भारत के ज़्यादातर हिस्सों में मानसून खुशहाली लेकर आता है, लेकिन दिल्ली के लिए ये मुसीबतों का पैग़ाम बन जाता है. हर साल की तरह इस बार भी राजधानी में डूबती सड़कों, घंटों के जाम, हादसों और पानी में तैरती गाड़ियों की तस्वीरें सामने आईं. सवाल ये है कि आखिर क्यों दिल्ली हर साल मानसून में डूबने को मजबूर हो जाती है?
एक्सपर्ट्स और सरकारी डेटा इसकी बड़ी वजह दिल्ली की गायब होती झीलें, खराब स्टॉर्म वॉटर मैनेजमेंट, जाम नालियां और बेतहाशा कंस्ट्रक्शन बताते हैं.
सिकुड़ती झीलें
करीब दस साल पहले भलस्वा झील का इलाका तीन फुटबॉल मैदानों के बराबर फैला हुआ था. झील के किनारे हरियाली थी और आसपास के DDA फ्लैट्स से शानदार नजारा दिखता था लेकिन आज ये पूरा इलाका अपनी झील को खो चुका है. ये सिर्फ एक मिसाल है. हकीकत ये है कि दिल्ली की कई झीलें या तो सूख गईं या पार्क और कूड़े के ढेर में बदल दी गईं.
दिल्ली की 193 दर्ज झीलों में से कम से कम 14 झीलें पिछले 10 सालों में पूरी तरह से गायब हो चुकी हैं. करीब 60 झीलें लगभग सूख चुकी हैं और 13 झीलों में सिर्फ़ बरसात के दिनों में ही पानी ठहरता है.
इंडिया टुडे ने गूगल अर्थ और सैटेलाइट इमेजरी से NGT और सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड की रिपोर्ट को वेरिफाई किया. इसमें साफ़ दिखा कि कई झीलें या तो सिकुड़ चुकी हैं या गंदगी से भरी पड़ी हैं. दिल्ली सरकार की कोशिशों से कुछ झीलें जरूर रिवाइव हुई हैं, लेकिन NGT के मुताबिक 193 में से सिर्फ 57 झीलें ही ठीक स्थिति में हैं.
मयापुरी झील (नारायणा), तिहार झील (हरि नगर), स्मृति वन (वसंत कुंज), तुगलकाबाद किला तालाब और मादीपुर झील अब नक्शे से ग़ायब हो चुकी हैं. वहीं, संजय झील और स्मृतिवन कोंडली जैसी झीलें सिकुड़ चुकी हैं और प्रदूषण की मार झेल रही हैं.
क्यों जरूरी हैं झीलें?
झीलें और वेटलैंड्स पर्यावरण को बैलेंस रखने में अहम हैं. इन्हें ‘लैंडस्केप की किडनी’ कहा जाता है, क्योंकि ये बारिश का पानी सोखकर शहर को बाढ़ से बचाती हैं. इंडिया टुडे के OSINT (ओपन सोर्स इंटेलिजेंस) टीम ने सैटेलाइट डेटा से दिल्ली का लैंड-यूज मैप तैयार किया. इसमें दिखा कि शहर का पक्का (कंक्रीट) इलाका 13.5% बढ़ गया है, जबकि हरियाली और पानी वाले इलाकों में भारी कमी आई है.
पानी से जुड़े इलाकों का एरिया 66.2 वर्ग किमी से घटकर सिर्फ 40.3 वर्ग किमी रह गया है यानी लगभग 39% गिरावट. वहीं, ग्रीन कवर 210.66 वर्ग किमी से घटकर 146.98 वर्ग किमी यानी करीब 30% की कमी रह गया.
नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस कम्युनिकेशन एंड पॉलिसी रिसर्च (NISPR) की स्टडी भी यही बताती है. 1998 से 2018 के बीच बने LULC मैप्स से पता चलता है कि दिल्ली का पक्का इलाका 36 वर्ग किमी से बढ़कर 50 वर्ग किमी हो गया (17.5% की बढ़ोतरी). वहीं, जंगल और प्लांटेशन 10% घट गए और झीलें आधी से भी कम रह गईं.
नालियों का संकट
दिल्ली का ड्रेनेज सिस्टम भी बड़ी वजह है. अभी भी शहर उसी मास्टर प्लान पर चल रहा है जो 1976 में बना था, जो सिर्फ 50 mm बारिश झेल सकता है. तब दिल्ली की आबादी 60 लाख थी. आज ये चार गुना हो चुकी है. IIT दिल्ली की स्टडी बताती है कि शहर का ड्रेनेज कैपेसिटी 30-40% कम पड़ जाती है. ऊपर से नालियों की सफाई न होना, धूल-मिट्टी और कचरे से उनका जाम होना, और सड़कों पर कंस्ट्रक्शन का मलबा गिरने से हालत और बिगड़ गई है.
पहले बारिश होने पर आधा पानी जमीन में समा जाता था और बाकी सतह से बह जाता था. अब ज़मीन का ज्यादातर हिस्सा कंक्रीट से ढक गया है. नतीजा ये है कि बारिश का ज्यादातर पानी जमीन में जाने के बजाय सड़कों पर भर जाता है और पूरा drainage system कुछ ही घंटों में ठप हो जाता है.
बिदिशा साहा