ज्यादातर देशों के सालाना प्रदूषण से कहीं ज्यादा है रूस-यूक्रेन युद्ध में निकला धुआं, फिर क्यों इस पर चर्चा से बचते रहे देश?

पर्यावरण पर काम कर रही एक इंटरनेशनल संस्था के मुताबिक, रूस-यूक्रेन जंग के पहले साल में इतना प्रदूषण हुआ, वह लगभग 175 देशों की सालाना कार्बन उत्सर्जन क्षमता से भी ज्यादा था. यानी इस लड़ाई में सिर्फ जान-माल का नुकसान नहीं हो रहा, बल्कि हर दिन के साथ क्लाइमेट पर संकट गहरा रहा है.

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दो देशों में जंग का कार्बन फुटप्रिंट बेहद ज्यादा होता रहा है. (Photo- Pixabay) दो देशों में जंग का कार्बन फुटप्रिंट बेहद ज्यादा होता रहा है. (Photo- Pixabay)

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 21 अक्टूबर 2025,
  • अपडेटेड 3:58 PM IST

अक्सर त्योहार या किसी इवेंट के मौके पर होने वाले आतिशबाजी को लेकर एक बड़ा तबका नाराज रहता है. प्रदूषण का मुद्दा उठाया जाता है. चिंता किसी हद तक सही भी है, लेकिन यही फिक्र युद्ध की वजह से होने पर प्रदूषण पर एकदम गायब मिलती है. दो देशों की जंग में होने वाला पॉल्यूशन न केवल हवा, बल्कि मिट्टी को भी खराब कर रहा है. यहां तक कि रूस और यूक्रेन को ही लें तो उनकी लड़ाई से निकले धुएं ने बहुत सारे देशों के सालाना कार्बन उत्सर्जन को पार कर लिया. 

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शुरुआत मॉस्को और कीव से करते हैं. अक्सर सरकारें युद्ध में कैजुएलिटी की तो बात करती हैं, लेकिन पर्यावरण पर उसके नुकसान को नजरअंदाज कर दिया जाता है. बहुत सारी जानकारी गोपनीय रहती है, इसलिए रिसर्चर सही आंकड़े नहीं जुटा पाते. वे युद्ध प्रभावित इलाकों में जाकर आंकड़े भी नहीं ले पाते हैं. इसके बावजूद भी कुछ काम हो रहा है जो दिखाता है कि जंग में होने वाला प्रदूषण किस हद तक मारक है. 

इनिशिएटिव ऑन ग्रीनहाउस गैस अकाउंटिंग ऑफ वॉर (IGGAW) एक रिसर्च समूह है, जिसे यूरोपियन क्लाइमेट फाउंडेशन के साथ-साथ जर्मनी और स्वीडन से भी सपोर्ट मिलता है. यह लड़ाइयों से होने वाले प्रदूषण पर काम करता है. 

इसकी रिपोर्ट में कहा गया कि रूस-यूक्रेन युद्ध के पहले दो सालों में हुए ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का असर इतना बड़ा था कि यह ग्लोबल स्तर पर छोटे और मध्यम स्तर के लगभग 175 देशों के वार्षिक उत्सर्जन से भी ज्यादा था. मतलब ऐसे देशों के कुल वार्षिक CO₂ उत्सर्जन को अलग-अलग देखा जाए तो केवल रूस और यूक्रेन में हुई सैन्य गतिविधियों की वजह से पैदा हुई गैसें कहीं ज्यादा रहीं. 

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युद्ध में हमलों ही नहीं, सैन्य मूवमेंट से भी अच्छा-खासा प्रदूषण होता है. (Photo- Pixabay)

रिपोर्ट के अनुसार, रूस के यूक्रेन पर आक्रमण के पहले तीन सालों में लगभग 237 मिलियन टन कार्बन एमिशन हुआ. इसमें कई चीजें शामिल थीं.

- सैन्य गतिविधियां जैसे टैंक, विमान, और अन्य सैन्य उपकरणों का उपयोग. 

- विस्फोट की वजह से शहरों, जंगलों और खेती की जमीन में लगी आग. 

- शरणार्थियों और विस्थापितों की आवाजाही से निकला धुआं. 

अगर 175 छोटे-बड़े देशों को छोड़ दिया जाए तब भी यह उत्सर्जन ऑस्ट्रिया, हंगरी, चेक रिपब्लिक और स्लोवाकिया के जॉइंट सालाना कार्बन उत्सर्जन के बराबर है. युद्ध में कई और जहरीली गैसें भी निकलती हैं, जो ग्लोबल वार्मिंग को और बढ़ा रही हैं. 

रूस ने शुरुआती वक्त में जान-बूझकर एनर्जी इंफ्रास्ट्रक्चर को टारगेट किया. इससे कई तरह की ग्रीनहाउस गैसों का भारी रिसाव हुआ. सबसे बड़ा उदाहरण था नॉर्ड स्ट्रीम-2 पाइपलाइन का नुकसान. जब यह पाइपलाइन खराब हुई, तो मीथेन गैस बड़ी मात्रा में समुद्र में निकली. इससे थोड़ा-बहुत नहीं, बल्कि 1.4 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर उत्सर्जन हुआ. यूक्रेन के हाई-वोल्टेज बिजली नेटवर्क पर रूसी हमलों के कारण सल्फर हेक्साफ्लोराइड गैस निकली, जो बेहद जहरीली होती है. इसका कुल असर लगभग 10 लाख टन जितना था. 

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रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान विस्थापन से भी काफी ज्यादा पॉल्यूशन हुआ.  (Photo- Pexels)

हमास और इजरायल युद्ध में कितना प्रदूषण हुआ

युद्ध ने इतना ज्यादा प्रदूषण फैलाया है जितना 100 देशों ने पूरे साल में भी नहीं किया. द गार्जियन ने पर्यावरण पर काम करने वाले थिंक टैंक एसएसआरएन के हवाले से एक रिपोर्ट की. इसके मुताबिक, इस युद्ध से सिर्फ शुरुआती 15 महीनों में करीब 3.1 करोड़ टन कार्बन उत्सर्जन हुआ. यह कोस्टा रिका और एस्टोनिया, दोनों देशों के पूरे 2023 के संयुक्त उत्सर्जन से भी ज्यादा है. 

युद्ध में किसी भी एकदिवसीय आतिशबाजी से कहीं ज्यादा प्रदूषण होता है. लेकिन इसके लिए किसी की जवाबदेही नहीं. कोई देश बाध्य नहीं, कि वो इससे जुड़ी रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र या कहीं दे. सैन्य गोपनीयता इसकी बड़ी वजह है. हर देश अपनी सेना की ऊर्जा खपत, हथियारों की मूवमेंट, और ईंधन इस्तेमाल को गोपनीयता में रखता है और डेटा को सार्वजनिक करने से बचता है. 

इसके अलावा क्योटो प्रोटोकॉल और पेरिस समझौते में भी कहा गया कि देश चाहें तो सैन्य उत्सर्जन का डेटा दें, लेकिन यह अनिवार्य नहीं है. 

अमेरिका जैसे देशों का रक्षा उद्योग काफी पसरा हुआ है. अगर सैन्य प्रदूषण को देखा जाए तो ऐसे देश ग्लोबल  पॉल्यूटर्स की रैंकिंग में और ऊपर दिखेंगे. उन्हें क्लाइमेट टैक्स देना पड़ सकता है, या फिर प्रतिबंध लग सकता है. यही वजह है कि इस सबजेक्ट को नजरअंदाज किया जाता रहा.

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