सरहद पार से ट्रेनिंग करके लौटा तो कश्मीर में रॉकस्टार जैसा ट्रीटमेंट मिला. कंधे पर कारतूसों की पेटी, हाथ में रिवॉल्वर और पैरों पर रुतबा. हसरत-भरी निगाहें हर वक्त पीछा करतीं. पाकिस्तान में भी रसूख कम न था. जहां भी जाते, कश्मीरी मिलिटेंट सुनते ही महंगी से महंगी चीज बेमोल मिल जाती. वक्त पलटा. हम आतंकवादी थे. घरबार छूटा. सालों जेल काटी. तब समझ आया कि जिस मां ने दूध पिलाया, लड़कपन में उसी को जख्मी कर दिया.
पहलगाम आतंकी हमले के बाद से कश्मीर में वक्त ठिठका हुआ है.
तेज हवाएं देवदार और चीड़ से गुजरती तो हैं, लेकिन संभलते हुए. झेलम और रावी में बहाव है, लेकिन रवानगी नहीं. लाल चौक में खरीदार मिलेंगे, लेकिन अपनी ही परछाई से खौफजदा.
लंबे वक्त बाद कश्मीर में उजाला छिटका था, पहलगाम हादसे ने उसे लील लिया. इस बीच बार-बार ‘नब्बे के दौर’ की जुगाली हो रही है. वो वक्त, जब घाटी में आतंकवाद को बगावत कहा जाता. आतंकियों को लड़ाका. और उनके मिशन को जंग-ए-आजादी!
उसी दशक के एक एक्स-मिलिटेंट सैफुल्लाह फारूख से aajtak.in ने मुलाकात की.
कॉल पर फारूख पहले मीटिंग का दिन अलग बताते हैं. फिर जगह. मिलने पर कहते हैं- देखभाल कर चलना होता है. कहीं जाओ, या कोई आए तो दाएं-बाएं ताकना पड़ता है. शिकारी यहां शिकार के लिए बैठा है.
फारूख की मानें तो पिछले साल ही हिज्बुल मुजाहिदीन ने उनका 'हिट ऑर्डर' निकाला था.
तो ऐसे होते हैं मिलिटेंट! दरम्यानी कद और डौल के शख्स को देखते ही डर की जगह हैरानी पसर गई.
फारूख की चाल-ढाल में ठहराव दिखता है. घुटनों पर हाथ धरकर उनके उठने-बैठने में. कपड़ों में. मोटे गलीचे वाली बैठक में. ठंडा पीने के उनके इसरार में. चेहरे पर. और उसपर जमी गर्द में.
श्रीनगर के जिस हिस्से में हम उनसे मिलने पहुंचे, वहां स्थानीय लोग भी कम ही आते-जाते हैं. मैप के सहारे जैसे-जैसे हम उस इलाके में पहुंचे, शक बढ़ने लगा. क्या हम भी किसी ट्रैप में जा रहे हैं.
'तैयारी रखिए'- लोकल साथी मजाक करते हैं.
ड्राइवर साहब दोहराते हैं- यहीं पैदा हुआ लेकिन मैं तक यहां कभी नहीं आया.
फारूख अधबने मकान के बाहर इंतजार करते मिले. मेरा घर बन रहा है...वे कुछ फख्र, कुछ झिझक के साथ बताते हैं. एक वक्त पर बंदूक लेकर आजादी के नारे लगाता ये शख्स आज 'छोटी-मोटी' ठेकेदारी करता है.
पोलिंग बूथ से पाकिस्तान तक
किस बात, किसपर गुस्से ने आपको मिलिटेंट बना दिया? मैं आतंकवादी शब्द का इस्तेमाल करते हुए रुकती हूं ताकि बात शुरू होने से पहले खत्म न हो जाए.
साल 1987 का असेंबली इलेक्शन था. मैं मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के लिए पोलिंग एजेंट था. जो पार्टी जमात-ए-इस्लामी उसे सपोर्ट कर रही थी, उसका राजनीतिक और मजहबी झुकाव पाकिस्तान की तरफ था. खैर! मैं तब 18 साल का आम कश्मीरी लड़का था, जिसे अपनी मर्जी की सरकार चाहिए थी. इलेक्शन की शाम चार बजे तक हमें यकीन था कि हम जीत रहे हैं, फिर अचानक हार का एलान हो गया.
अगली शाम मैं घर पर था, जब छापा पड़ा. पुलिस ने मुझे उठा लिया और बगावत के नाम पर टॉर्चर शुरू कर दिया. कई महीने जेल में रहा.
