इसी साल सितंबर में ऑस्ट्रेलिया में भारी प्रोटेस्ट हुआ. वजह? भारतीय इमिग्रेंट्स पर नाराजगी. ऑस्ट्रेलियाई लोग चाहते हैं कि भारतीय उनके देश से वापस चले जाएं. अमेरिका में डिपोर्टेशन लहर पहले ही चली हुई है. आयरलैंड में कुछ सैकड़ा भारतीय भी निशाने पर रहे. अब लिस्ट में जर्मनी का भी नाम शामिल हो चुका. सऊदी अरब भी इससे बचा हुआ नहीं. भारत आर्थिक तौर पर मजबूत हो रहा है. कई देश उससे कूटनीतिक और सैन्य रिश्ते मजबूत कर रहे हैं, फिर क्यों विदेशों में रहते आम भारतीय डिपोर्टेशन का शिकार हो रहे हैं?
इस कहानी की कई परतें हैं. लेकिन इससे पहले डिपोर्टेशन की लहर को समझते चलें.
इसमें सऊदी अरब टॉप पर है, जहां से बीते पांच साल में सबसे ज्यादा भारतीय डिपोर्ट किए गए. विदेश मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, अमेरिका की बजाए सऊदी ने ज्यादा भारतीयों को देश से निकाला. इसमें साल 2023 में साढ़े ग्यारह हजार से ज्यादा भारतीय डिपोर्ट हुए. वहीं इस साल लगभग सात हजार डिपोर्टेशन हुआ. इसकी तुलना में यूएस से इस साल लगभग साढ़े तीन हजार भारतीय डिपोर्ट हुए.
अब बात करें जर्मनी की, तो वहां बर्लिन में एक यूनिवर्सिटी से भारतीय स्टूडेंट्स को निकाला जा रहा है. इस इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी में 190 देशों से सवा लाख से ज्यादा छात्र पढ़ने आए हुए हैं, जिनमें लगभग साढ़े हजार भारतीय स्टूडेंट हैं. विवाद की जड़ में हाइब्रिड प्रोग्राम हैं, जिनमें ऑनलाइन पढ़ाई को कभी-कभार होने वाली ऑफलाइन क्लासेज के साथ जोड़ा गया.
जर्मनी के अधिकारियों ने इसमें कई अनियमितताएं पाईं. मामले में कोर्ट और बर्लिन इमिग्रेशन अथॉरिटी की भी एंट्री हो गई और माना गया कि इस यूनिवर्सिटी के कई कोर्स जर्मन हिसाब से ऑन कैंपस नहीं हैं. अब स्टूडेंट्स को लौटाया जा रहा है. वैसे तो यह गाज लगभग सारे विदेशी स्टूडेंट्स पर गिरी है लेकिन संख्या में ज्यादा होने की वजह से भारतीय निशाने पर हैं.
सितंबर में ऑस्ट्रेलिया में मार्च फॉर ऑस्ट्रेलिया प्रदर्शन हुआ था, जिसमें लाखों लोग भारतीयों को डिपोर्ट करने की मांग कर रहे थे.
क्यों हो रहा अचानक विरोध
यह किसी खास समुदाय के लिए नहीं, बल्कि ज्यादातर लोगों के लिए है जिन्हें बाहरी माना जा रहा है. कई सालों तक इमिग्रेशन नियम ढीले-ढाले ढंग से लागू होते रहे. अब भीड़ बढ़ चुकी है. देशों के स्थानीय लोग महसूस करने लगे हैं कि बाहरियों की वजह से उनकी नौकरियां और उनके संसाधन बंट रहे हैं. वे विरोध करने लगे. इस विरोध का असर सरकारों तक पहुंचा. अब सरकारें खुद वादा कर रही हैं कि वे फलां टाइमलाइन के भीतर इतनी आबादी को डिपोर्ट कर देंगी और नौकरियों या पढ़ाई में लोकल्स को ही ऊपर रखेंगी.
जहां पहले ओवरस्टे, वीजा शर्तों का हल्का उल्लंघन या दस्तावेजों की कमी पर आंख मूंद ली जाती थी, अब वहीं जीरो टॉलरेंस दिख रहा है. चूंकि भारतीयों की संख्या ज्यादा है, इसलिए कार्रवाई भी बड़ी हुई दिखाई देती है.
स्टूडेंट वीजा लेकर किसी देश में एंट्री लेना और फिर काम खोजकर स्थायी तौर पर रह जाना आम बात थी. ज्यादातर स्टूडेंट्स जाने के बाद वापस नहीं लौटते थे. अब देशों ने साफ कर दिया है कि जिस मकसद से वीजा मिला है, उसी के दायरे में रहना होगा. अमेरिका में स्टूडेंट वीजा के मामलों में, जर्मनी में स्किल वीजा पर और खाड़ी देशों में जॉब-स्पॉन्सर सिस्टम के तहत यही सबसे बड़ा ट्रिगर बना.
अमेरिका में भारतीयों की डिपोर्टेशन का बड़ा हिस्सा सदर्न बॉर्डर से जुड़ा है. कई लोग टूरिस्ट वीजा या एजेंट नेटवर्क के जरिए लैटिन अमेरिका पहुंचे और फिर अवैध तरीके से एंट्री की कोशिश की. अमेरिका, खासकर मौजूदा प्रशासन इसे नेशनल सिक्योरिटी से जोड़ रहा है. ऐसा इसलिए है क्योंकि हाल में लोन वुल्फ अटैक से लेकर कई तरह की आतंकी घटनाएं पूरे वेस्ट में बढ़ी हैं. यह भी वापसी की एक वजह है.
सