अगस्त 2024 में छात्र आंदोलन के बाद शेख हसीना को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर देश छोड़ना पड़ा. फिलहाल वे भारत की शरण में हैं. इस दौरान काफी चीजें उलट-पलट हुईं. हसीना को कई गंभीर अपराधों में दोषी बताते हुए फांसी की सजा सुनाई गई. हालांकि भारत ने उन्हें ढाका को नहीं सौंपा है. इसी माहौल में चुनाव आयोग ने नेशनल इलेक्शन का एलान कर दिया. बांग्लादेश अब भी अस्थिरता से उबरा नहीं है. कोई पक्ष या विपक्ष नहीं. ऐसे में क्या वहां फेयर इलेक्शन्स हो सकेंगे और बदलाव का दिल्ली-ढाका रिश्ते पर क्या असर होगा?
डेढ़ दशक से ज्यादा सत्ता में रहने के बाद हसीना का तख्तापलट हुआ, वो भी सैन्य आंदोलन से नहीं, बल्कि स्टूडेंट प्रोटेस्ट के चलते. अब बांग्लादेश की राजनीति वहां हैं, जहां आजादी के बाद से कभी नहीं दिखी. फिलहाल वहां अंतरिम सरकार मोर्चा संभाले है. विपक्ष नहीं. लेकिन वहां कोई सत्ता पक्ष जैसा भी बाकी नहीं रहा.
असल में बगावत के बाद वाले महीनों में मोहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार ने फैसला किया कि अवामी लीग, जो देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी रही है, चुनाव में हिस्सा नहीं ले सकेगी. दल का रजिस्ट्रेशन रद्द कर दिया गया और उसकी राजनीतिक गतिविधियों पर भी रोक लग चुकी. अब बांग्लादेश में सत्ता-शून्यता की स्थिति है. ये वैसा ही है, जैसे परिवार के मुखिया एकाएक गायब हो जाएं और बाकी सदस्यों के पास जीवन चलाने की कोई तैयारी न हो.
ऐसे में यहां मुकाबला पूर्व पीएम खालिदा जिया की पार्टी (बांग्लादेश नेशलिस्ट पार्टी) बीएनपी और जमात-ए-बांग्लादेश के बीच होने की संभावना है. दोनों का ही स्टेटस घालमेल वाला दिख रहा है.
क्या है बीएनपी के साथ समस्या
बीएनपी अभी भी बांग्लादेश की राजनीति में सबसे बड़े विपक्षी नेताओं में से एक है, खासकर अवामी लीग के बाहर होने के बाद. पार्टी का नेतृत्व तारिक रहमान कर रहे हैं, जो फिलहाल लंदन में हैं और वहीं से पार्टी संभाल रहे हैं. उन्होंने उम्मीदवारों की लिस्ट भी निकाल दी जो चुनाव में शामिल होंगे. लेकिन ये सब ऊपरी बातें हैं. असल ये है कि किसी समय बेहद मजबूत रहा ये दल अंदर ही अंदर लड़ाइयां झेल रहा है.
खालिदा जिया और तारिक रहमान समेत यहां के बड़े नेता लंदन में हैं. असल में लगभग सभी पर करप्शन के आरोप रहे. मुकदमों और दबाव की वजह से वे लंदन चले गए, और वहीं से ही पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं. वे चुनाव में खुद हिस्सा नहीं ले सकते, ऐसे में दूर-दराज से कमांड करना और जीत हासिल करना बड़ी चुनौती हो सकती है.
इसके बाद जमात-ए-इस्लामी मैदान में है. यह धर्म पर काम करने वाली राजनीतिक पार्टी है, जिसका काम शरीयत के इर्दगिर्द घूमता रहा. वे इस्लामिक सामाजिक ढांचा बनाने पर जोर देते रहे. पिछले साल सत्ता पार्टी यानी हसीना प्रशासन ने उसे चुनावों में हिस्सा लेने के लिए प्रतिबंधित कर दिया था. पार्टी पर स्टूडेंट्स को उकसाने और हिंसा भड़काने का आरोप था. सत्तापलट के बाद सुप्रीम कोर्ट ने यह बैन हटा दिया. अब दल आम चुनावों में शामिल हो सकता है.
यहीं पर बड़ी समस्या आती है. जमात-ए-इस्लामी चूंकि इस्लामी विचारधारा पर काम करती है, ऐसे में देश का धार्मिक पोलराइजेशन होना तय है. माननोरिटी पर पहले ही हिंसा हो रही है. पार्टी अगर सत्ता में आई तो वे और ज्यादा अलग-थलग पड़ जाएंगे. दल महिलाओं को लेकर भी काफी सख्त रहा. तब हो सकता है कि बांग्लादेश की स्थिति भी तालिबान-शासित अफगानिस्तान की तरह हो जाए.
अगर ये समस्याएं वहीं तक सीमित रहतीं तो भी शायद चलता लेकिन दोनों देशों की सीमाएं सटी हुई हैं और वहां पर हिंदू आबादी का होना भी भारत से उसके संबंधों पर असर डालेगा. जमात-ए-इस्लामी पहले भी भारत सरकार के खिलाफ बयानबाजियां करती रही. नब्बे के दशक में जब दल राजनीतिक में सक्रिय था, तब से ही वो आरोप लगा रहा है कि भारत उनके आंतरिक मामलों में दखल देता है.
एक नया दल भी है, नेशनल सिटिजन पार्टी (एनसीपी).यह स्टूडेंट्स की पार्टी है, जिनकी वजह से सत्तापलट हुआ. सड़कों पर प्रोटेस्ट करते हुए पार्टी सीधे मुख्यधारा राजनीति में आ सकती है. हालांकि इसके पास जोश तो है लेकिन तजुर्बा नहीं. साथ ही ये विचारधारा में जमात-ए-इस्लामी के करीब है. ऐसे में इसका आना भी भारत-ढाका संबंधों को पटरी पर ला सकेगा, ऐसा नहीं लगता.
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