लौटा तो सोच बदल चुकी थी. कुछ यार-दोस्त मिले. बैठे और पक्का किया कि हम पाकिस्तान चलते हैं. वहां से बम-बारूद सीखकर आएंगे और आजादी की जंग में हिस्सा लेंगे.
आजादी कहते हुए फारुख की आंखें कुछ सिकुड़ जाती हैं.
कुदेरने पर कहते हैं- उस वक्त कुछ ऐसे लोग थे, जो चाह रहे थे कि मासूम लड़कों का इस्तेमाल कर वे इंटरनेशनल हीरो बन जाएं. उन्हीं लोगों ने हमारी कौम को कब्रिस्तान बना दिया. वही थे, जिन्होंने मुझे भी 'गाइड' किया था.
मैंने परिवार से कहा कि घूमने के लिए कानपुर जा रहा हूं. एकाध महीने बाद लौटूंगा. फिर दोस्तों के साथ निकल पड़ा. साथ में दो जोड़ी कपड़े, ग्लूकोज और बिस्किट के कुछ पैकेट.
साल 1989 के सितंबर में बॉर्डर क्रॉस किया. वहां से आंखों में पट्टी बांधकर हमें अंदर ले जाया गया. नहाने के लिए साबुन की बट्टी मिली. खाने के लिए पतली खिचड़ी ताकि दिनों तक पैदल चलने से आई थकान और मिट्टी-माटी निकलकर पेट दुरुस्त हो जाए. फिर ट्रेनिंग शुरू हो गई.
घाटी से पाकिस्तान आप किस रास्ते से गए, कितने दिन लगे?
वो तो मैं क्या बताऊं, हां 6 दिन-रात लगे थे. साथ में एक गाइड था. बॉर्डर के करीब पहुंचते ही पाक सेना कुछ न कुछ हरकत करती ताकि हमारी सेना का ध्यान हट जाए. मौका मिलते ही हम 'लॉन्च' कर दिए जाते. यही तरीका था. जैसे ही हमने सीमा पार की, पाकिस्तानी आर्मी ने हमें साथ ले लिया और करीबी कैंप में छोड़ दिया. दो दिन के आराम के बाद क्लासेज चलने लगीं.
किस तरह की क्लास?
जेहाद पर बात होती. पहले दिन मौलवी जुल्म की कहानियां सुनाते कि कश्मीर में कश्मीरियत पर कैसी-कैसी नाइंसाफियां हो रही हैं. आपके अंदर गुस्सा आ जाता.
दूसरे दिन बताया जाता कि आपकी मांओं-बहनों की अस्मत लूटी जा रही है. उनका दामन दागदार हो रहा है. गुस्सा भड़ककर आग बन जाता.
तीसरी क्लास में बात होती कि क्या हमें ये जुल्म सहना चाहिए! नहीं. तो इसका हल क्या है! इतने में बंदा पूरी तरह मोटिवेट हो जाता. इस कदर भड़क जाता कि उसका दिमाग बंद हो जाता.
इसके बाद शुरू होती हथियारों की ट्रेनिंग. इसमें अलग-अलग हथियारों का इस्तेमाल सिखाया जाता. रोज दौड़ाया जाता ताकि फुर्ती बढ़ती रहे. ट्रेनिंग खत्म हुई तो आपको कुछ समय के लिए पाकिस्तान में ही छोड़ दिया जाता.
मिलिटेंट का तमगा और उससे मिला रुतबा
हमें रोज के कुछ सौ रुपये मिलते थे उस दौर में. शर्ट पर एक आईडी कार्ड लगा हुआ, जिसमें दो बंदूकों के बीच एक झंडा हुआ करता. ये कश्मीरी मिलिटेंसी का निशान था. हम किसी भी गाड़ी में चढ़कर कितनी भी दूर चले जाते, कोई किराया नहीं. दुकान या होटल में जाओ, कुछ भी पसंद कर लो, लोग फ्री में दिया करते. उनके लिए हम बड़ा काम कर रहे थे. घर वापसी पर भी हमें यही इज्जत मिली.
खैबर पख्तूनख्वा की माचिस फैक्ट्री, मानसेहरा और मुरीदके में रहकर कश्मीर लौटे तो रॉकस्टार बन चुके थे. लोग हाथोहाथ लेते. कहा कि चार आदमियों का खाना चाहिए तो किसी भी घर से बेहतरीन खाना आ जाता. गाड़ी थी. बंदूकें थीं. जहां जाओ, वहां कद्रदान थे.
