Ground Report: ओल्ड राजेंद्र नगर के उस इलाके की आंखों देखी, जहां ठीक एक माह पहले तीन UPSC छात्रों की गई थी जान

‘मुझ जैसे ज्यादातर बच्चे एक किस्म के ताबूत में ही रहते हैं. न कोई खिड़की, न झरोखा. हमारी गलियों का आसमान भी चांद-तारों नहीं, बिजली के तारों से अटा रहता है. तिसपर दिल्ली की गर्मी. लाइब्रेरी ही इकलौता आसरा थी. अब हमारे पास अपने-अपने ताबूतों में लौटने के सिवाय कोई रास्ता नहीं.’

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ओल्ड राजेंद्र नगर की इसी कोचिंग में 27 जुलाई को बड़ा हादसा हुआ था. ओल्ड राजेंद्र नगर की इसी कोचिंग में 27 जुलाई को बड़ा हादसा हुआ था.

मृदुलिका झा

  • नई दिल्ली,
  • 27 अगस्त 2024,
  • अपडेटेड 11:56 AM IST

महीनाभर पहले दिल्ली के राऊ IAS कोचिंग सेंटर में एक बड़ा हादसा हुआ. तेज बारिश के बीच यहां बेसमेंट में चल रही लाइब्रेरी में पानी भरने से 3 स्टूडेंट्स की मौत हो गई. घटना के बाद एमसीडी ने धड़ाधड़ बहुत से कोचिंग सेंटरों की लाइब्रेरी सील कर दी. कई जगहों पर फायर एनओसी न होने की वजह से तालाबंदी हो गई. अब स्टूडेंट्स परेशान हैं. लाखों रुपयों के साथ सपने भी दांव पर लगे हुए.

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एक छात्र कहता है- कमरा तो सोनेभर को लिया था. सुबह से रात लाइब्रेरी में ही समय बीतता. वहां एसी भी मिलता था, माहौल भी. अब या तो घर लौटना होगा, या बगैर खिड़की वाले उसी कमरे में पढ़ना सीखना होगा.
 
लेकिन बेसमेंट में पढ़ना भी तो खतरनाक है! आपके ही तीन साथियों की जान जा चुकी?
 
आपको क्या लगता है, बेसमेंट में लाइब्रेरी ही चलती थी. यहां कितने घर हैं, जहां बेसमेंट में पीजी हैं. वो भी बगैर कॉन्ट्रैक्ट के. कुछ हुआ तो खबर तक नहीं होगी. आवाज- बारिश में साबुन की तरह गल जाती हुई.
 
चाय की टपरी पर टकराए 22 साल के इस चेहरे पर गुस्सा, डर और नाउम्मीदी के बादल आते-गुजरते. उत्तर प्रदेश के छोटे-से गांव से आया ये लड़का रोज IAS बनने के ख्वाब के साथ नहीं, उस ख्वाब की मौत के साथ जागता है.
 
27 जुलाई को हुए हादसे के ठीक महीनेभर बाद हम ओल्ड राजेंद्र नगर पहुंचे.

राऊ कोचिंग सेंटर तक गए ही थे कि बारिश शुरू हो गई, मानो कुदरत खुद ही सीन रिक्रिएट कर रही हो. लगभग आधे घंटे के भीतर सड़कों पर ढाई से तीन फीट पानी भरा हुआ. बाइकें पूरी और कारें अधडूबी. बचने के लिए मैंने बगल के एक कोचिंग सेंटर की आड़ ले ली.
बेसमेंट यहां भी सील्ड. सामने लोहे का गेट मजबूती से बंद. दो गार्ड्स बार-बार पंप चेक करते हुए. इसके बाद भी गेट के थोड़े-बहुत खुले हिस्से से पानी भरभराकर अंदर आ रहा था.

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जल्द ही पार्किंग स्पेस में पानी जमा होने लगा. उसे ही दिखाते हुए सेंटर का एक कर्मचारी कहता है- पड़ोस में भी यही हुआ था. देखिए, बंद गेट से इतना पानी घुस सकता है तो गेट खुल जाए तब क्या होगा!

हल्की बारिश में भी कोचिंग के भीतर बंद गेट के बावजूद पानी भर रहा था. 

वो बेसमेंट में लाइब्रेरी चलाते थे, ये भी तो गलत है!

