दिसंबर 2022 में लालू प्रसाद यादव की बेटी रोहिणी आचार्य ने अपने पिता की जान बचाने के लिए अपनी एक किडनी दान कर दी थी. उस वक्त पूरा देश कह रहा था, 'बेटी हो तो रोहिणी जैसी.' हर तरफ उनकी तारीफें हो रही थीं. लेकिन आज वही रोहिणी एक बिल्कुल अलग वजह से सुर्खियों में हैं. परिवार से दूरी, भाई तेजस्वी यादव से बढ़ता विवाद और सोशल मीडिया पर तीखे बयानों ने तस्वीर बदल दी है.
किडनी डोनेशन के बाद एक समय ऐसा था जब रोहिणी लगातार परिवार की राजनीति और पिता के फैसलों का खुलकर समर्थन करती थीं. लेकिन पिछले कुछ महीनों से उन्होंने सोशल मीडिया पर एक अलग ही रुख अपना लिया है. बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद रोहिणी ने अपने परिवार से नाता तोड़ने का ऐलान किया और इसी के साथ उनके किडनी डोनेशन का मुद्दा भी फिर से उभर आया है.
रोहिणी ने क्या लगाए आरोप?
रोहिणी ने अपने भाई तेजस्वी यादव और कुछ RJD नेताओं पर गंभीर आरोप लगाए हैं. रोहिणी का कहना है कि उनके दान को लेकर उन्हें तिरस्कार का सामना करना पड़ा, यहां तक कि उनकी किडनी को 'गंदी किडनी' कहा गया और यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने ऑर्गन डोनेशन पैसे या चुनावी फायदे के लिए किया था.
अपनी पोस्ट में रोहिणी ने शादीशुदा बेटियों और महिलाओं से भावुक अपील भी की. उन्होंने लिखा कि 'सभी बेटियों और बहनों से कहना चाहूंगी कि अगर आपके मायके में कोई बेटा या भाई है, तो कभी भी अपने भगवान जैसे पिता को बचाने के लिए आगे ना बढ़ें. इसके बजाय, अपने भाई या घर का बेटा ही अपनी या किसी जानने वाले की किडनी लगवाएं.'
रोहिणी की तमाम बातें भले ही पारिवारिक कलह का इशारा करती हैं लेकिन उनकी एक बात में पूरे भारत की कहानी भी छिपी है. रोहिणी ने भले ही कटाक्ष में कहा कि बेटों और भाइयों को ही किडनी डोनेट करने देना चाहिए लेकिन ये सच बात है कि जब भी परिवार में किडनी, लिवर या कोई भी अंग दान करने की जरूरत पड़ती है, तो ज्यादातर महिलाएं ही आगे आती हैं. क्या महिलाएं सिर्फ अनकही अपेक्षाओं और जिम्मेदारी के बोझ के कारण ही ज्यादातर ऑर्गन डोनेट करती हैं? चलिए जानते हैं.
कितनी महिलाएं ऑर्गन करती हैं डोनेट?
नेशनल ऑर्गन और टिशू ट्रांसप्लांट ऑर्गेनाजेशन (NOTTO) के आंकड़े दिखाते हैं कि भारत में ऑर्गन डोनेशन और ट्रांसप्लांट में पुरुष और महिलाओं के बीच बड़ा अंतर है. 2019 से 2023 के बीच, जिन लोगों ने जिंदा रहते हुए ऑर्गन डोनेट किया, उनमें से लगभग 64% महिलाएं थीं, जबकि ऑर्गन पाने वालों में लगभग 70% पुरुष थे. इसका मतलब ये है कि भारत की अंगर प्रत्यारोपण प्रणाली महिलाओं के शरीर पर ज्यादा निर्भर करती है. महिलाएं ज्यादा डोनेट करती हैं, लेकिन उन्हें खुद ऑर्गन मिलने की संभावना कम रहती है.
पिछले पांच सालों में कुल 56,509 ऑर्गन डोनेट हुए, जिसमें डोनेट करने वालीं 36,038 महिलाएं थीं, लेकिन उन्हें सिर्फ लगभग 30% ट्रांसप्लांट ही मिला. वहीं पुरुषों को 17,041 की तुलना में 39,447 ऑर्गन मिले. इसका मतलब ये हुआ कि हर दो पुरुषों में से एक महिला को ही जान बचाने वाला ऑर्गन मिला, जबकि डोनेट करने वालों में दो-तिहाई महिलाएं थीं. ये किसी भी मेडिकल कारण से नहीं समझा जा सकता. ये साफ दिखाता है कि सोसाइटी पुरुषों के जीवन को प्राथमिकता देती है और महिलाओं पर निर्भर रहती है.
वैश्विक स्तर पर भी यही पैटर्न है. ग्लोबल डेटाबेस ऑन डोनेशन एंड ट्रांसप्लांटेशन (GODT) के मुताबिक 2017 में दुनिया भर में केवल 36% महिला मरीजों को ही ऑर्गन मिला, जबकि 63% पुरुष मरीजों को. इसका मतलब है कि डोनेशन और ट्रांसप्लांट में लैंगिक असमानता सिर्फ भारत में नहीं, बल्कि कई देशों में मौजूद है.
क्या कहता है कानून?
