ओबीसी नेता और एनसीपी के पूर्व मंत्री छगन भुजबल का फिर एक बार महाराष्ट्र मंत्रिमंडल में सफल कमबैक हुआ है. उन्होंने आज सुबह राजभवन में पद और गोपनीयता की शपथ ली. विधानसभा चुनावों के बाद मंत्रिमंडल से दूर रखे जाने पर भुजबल पार्टी के नेता अजित पवार से नाराज थे. जब भी मौका मिला उन्होंने कई बार अपनी नाराजगी लोगों के सामने रखी.
मंत्रिमंडल में भुजबल का कमबैक भारतीय जनता पार्टी की रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है. आज जब भुजबल से उनके और अजित पवार के बीच चल रहे विवाद के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा, 'हमारे कितने भी मतभेद रहे हों लेकिन मैंने राष्ट्रवादी कांग्रेस और अजित दादा गुट को कभी भी नहीं छोड़ा.'
कैसे बनी मंत्रिमंडल में जगह?
विधानसभा चुनाव के बाद ओबीसी के सबसे कद्दावर नेता छगन भुजबल को अजित पवार ने दरकिनार कर दिया. उन्हें मंत्रिमंडल में स्थान नहीं मिला तो राजनीतिक गलियारे भी अचरज में पड़ गए. भुजबल इतने खफा हो गए कि उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि, 'जहां नहीं चैना... वहां नहीं रहना.' ऐसा माना जा रहा था कि भुजबल अपनी अलग राह चुन सकते हैं लेकिन जब से मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ, तब से धनंजय मुंडे बीड में हुए संतोष देशमुख हत्याकांड की वजह से विवादों में बने हुए थे.
संतोष देशमुख की हत्या का आरोप धनंजय मुंडे के करीबी पर लगा था और उन्हें मंत्रिमंडल से हटाने की मांग उठ रही थी. लोगों के दबाव के बाद आखिर 4 मार्च को धनंजय मुंडे को मंत्रिमंडल से विदा कर दिया गया. तब से महाराष्ट्र के मंत्रिमंडल में एक जगह खाली थी, जिसे भरना जरूरी था. बता दें कि धनंजय मुंडे को वही अन्न और नागरी पुरवठा विभाग दिया गया था, जो छगन भुजबल के पास था. अब अटकलें यही हैं कि ये विभाग फिर भुजबल के पास वापस आ जाएगा.
बीजेपी के लिए कैसे साबित हुए मददगार?
अजित पवार के नेतृत्व में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी जैसे ही सत्ता में आई, छगन भुजबल की बीजेपी के नेता देवेंद्र फडणवीस से नजदीकियां बढ़ी हुई थीं. लोकसभा चुनाव से पहले जब मनोज जरांगे ने मराठा आरक्षण की लड़ाई तेज की तो बीजेपी की मुश्किलें बढ़ गईं. मनोज जरांगे को रोकने के लिए कोई भी बड़ा चेहरा बीजेपी के काम नहीं आ रहा था. तब ओबीसी के कद्दावर नेता और समता परिषद के नेता छगन भुजबल मनोज जरांगे के खिलाफ खड़े हुए.
मनोज जरांगे ने जो मराठा ध्रुवीकरण की राजनीती की, भुजबल ने उसे चुनौती दी. भुजबल ने पूरे राज्य में जरांगे के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और ओबीसी आरक्षण के अंतर्गत मराठा समुदाय को आरक्षण देने का विरोध किया. एक तरफ जब तत्कालीन मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे मनोज जरांगे को तूल दे रहे थे, तब उस राजनीति को काटने के लिए भुजबल सामने आए. भुजबल वही बातें बोल रहे थे, जो बीजेपी बोलना चाह रही थी. छगन भुजबल ने वह कर दिखाया, जो बीजेपी का कोई ओबीसी नेता नहीं कर पाया.
मराठा आंदोलन में भुजबल की भूमिका से नाराज थे अजित?
जब मराठा आंदोलन महाराष्ट्र में जोरों पर था, तब राष्ट्रवादी कांग्रेस पूरी तरह से उससे दूर थी. 'हर समुदाय को न्याय मिलना चाहिए', इससे ज्यादा अजित पवार कुछ भी बोलने से बचते रहे. उसका कारण यह था कि राष्ट्रवादी कांग्रेस की पूरी राजनीति ही मराठा केंद्रित रही है. पश्चिम महाराष्ट्र और मराठवाड़ा में भी एनसीपी को जो ताकत हासिल हुई, उसमें मराठा नेताओं का वजन ज्यादा रहा. ऐसे में जब मराठा समुदाय पूरी ताकत के साथ आंदोलन में उतरा, तब अजित पवार उसके खिलाफ बोलकर पार्टी पर कोई आंच नहीं आने देना चाहते थे. लेकिन भुजबल जिस तरीके से खुलकर मनोज जरांगे के खिलाफ बोल रहे थे, उससे पार्टी की मुश्किलें बढ़ी हुई थीं और इसीलिए अजित पवार भुजबल से नाराज चल रहे थे.