क्या आम लड़कियां भी आप लोगों को पसंद करती थीं या फिर बचती थीं?
उस जमाने में लड़कियों की सप्लाई जैसा कंसेप्ट तो नहीं था, लेकिन हां, कहीं भी जाओ, भीड़ लग जाती. एक तो जवानी, उसपर हथियार. तिसपर पूरे कश्मीर में ही वही माहौल. 10 साल के बच्चे से लेकर 90 साल का बूढ़ा भी ‘हम क्या चाहते- आजादी’ के नारे लगा रहा था. ऐसे में डिवीजनल कमांडर होने की वजह से मेरा अलग ही रुतबा था.
ताकत के साथ बहुत कुछ बदल जाता है. कहां मैं पोलिंग एजेंट था, जो पार्टी के हारने के बाद जेल पहुंच गया. कहां अब पूरी कौम का हीरो था. कम से कम मुझे तो यही गलतफहमी थी.
दरअसल अस्सी के दशक में घाटी में खदबदाहट तो थी, लेकिन पानी में उबाल दशक खत्म होते-होते आया. साल 1987 के जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट नाम का दल मजबूत दिखने लगा. उसे पाकिस्तानी ढंग वाले समूह जमात-ए-इस्लामी का साथ मिला हुआ था. मेजोरिटी को भरोसा था कि एमयूएफ ही जीतेगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
इसके बाद से कश्मीरी मुस्लिम आबादी को लगने लगा कि उनकी पसंद को साजिशन पीछे ढकेला जा रहा है.
घाटी में पाकिस्तान की एंट्री
तभी-तभी अफगानिस्तान में सोवियत से लड़ाई खत्म हुई थी. इस प्रॉक्सी वॉर के लिए पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI को अमेरिका ने हथियारों और लड़ाकों का जखीरा दिया हुआ था. वे जंग न खाएं, और लगे हाथ कश्मीर में अपना एजेंडा भी चल पड़े, इसके लिए पाकिस्तान ने हथियारों और आतंकियों को घाटी की तरफ भेज दिया.
पाक-अधिकृत कश्मीर (PoK) में ट्रेनिंग कैंप बने, जहां कश्मीर से आए युवाओं को ट्रेनिंग मिलने लगी ताकि वे लोकल स्तर पर कत्लेआम मचा सकें.
इस बीच हिंदू-मुस्लिम फासला बढ़ते हुए खाई हो चुका था. कश्मीरी पंडित ऊंचे पदों पर थे. चरमपंथी उन्हें खलनायक की तरह दिखाने लगे. भरमाया गया कि वे मुस्लिम आबादी का हक ले रहे हैं. हर कोई खुद को धोखे में पाने लगा. यही वो वक्त था, जब घाटी में मिलिटेंट्स की खेप की खेप निकलीं.
शोपियां, जिसे एपल बाउल ऑफ कश्मीर कहते हैं, वहां सेब के पेड़ों पर फल भले न आएं, लेकिन हर गली में कथित आजादी के मतवाले पैदा होने लगे.
फारूख याद करते हैं- उतने तो फौजी भी नहीं थे, जितने मिलिटेंट्स थे. हम रात में ड्यूटियां लगवाते. दिन में प्लानिंग और नारेबाजियां होतीं. 91 के वक्त पूरी घाटी में आजादी का नारा था. बंदूकें हर तरफ ऐसी छाई हुईं कि मासूम लोग भी बहकावे में आने लगे. कितने ही जुलूस निकले, जिनके दोनों सिरे 40 किलोमीटर तक पसरे हुए थे. मिलिटेंट्स की मौत पर भी कुछ यही आलम होता.
धूसर-नीला पठानी कुर्ता पहने ये एक्स-मिलिटेंट बीत चुके उस दौर को अब भी मुलायमियत से याद करता है. मैं तब के कश्मीर को उसकी नजर से देखती हूं. पहाड़ों, पेड़ों, झीलों, नदियों, बर्फबारियों और अकेलेपन में सिमटा वो हिस्सा, जहां बंदूक और नारों की आवाज ही सन्नाटा तोड़ती थी.
आतंक की राह से मोहभंग
तो क्या आपसे कोई बड़ा गुनाह भी हुआ, जैसे किसी या कइयों का कत्ल? झिझकता हुआ सवाल.