भारत में ह्यूमन ऑर्गन और टिशू ट्रांसप्लांट अधिनियम, 1994 ऑर्गन ट्रांसप्लांट को कंट्रोल करता है और ऑर्गंस की अवैध खरीद-बिक्री पर रोक लगाता है. इसका मुख्य मकसद ये तय करना है कि ऑर्गन लेने और देने के साफ-साफ नियम हों, चाहे अंग जीवित व्यक्ति से लिया जाए या मृत व्यक्ति से.
कानून के तहत लिविंग ऑर्गन डोनेशन की अनुमति है. इसका मतलब है कि कोई व्यक्ति अपने जिंदा रहते हुए भी ऑर्गन डोनेट कर सकता है. ऐसे दान करने वाले लोग बिना किसी कानूनी परेशानी के कर सकते हैं. इनमें माता, पिता, भाई-बहन, बेटे-बेटी और पति या पत्नी शामिल होते हैं. 2011 में सरकार ने कानून में बदलाव किया ताकि लोग ऑर्गन का आदान-प्रदान (स्वैप) भी कर सकें और दादा-दादी व पोते-पोतियों को भी डोनर लिस्ट में शामिल किया गया.
सभी लिविंग ऑर्गन डोनेशन के मामलों की निगरानी एक विशेष प्राधिकरण समिति करती है. उनका काम ये देखना है कि डोनर का पैसे या किसी अन्य वजह से शोषण न हो और ऑर्गन का अवैध व्यापार रोकना भी उनका काम है. अगर कोई व्यक्ति ऑर्गन देना चाहता है लेकिन उसका कोई करीबी रिश्तेदार नहीं है, तो डोनर और जो ऑर्गन लेगा, उसे सरकार के पैनल से विशेष अनुमति लेनी होती है.
क्या हैं कारण?
1. समाज में महिलाओं की भूमिका: हमारे समाज में महिलाओं के बारे में एक पुरानी सोच बनी हुई है कि वे ज्यादा सहनशील होती हैं, परिवार के लिए हमेशा कुर्बानी देने को तैयार रहती हैं और उनका काम दूसरों की देखभाल करना है. यही सोच ऑर्गन डोनेशन के मामलों में भी साफ दिखती है. जब घर का कोई सदस्य बीमार पड़ता है, तो सबसे पहले नजर महिला सदस्यों पर जाती है. ये अनकही उम्मीद महिलाओं पर गहरा दबाव डाल देती है कि वे आगे आएं और ऑर्गन डोनेट करें.
2. ‘कमाने वाले’ होते हैं पुरुष वाली सोच: भारत के अधिकांश घरों में पुरुष को 'ब्रेडविनर' यानी कमाने वाला माना जाता है. अगर पुरुष की सेहत बिगड़ती है, तो परिवार सोचता है कि उसकी नौकरी या आय रुक जाएगी और पूरा घर प्रभावित होगा. इसी वजह से कई बार महिलाएं परिवार की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए ऑर्गन डोनेट करने के लिए आगे आती हैं, भले ही यह उनकी हेल्थ पर असर डालता हो, उन्हें डर लगे या वे पूरी तरह तैयार न हों. डॉक्टर इसे 'ब्रेडविनर डिलेमा' कहते हैं जहां समाज कहता कुछ नहीं, लेकिन सोचता यही है कि त्याग महिला ही करेगी.
3. मेडिकल फैक्टर्स: मेडिकल एक्सपर्ट्स बताते हैं कि कई महिलाओं के हेल्थ पैरामीटर डोनर के लिए बेहतर होते हैं. उनका ब्लड प्रेशर सामान्य रहता है, शुगर कंट्रोल रहती है और शरीर की सामान्य फिटनेस अक्सर स्टेबल रहती है. वहीं, पुरुषों में लिवर जैसी बीमारियां शराब या गलत लाइफस्टाइल के कारण ज्यादा देखी जाती हैं, इसलिए उन्हें ट्रांसप्लांट की जरूरत ज्यादा पड़ती है. इस वजह से रिसीवर ज्यादातर पुरुष और डोनर ज्यादातर महिलाएं बन जाती हैं.
4. भावनात्मक दबाव: कई महिलाएं ऑर्गन डोनेट अपनी मर्जी से करती हैं, लेकिन कई बार भावनात्मक दबाव उन्हें मजबूर कर देता है. वे सोचती हैं 'अगर मैंने नहीं किया तो घर टूट जाएगा', 'कोई मर जाएगा तो मुझे दोष देंगे' या 'मुझे ही करना चाहिए, नहीं तो मैं बुरी लगूंगी.' डॉक्टर बताते हैं कि गिल्ट, डर और संकोच जैसी भावनाएं महिलाओं के असली फैसले को दबा सकती हैं.
क्या है समाधान?
भारत में अभी भी ज्यादातर ट्रांसप्लांट लिविंग डोनेशन पर निर्भर हैं. एक्सपर्ट्स मानते हैं कि अगर कैडावेर डोनेशन यानी मरे हुए व्यक्तियों से ऑर्गन डोनेशन को बढ़ावा दिया जाए, तो महिलाओं पर दबाव कम होगा, पुरुषों और महिलाओं के बीच बैलेंस बनेगा, परिवार में भावनात्मक बोझ घटेगा और ऑर्गन की उपलब्धता बढ़ेगी. इसके साथ ही जरूरी है कि महिलाओं को ऑप्शन मिले, उनकी ‘हां’ या ‘ना’ को सम्मान मिले और परिवारों में बराबरी की सोच आए. अंगदान को कर्तव्य नहीं, बल्कि व्यक्तिगत निर्णय माना जाए.
आजतक हेल्थ डेस्क