यूक्रेन का चेर्नोबिल अपने परमाणु रेडिएशन की वजह से अक्सर चर्चा में रहता है. अब भी वहां जंगली पशुओं और वनस्पति पर इसका असर बाकी है. दूसरी तरफ रूस का मयाक इलाका है. किसी समय मॉस्को ने इसे डंपिंग यार्ड बना रखा था. खासकर यहां की एक झील में रेडियोएक्टिव वेस्ट डाला जाता था. जल्द ही जहर फैलने लगा. झील सूखने लगी और रेडियोएक्टिव वेस्ट उड़कर आसपास के इलाकों तक फैलने लगा.
ये इतना घातक था कि आसपास के दर्जनों गांव खाली करवा दिए. लेकिन आज भी यहां प्रदूषण चेर्नोबिल से कई गुना ज्यादा है.
इस तरह हुई थी शुरुआत
पचास के दशक में सोवियत संघ (अब रूस) परमाणु ताकत के मामले में अमेरिका से पीछे था. शीत युद्ध चल रहा था. इस बीच बराबरी पर आने के लिए उसने काफी जोड़-तोड़ बिठाया. एक खुफिया मयाक प्लांट बनाया गया. उरल पहाड़ों के बीच चेलेबिन्स्क शहर के पास इस प्लांट में जो भी परमाणु कचरा आता था, उसे वहीं स्थित मयाक झील में डाल दिया जाता. ये वो वक्त था, जब रेडियोएक्टिव वेस्ट से निपटने का कोई पक्का तरीका नहीं था और न ही दुनिया इसपर कड़ी नजर रख पाती थी.
शुरू में यह एक सामान्य झील थी, लेकिन पचास के दशक से डंपिंग यार्ड बनते-बनते झील दुनिया की सबसे जहरीली जगह बन गई. साल 1957 में वहां एक बड़ा न्यूक्लियर हादसा हुआ. प्लांट में मौजूद एक रेडियोएक्टिव स्टोरेज टैंक फट गया. धमाका इतना बड़ा था कि बड़ा इलाका दूषित हो गया. लगभग 30 गांवों के हजारों-हजार लोग उस इलाके से निकाले गए.
खुफिया तरीके से हो रहा था काम
यह चेर्नोबिल से लगभग 30 साल पहले की घटना थी, लेकिन सोवियत सरकार ने इसे पूरी तरह गुप्त रखा. दुनिया को इसके बारे में बहुत बाद में पता चला. यहां तक कि लंबे समय तक इसे मयाक हादसा कहा गया, जबकि इस जगह का असल नाम था किश्तिम. झील का नाम भी यही था. सोवियत सरकार ने परमाणु प्लांट के नाम पर जगह का नाम बदलेत हुए यहां का पिन कोड तक नष्ट कर दिया था ताकि किसी को इसका पता न लग सके.
हादसे को तो किसी तरह छिपा लिया गया लेकिन स्थिति इसके बाद भी नहीं सुधरी. 1960 के दशक में झील का पानी सूखने लगा और जो रेडियोएक्टिव कचरा नीचे जमा था, वह धूल बनकर हवा में उड़ने लगा. जब तेज हवा चलतीं तो धूल दूर-दराज तक पहुंच जाती. जल्द ही गांवों के लोग बीमार पड़ने लगे. बेहद सेहतमंद रुटीन वाले लोगों में कैंसर जैसी बीमारियां दिखने लगीं और अचानक मौतें बढ़ गईं.
कितना है वहां पर रेडिएशन लेवल
वैज्ञानिकों ने जब जांच की तो पता लगा कि झील के किनारे रेडिएशन का स्तर 600 रॉन्टगन प्रति घंटा था. इसका मतलब है कि अगर कोई शख्स वहां बिना सुरक्षा के एक घंटे खड़ा रहे, तो उसकी बोन मैरो खत्म हो जाएगी और कुछ ही दिनों में मौत तय है. इसे ही वैज्ञानिक लीथल डोज 100/1h कहते हैं. यानी रेडिएशन की वो मात्रा जो किसी क्षेत्र में मौजूद सारे लोगों को सिर्फ 1 घंटे में खत्म कर सकती है.
सामान्य तौर पर इंसान 1 सीवर्ट (रेडिएशन का असर शरीर पर असर) तक झेल सकता है, लेकिन लीथल डोज 100/1h का मतलब होता है कि वहां रेडिएशन की मात्रा 10 सीवर्ट या उससे कहीं ज्यादा है, जो शरीर की कोशिकाओं, DNA और अंगों को तुरंत नुकसान पहुंचाती है.
नब्बे के दशक में अमेरिकी ऊर्जा विभाग के अधिकारियों ने जब इस जगह के आसपास का दौरा किया, तो उनके पास मौजूद रेडिएशन मापने वाले उपकरण की रीडिंग इतनी तेजी से बढ़ने लगी कि वे झील के पास नहीं जा सके. उन्होंने रिपोर्ट में लिखा कि अगर कोई व्यक्ति वहां थोड़ी देर भी खड़ा रहे, तो मौत हो जाएगी.
चलती रही लीपापोती
सोवियत अधिकारियों ने सच्चाई छिपाने के लिए इससे होने वाली बीमारियों को अलग-अलग कोड नेम दिए, जैसे स्पेसिफिक इफेक्ट या स्पेशल डिजीज़, ताकि लोग समझ न पाएं कि उन्हें रेडिएशन ने बीमार किया है. हालात इतने खराब हो गए कि सोवियत सरकार को आसपास के सारे गांव खाली करवाने पड़े. हजारों परिवारों को जबरन दूर बसाया गया. पूरे इलाके को एक्सक्लूजन जोन घोषित कर दिया गया, जहां आम लोगों को जाने की अनुमति नहीं.
झील की कंक्रीट से भर दिया गया
इलाका तो खाली हो गया लेकिन खतरा अब भी टला नहीं था. हर गर्म और सूखे मौसम में जब हवा चलती थी, तो रेडियोएक्टिव धूल और बादल बन जाते थे, जिससे आसपास के इलाकों में फिर से रेडिएशन फैलने लगता था. इस खतरे को खत्म करने के लिए सोवियत अधिकारियों ने झील को ही पाटने की कोशिश की. उन्होंने उसके बड़े हिस्से को कंक्रीट से ढक दिया. ऊपर से पत्थर और मिट्टी डाल दी गई ताकि जहरीला मलबा नीचे ही बंद रहे. माना जाता है कि यह काम साल 2015 तक चलता रहा.
लेकिन कहते हैं न कि राज हमेशा राज ही नहीं रहता. साल 2017 में रूस से सटे देशों में वैज्ञानिकों ने हवा में अजीब रेडियोएक्टिव आइसोटोप पाया. जब उन्होंने पता करना चाहा तो सबसे नजदीकी सोर्स रूस का मयाक प्लांट निकला. रूस ने तुरंत इससे इनकार कर दिया. लेकिन आज भी वो मयाक के आसपास किसी को जाने नहीं देता. वॉशिंगटन स्थिति रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन वर्ल्डवॉच इंस्टीट्यूट ने इसे दुनिया का सबसे प्रदूषित स्पॉट माना, जहां मौजूद जहर सैकड़ों सालों तक खत्म नहीं होगा.
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