बेतकल्लुफी से बात करते फारुख ठंडा पीने और चिप्स खाने का इसरार करने लगते हैं. सवाल रंगीन धारियों वाले शरबत के गिलास में गुम होता हुआ. दोहराने पर रुक-रुककर कहते हैं- मुझे फील्ड में इतना वक्त नहीं मिला. थोड़ा-बहुत तो हुआ लेकिन ऊपरवाले ने बेगुनाहों का खून बहाने से बचा लिया.
मतलब आप जो ट्रेनिंग लेकर आए, उसका कोई इस्तेमाल नहीं हुआ!
गोलमोल जवाब लौटता है- एक छोटा बच्चा दूध पीते हुए मां को काट ले तो मां उसे उठाकर खिड़की से बाहर नहीं फेंक देती, बल्कि सीना साफ करके बच्चे को फिर से दूध पिलाती है. ये मुल्क मेरी मां है. मैंने उससे गद्दारी की. बदले में जेल काटी. अब मां मुझे माफ कर चुकी. बहुत साल हो गए. अब तो मैं खुद पाकिस्तान और आतंकियों के खिलाफ बोलता हूं.
खुद को फख्र से एक्स मिलिटेंट बोलते इस शख्स के बारे में कहना मुश्किल है कि उसे गर्व किसपर है, मिलिटेंट होने पर या मिलिटेंसी छोड़ देने पर. कई सवालों के जवाब वे साफ टाल जाते हैं. कई बार दार्शनिक बातें करते हैं. और कई सवालों के मतलब ही बदल देते हैं.
कहानी के कई सिरे गायब हैं. कुछ भुला दिए गए. कुछ जानबूझकर खो दिए गए.
सवालों की नोंक घिसकर हम दोस्ताना लहजा अपनाते हैं.
आप डिवीजनल कमांडर थे, बड़ा रुतबा था, जैसा आप खुद कहते हैं. फिर ये काम कैसे छूटा?
किसी ने ठिकाने की खबर दे दी थी. सितंबर 1991 में मैं पकड़ा गया. बीएसएफ कैंप ले जाया गया. तमाम एजेंसियों के बड़े-बड़े अधिकारी पूछताछ करने आए. तब पता लगा कि मैं वाकई बड़ा आदमी हो चुका था.
फिर तो काम छोड़ना काफी मुश्किल रहा होगा?
हां. अरेस्ट के बाद साढ़े सात साल जेल में रहा. वहां रहते हुए किताबें पढ़ीं. तब दिमाग बदला. मैं अब आम कश्मीरी हो चुका था, जो अमन चाहता था. लेकिन इस बार वो वेलकम नहीं मिला. वही लोग जो कल तक सिर आंखों रखते थे, अलग ढंग से देखने लगे. कहने लगे कि इसने तो आजादी की जंग छोड़कर सरेंडर कर दिया.
कुछ और लोग थे, जो मिलिटेंसी से चिढ़ते. वे भी नाराज रहने लगे. पुलिस आए-दिन घर आकर परेशान करती. हालात इतने बिगड़े कि घर-परिवार सबने मुझसे दूरी बना ली. मैं दूर-दराज के मोहल्ले में जाकर रहने लगा.
मिलिटेंसी के रौब को अलविदा कहने का दुख चेहरे पर दिख ही जाता है. फारुख उलझन में लगते हैं कि गलत करते हुए वे हीरो थे, जबकि सही के रास्ते पर उनकी पहचान खो चुकी.
कश्मीर में आतंक का आज का चेहरा
घाटी में आज भी आतंकी घूम रहे हैं. तो इसका मतलब क्या मिलिटेंसी अब भी जिंदा है?
हां, लेकिन इसका चेहरा बदल चुका. हमारे वक्त में हथियार खत्म, गोला-बारूद खत्म तो हम पकड़े जाते थे. आज का दौर ज्यादा खतरनाक है. वे इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं. छिपकर रहते हैं. और दो या बहुत हुआ तो तीन के ग्रुप में रहते हैं. उन्हें पहचानना आसान नहीं.
तो कश्मीर में अब भी मिलिटेंट तैयार हो रहे हैं!
ज्यादातर लोग पाकिस्तान से आ रहे हैं. हमारे यहां मिलिटेंसी में वही आ रहे हैं, जो उठाईगीर या नशेड़ी हों. इन्हीं में से कुछ लोग पैसों के लिए ओवर ग्राउंड वर्कर बन जाते हैं.
उस पार से जो लोग आ रहे हैं, उनमें भी ज्यादातर सजायाफ्ता हैं. ISI उनके सामने शर्त रखती है कि कश्मीर जाकर आतंक मचाएं. यहां तीन साल रह गए तो उनकी सजा माफ हो जाएगी. साथ में परिवार के लिए 25-30 लाख भी मिलेंगे. तो अभी कैदी ही आ रहे हैं. वे मौत के लिए तैयार होकर आते हैं.