‘कहां नहीं चल रही! बच्चों को कम खर्च में बढ़िया रीडिंग स्पेस मिल जाता था. सेफ भी था. इतने सालों से चल रहा था, कभी ऐसे एक्सिडेंट के बारे में सुना! होना था, हो गया. इसमें एमसीडी की भी गलती है. हर बारिश यही हाल रहता है. उन्हें भी कुछ करना चाहिए. हम इतना किराया देकर स्पेस लेते हैं, उसे खाली कैसे पड़ा रहने दें. अभी भी सड़कें खोद रखी हैं.’ पानी की जद से दूर सीढ़ियों पर बैठे कर्मचारी के चेहरे पर खाया-अघाया भाव
 
यहीं हमारी मुलाकात एक स्टूडेंट से हुई, जो पिछले दो सालों से तैयारी कर रहा है. नाम न बताने की शर्त पर वो कहता है- ‘एडेप्टेशन.’ उस हादसे के बाद लाइब्रेरी सील होने के बाद हमने यही सीखा. जो है, उतने में गुजारा कर लो. कमरे छोटे हैं. गर्मी है. माहौल नहीं मिलता. एक पंखा है, बिजली जाने पर वो भी घर्र-मर्र करता है. दूसरे साथियों के आने पर मकान मालिक किचकिच करता है. लेकिन हम वैसे ही पढ़ना सीख रहे हैं. जो नहीं कर सकते, वे वापस भी लौट रहे हैं.
 
और आप?

मैं इंतजार करूंगा. अभी नहीं तो महीनेभर में तो लाइब्रेरीज खुल ही जाएंगी. या फिर कोई दूसरा बंदोबस्त होगा. कोचिंग सेंटरों ने रीडिंग स्पेस के लिए साल-सालभर के पैसे ले रखे हैं, वे भी क्यों अपना नाम खराब करें.
 
पता लगा, राऊ'ज के बंद होने पर वहां के स्टूडेंट्स दूसरी कोचिंग में भेज दिए गए. वहां कथित तौर पर उन्हें फ्री में पढ़ाया जा रहा है. हालांकि मुलाकात पर ऐसे दो सेंटरों ने ऑन-कैमरा ये कहने से साफ मना कर दिया.
 
बेहद पुराने एक ऐसे ही कोचिंग इंस्टीट्यूट के एडमिनिस्ट्रेशन इंजार्ज कहते हैं- अगर हम सपोर्ट न करते तो कई बच्चे खुद को ही नुकसान पहुंचा लेते. छोटी जगहों से आए लड़के ज्यादा प्रेशर में थे. हमने उन्हें एकोमॉडेट कर लिया. फिलहाल उनसे कोई चार्ज नहीं लिया जा रहा.
 
कॉफी के साथ इत्मीनान की भी चुस्कियां लेते एडमिन हेड कैमरे पर ये बात बोलने को तैयार नहीं. ‘वेलफेयर के लिए है, इसे क्या एडवरटाइज करना’- वे कहते हैं.

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हजारों की क्षमता वाले कोचिंग इ्ंस्टीट्यूट में फिलहाल ताला पड़ा हुआ है. 

वहीं राऊ’ज का ही एक बच्चा इससे साफ इनकार करता है. वो कहता है- जैसे बड़े स्कूलों में दिखावे के लिए थोड़ी-बहुत सीट गरीब बच्चों को दे दी जाती हैं, फिर उनसे कोई मतलब नहीं रहता. हमारे साथ भी यहां वही ट्रीटमेंट हो रहा है.

क्यों. क्या आपको पढ़ाया नहीं जा रहा!

क्लास तो हो रही है लेकिन दबाव है कि थोड़े समय में इन्हें भी फीस दें.
 
ओल्ड राजेंद्र नगर को खंगालने का सिलसिला यहीं खत्म हो जाता है. अब मैं मुखर्जी नगर की तरफ हूं. वो इलाका जहां से कितने ही बच्चे IAS के ठप्पे के साथ निकलते रहे.
 
बहुत से ऐसे भी बच्चे हैं, जो आते तो सिविल सर्विस की तैयारी के लिए हैं, लेकिन कोचिंग के लिए विज्ञापन करने तक रह जाते हैं. जी हां, यहां की सड़कों पर कोचिंग सेंटरों की तरफ देखते हुए चलिए और मिनटभर में आप छोटे-मोटे झुंड के बीच होंगे. सबके सब आपको सबसे बढ़िया इंस्टीट्यूट दिलाने का वादा करते हुए.
 
ओल्ड राजेंद्र नगर में इन लड़कों की पहचान है- मार्केटिंग एग्जीक्यूटिव, जबकि मुखर्जी नगर में ये प्रमोटर कहलाते हैं.

काम- इंक्वायरी लाना, यानी मुझ जैसे किसी भावी क्लाइंट को कोचिंग सेंटर तक पहुंचा देना.

हर इंक्वायरी के बदले 50 रुपए.

