ता में वापसी के बाद राजीव गांधी को गुरुदक्षिणा सहित भाऊराव देवरस के पास भेजा. ये 1980 का प्रसंग है”.
कर्मभूमि लखनऊ में ही हो गया था मृत्यु का आभास
9 मार्च 1992 को भाऊराव देवरस लखनऊ आए थे. ऐसे में वो हर बार अपने पुराने सहयोगियों से जरूर मिलते थे. उन्हीं से बात करते करते वो अचानक बोल उठे, “सुनो, डॉ हेडगेवार की पीढ़ी के लोग एक एक करके चले गए, दो-चार बचे हैं, मेरा नंबर तो पहले है.” उसके कुछ दिनों बाद ही वो मथुरा में नगला चंद्रभान (दीनदुयाल उपाध्याय की जन्मस्थली) में अटल बिहारी बाजपेयी के साथ दिल्ली से आए थे, उद्देश्य था ग्राम स्वराज की प्रगति देखना. वहीं उनकी तबियत खराब होने लगी थी, दिल्ली में हॉस्पिटल में भर्ती हुए तो मिलने वालों का तांता लगने लगा, 19 मई 1992 को वो सभी सांसारिक-सामाजिक बंधनों से मुक्त होकर गोलोकवासी हो गए.
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विष्णु शर्मा