आपका मतलब है कि पहलगाम आतंकी हमले वाले उस पार के रहे होंगे?
ये मैं कैसे कह सकता हूं! लेकिन मिलिटेंट्स को खाना-पानी कौन दे रहा है. कोई न कोई तो है, जो उन्हें बचाता है.
बातों के बीच-बीच में अटका-हुआ-सा कुछ झांकता है, जैसे भरोसे और शक के बीच कमशकश हो.
क्या पाकिस्तान में अब भी आपके कनेक्शन हैं? हम टटोलते हैं.
हां. क्यों नहीं. आवाज में पहचान की लहक. फारुख कहते हैं- पाकिस्तान में अब भी अपने यार-दोस्त बैठे हैं, जो लगातार पीओके की आजादी...
आपका मतलब पीओके को भारत में मिलाने से है!
बिल्कुल. वहां कश्मीरियों पर बेहद जुल्म हो रहा है. वे लोग तो चाहते हैं कि अलग होकर हमारे मुल्क से जुड़ जाएं. कई दल हैं, जो इसपर काम कर रहे हैं. नेशनल स्टूडेंट फेडरेशन खुलेआम ये कहता है. यूके, यूएस में लोग हैं, जो वहीं से ऐसी मुहिम चला रहे हैं.
जेल से आने के बाद से मैं लगातार पाकिस्तान, आईएसआई और यहां भी अलगाववादियों के खिलाफ बोल रहा हूं. इससे मुझपर भी खतरा बढ़ चुका. पिछले साल हिज्बुल मुजाहिदीन ने मेरा हिट ऑर्डर निकाला. ये कहते हुए वे मोबाइल पर कुछ दिखाते हैं, जिसमें मौत की धमकी है.
फिर आप खुद को बचा कैसे पाए अब तक?
देखिए जी, जब मौत आएगी तो पूरी दुनिया मिलकर भी बचा नहीं सकेगी. वैसे ही जब मौत न लिखी हो तो चाहे सब जोर लगा लें, कुछ नहीं होगा. वैसे सच ये भी है कि मैं देखभाल कर चलता हूं. कहीं निकलूं तो दाएं-बाएं परख लेता हूं.
रही बात डर की, तो मैंने बंदूक चलाना छोड़ा है, पर वो अब भी मेरे पांवों में पड़ी है...
नब्बे के वक्त की घाटी को लेकर कई कंस्पिरेसी थ्योरीज हैं.
एक थ्योरी के मुताबिक, घाटी में तब काफी सारे हथियार आए थे, जो अब भी अलग-अलग जिलों में छिपाकर रखे हुए हैं. बहुत सारा असलहा-बारूद अब तक रिकवर नहीं हो सका है. मिलिटेंट्स की जितनी भी नई पौध आ रही है, वो यही इस्तेमाल कर रही है. ये खोजने की जरूरत है, कि हथियारों की बड़ी खेप कहां छिपी हुई है क्योंकि जब तक बारूद रहेगा, विस्फोट का खतरा भी रहेगा.
मौत के बदले मुर्ग-मुसल्लम का खेल
कई बातें कैमरा बंद होने के बाद होती हैं. फारूख रौ में कह जाते हैं- घाटी की मुश्किल कुछ ऐसी बड़ी चीज नहीं कि हल न हो सके. लेकिन यहां मौत नाचे, तभी कइयों के यहां मुर्ग-मुसल्लम पकेगा. कितनों के बच्चे इसी के बूते विदेशों में हैं. कोई क्यों इसे सुलझाना चाहेगा!
परिवार-निकाला के बावजूद फारूख का घर बस चुका. खूबसूरत बीवी और नेकदिल बेटी- वे बार-बार बताते हैं. बीच-बीच में बोनस की जिंदगी के लिए ऊपरवाले का शुक्रिया भी जताते हैं. लेकिन छूटा हुआ वो दौर, छूटा हुआ वो रुतबा बर्थमार्क की तरह साथ चलता है.
निकलते हुए वे पूछते हैं- ‘पाकिस्तान जाना चाहेंगी! बताइएगा, अगर पीओके देखना हो तो…! सब इंतजाम हो जाएगा.’ आवाज में जंगलों में छिपे उस राजा का भाव, जिसका राजपाट भले छिन गया हो, लेकिन पहचान बाकी है.
मृदुलिका झा