 
ये वो लड़के (कोचिंग संस्थान इन्हें यही पुकारते हैं) हैं, जो IAS बनने का सपना लिए दिल्ली आए थे, लेकिन साल-दो साल बीतते-बीतते सपनों का बाग, जरूरत के जंगल में बदलकर रह गया.
 
ऐसे ही एक प्रमोटर सुनील बताते हैं- हम पढ़ने आए थे लेकिन फीस इतनी थी कि जॉइन ही नहीं कर पाए. एक-दो महीना गुजारा हो गया, फिर काम खोजना पड़ा. पहले कोचिंग के लिए पर्चा बांटा करते. बीच में गर्ल्स पीजी में गार्ड की नौकरी मिली. अभी कोचिंग के लिए इंक्वायरी लाते हैं. एक बंदे को ले जाने के पचास रुपये. कुछ पुराने लोग सैलरी पर भी होते हैं.

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सुनील UPSC की तैयारी के साथ प्रमोटर का काम भी कर रहे हैं. 

कितनी सैलरी मिलती है?
 
मैं पक्का कर्मचारी नहीं हूं. टारगेट होता है. दो दिन पहले एक भी पैसा नहीं मिल सका. कल पचास रुपये मिले. आज अब तक एक भी इंक्वायरी नहीं ले जा सका. आप मिलीं तो वीडियो बना रही हैं. सुनील हंसते हुए ही अपनी बात कह जाते हैं.
 
काम करने लगे तो पढ़ाई आपकी छूट गई होगी!

नहीं जी. वो क्यों छूटेगी. उसके लिए ही तो इतने खटराग पाले. रात के गार्ड की नौकरी ठीक है. उसमें दिन-रात दोनों वक्त पढ़ना हो जाता था. एक्स्ट्रा कमाई हो सके, इसके लिए यूट्यूब चैनल भी बनाया. गांव से आए लड़का लोग काम करते हुए आईएएस की तैयारी कैसे करें, ये बताते हैं. सब्सक्राइबर भी बढ़ रहे हैं. वॉच टाइम बढ़ा तो पैसे भी आने लगेंगे. यूपी के दूरदराज गांव से आए सुनील किसी प्रोफेशनल की तरह बात करते हुए.

घर क्यों नहीं लौट जाते. वहीं सेल्फ स्टडी कीजिएगा. मैं बिनमांगे सलाह दे डालती हूं.

कैसे लौटें. चार साल से यहां हैं. लौटेंगे तो ऐसे-ऐसे ताने मिलेंगे कि छेद देंगे. छुट्टी में भी जाओ तो रुक नहीं सकते. प्रेशर है कि पैसे तो कमाने ही हैं, चाहे सपने गंवाएं.

सड़क पर कई ‘जेनुइन’ इंक्वायरीज टहलती हुईं. उन्हें पकड़ने के लिए जाते हुए सुनील सादा ढंग से कहते हैं- आप इंक्वायरी तो बनी नहीं, हमारा यूट्यूब चैनल ही सब्सक्राइब कर लीजिएगा.

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स्टूडेंट्स के भरोसे चलने वाले मुखर्जी नगर में बदइंतजामी हर तरफ दिखेगी. 

आगे मुखर्जी नगर का रेजिडेंशियल इलाका है.

कोचिंग संस्थानों की छाप यहां भी उतनी ही गहरी. किताबों, पत्रिकाओं से सजी दुकानें. चाय की गुमटियां, जिसे चलाने वाले भी दुनिया की उतनी ही खबर रखते हैं, जितनी ये भावी आईएएस. बेहद पुरानी इमारतें, जिनपर पेंट से ज्यादा पर्चियां चिपकी हैं. और इन सबके बीच- नामालूम मौजूदगी वाले बच्चे.

लाइब्रेरी यहां भी चलती हैं. बस फर्क इतना है कि ये बेसमेंट की बजाए किसी फ्लोर पर चलती हैं.

ऐसी ही एक लाइब्रेरी की तरफ हम बढ़ते हैं. हाई जंप की तैयारी कराती सीढ़ियों को फर्लांगते हुए ऊपर पहुंचने पर हमारी मुलाकात हुई कन्हैया कुमार से. झारखंड के गोड्डा से आए कन्हैया सुबह 9 से 8 बजे तक लाइब्रेरी में ड्यूटी करते हैं, जिसके बाद अगले पांच घंटे वहीं पढ़ाई करते हैं.

और सोना!

अब इतनी दूर सोने थोड़े ही आए हैं. दो बार प्री निकल चुका. मेन्स की तैयारी में हैं.
 