भुजबल ने हर बार बीजेपी नेताओं को ही माना अपना मददगार
जब लोकसभा चुनावों की घोषणा हुई, तब छगन भुजबल नासिक लोकसभा सीट से चुनाव लड़ना चाहते थे. उन्होंने इसकी इच्छा भी जाहिर की लेकिन उस सीट पर एकनाथ शिंदे के नेता हेमंत गोडसे का दावा था क्योंकि तब वह मौजूदा सांसद थे. जब यह सीट शिंदेसेना के हिस्से में गई, तब भुजबल ने बार-बार एक स्टेटमेंट रिपीट किया कि, 'अमित शाह और बीजेपी के नेता चाहते थे कि मैं नासिक से लोकसभा का चुनाव लड़ूं'.
उनके किसी बयान में अजित पवार का जिक्र नहीं होता था. इतना ही नहीं जब राज्यसभा की सीट के लिए एनसीपी से उम्मीदवार चुनना था, तब भी छगन भुजबल ने अपनी दावेदारी पेश की और कहा कि, 'बीजेपी के नेता चाहते हैं कि मैं दिल्ली में काम करूं.' जब अजित पवार ने उन्हें राज्य मंत्रिमंडल से दूर रखा तो फिर उन्होंने कहा कि 'देवेंद्र फडणवीस मुझे मंत्रिमंडल में लेना चाहते थे.'
भुजबल के कमबैक से लोकल बॉडी इलेक्शन में क्या फायदा होगा?
छगन भुजबल की वापसी बीजेपी की इच्छा से हुई है. यह चर्चा महाराष्ट्र की राजनीति में जोरों पर है. लेकिन आने वाले स्थानिक स्वराज्य संस्थाओं के चुनाव में भुजबल की एंट्री का फायदा हो सकता है. धनंजय मुंडे को मंत्रिमंडल से दूर करने से ओबीसी समुदाय नाराज था. अब उसी जगह भुजबल जैसे सीनियर नेता को जगह मिलने से वह नाराजगी कुछ हद तक कम हो जाएगी. अगस्त के महीने में जब मनोज जरांगे फिर से अपना आंदोलन तेज करेंगे तो भुजबल उनका सामना करने के लिए तैयार रहेंगे.
कमबैक के बादशाह हैं भुजबल
भुजबल ने 70 के दशक में मुंबई में पार्षद के तौर पर अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू की थी. बालासाहेब ठाकरे के विचारों से प्रेरित होकर उन्होंने शिवसेना में काम करना शुरू किया था. 80 के दशक में भुजबल मुंबई के मेयर बने और फिर 1985 में वह माझगाव से पहली बार विधायक चुने गए. लेकिन मंडल आयोग के विरोध में बालासाहेब की भूमिका देख उन्होंने पार्टी से किनारा कर लिया. भुजबल ने बाद में कांग्रेस पार्टी जॉइन कर ली. 1995 में विरोधी पार्टी के नेता के तौर पर उन्होंने शिवसेना-बीजेपी की सरकार को आड़े हाथों लिया. लेकिन 1999 में जब शरद पवार ने एनसीपी की स्थापना की तो उन्होंने पवार का साथ चुना. 1999 में सत्ता में आते ही भुजबल उपमुख्यमंत्री और गृहमंत्री बने. लेकिन तेलगी स्कैम में उनका नाम आया तो वह विवादों में घिर गए. जब उनके समर्थकों ने 2003 में एक टीवी कार्यक्रम पर आक्षेप लेकर हमला किया, तो भुजबल को पद से इस्तीफा देना पड़ा.
2004 के चुनाव के बाद वह फिर से मंत्री के रूप में मंत्रिमंडल में वापस आ गए. लेकिन इस बार उन्हें गृह विभाग नहीं सौपा गया. 2009 में उन्हें PWD विभाग मिला लेकिन 2013 की शुरुआत में ही वह महाराष्ट्र सदन घोटाले के आरोप में घिर गए. 2014 में जब सरकार गिर गई तो ईडी ने उन्हें मार्च 2016 में अरेस्ट कर लिया. 2018 में वह जेल से बाहर आ गए और 2019 का चुनाव जीतने के बाद उन्होंने महाविकास आघाडी के मंत्रिमंडल में फिर से वापसी की. लेकिन 2022 में सरकार गिर गई. एक साल विरोधी बेंच पर बैठने के बाद वह अजित पवार के साथ फिर सरकार में शामिल हो गए और मंत्री बन गए. 2024 के चुनाव के बाद अजित पवार ने उन्हें मंत्रिमंडल से दूर रखा लेकिन भुजबल की चार महीनों में ही फिर से मंत्रिमंडल में वापसी हो गई.
अभिजीत करंडे