व्यस्त दिखते कन्हैया से हम उनके ऑफिस में ही बात करते हैं. एक चेयर और एक स्टूल रखनेभर जगह वाले दफ्तर में सीसीटीवी स्क्रीन लगी हुई. कन्हैया यहीं से लाइब्रेरी के भीतर नजर रखते हैं. वे कहते हैं- इस काम में ज्यादा मेहनत नहीं. ऑफिस में बैठे-बैठे सीसीटीवी देखते रहो. जरूरत हो तो सीटें अरेंज करवा दो. फिर अपनी पढ़ाई करते रहो. इसलिए मैं ये जॉब कर रहा हूं. इरादा है कि इस बार एग्जाम निकाल लूं.
 
कोचिंग नहीं लेते आप?

नहीं. ज्यादातर स्टूडेंट ऐसे ही हैं. पहले साल-छह महीना कोचिंग लेकर भी आइडिया हो जाता है. इसके बाद लाइब्रेरी में बैठकर सेल्फ स्टडी करते हैं.

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छोटे क्यूबिकल्स ही यहां लाइब्रेरी कहलाते हैं, जहां बच्चे 12 या ज्यादा घंटे बिताते हैं. 

लाइब्रेरी क्यों, पढ़ना ही है तो घर पर क्यों नहीं?

यहां के कमरे घर कहलाने लायक नहीं. पूरे कद का बंदा पैर फैलाकर सो भी न सके, इतने छोटे कमरे. न खिड़की होती है, न रोशनदान. बच्चे घबराकर यहीं आ जाते हैं. पढ़ने के लिए ठीकठाक जगह मिल जाती है. आसपास पढ़ते हुए लोग दिखते हैं तो मन भी लगता है.

ओल्ड राजेंद्र नगर या मुखर्जी नगर में लाइब्रेरी का मतलब किताबों से नहीं, ये रीडिंग स्पेस है.

यहां छोटे-छोटे क्यूबिकल होते हैं. हरेक डेस्क पर एक बल्ब जलता हुआ. चौबीसों घंटे यहां लोग आ-जा सकते हैं. बायोमैट्रिक सिस्टम वाली ये जगहें किसी कोचिंग से ही जुड़ी हों, ऐसा जरूरी नहीं. खासकर मुखर्जी नगर में कई लोगों ने इमारत का कोई एक फ्लोर किराए पर लेकर उसे लाइब्रेरी बना दिया.

महीने और सालभर में आप कितने घंटे बैठना चाहते हैं, उस हिसाब से पैसे लिए जाते हैं. रात की फीस सबसे कम होती है इसलिए बहुत से बच्चे रात में आकर भी पढ़ते हैं.

भले ही ये लाइब्रेरीज बेसमेंट में नहीं, लेकिन हालत इनकी भी खस्ता ही है. कंधे टेढ़े करके एक से दूसरी लाइन तक पहुंच सकें, इतने संकरे स्पेस वाली लाइब्रेरी. एग्जिट और एंट्री के लिए एक ही दरवाजा. अंधेरी-खड़ी सीढ़ियां. कोई दुर्घटना होने पर बचकर निकलना कितना मुश्किल होगा, इसका अंदाजा लगाना कतई मुश्किल नहीं.

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हर लाइब्रेरी के मेन डोर पर आग बुझाने का यंत्र लटका हुआ दिखेगा. पास लगे नोटिस बोर्ड पर लिखी लाइनें मिटी हुईं, लेकिन फायर एस्टिंग्यूशर नया-चमकता हुआ.



पुराने ढब की अटपटी इमारतों और रद्दी कागजों से गंधाते इलाके में नाकामयाबी और कामयाबी के ढेरों किस्से तैरते मिलेंगे.

ऐसे ही एक किस्से से मिलने की कड़ी में हम अंदर एक गली में पहुंचे. मकान के सामने कूड़े का ढेर. बारिश में बजबजाई नाली. ताजे खाने और गंदगी की मिलीजुली गंध. और निपट अंधेरा गलियारा. फर्स्ट फ्लोर पर वो युवक है, जो IRS में सलेक्ट हो चुका. बित्ताभर कमरे में हमउम्र मुलाकातियों की भीड़ लगी हुई.
 
वे कहते हैं- नवंबर में ट्रेनिंग है लेकिन मैं IAS की तैयारी भी कर रहा हूं. हो जाए तो सारी तकलीफें खत्म हो जाएंगी. चूहेदानी जैसे कमरे में रहना. बेमन का खाना. चौबीसों घंटे की बेचैनी. सब.
 
मुलाकातियों की नजरों में तारीफ और रश्क एक साथ.

महीनेभर पहले हुआ हादसा सड़क पर खुदा वो पुराना गड्ढा बन चुका, जो न भी भरे तो लोगों को उससे डर नहीं लगता. वे ठिठकते हैं और किनारे से निकल जाते हैं.

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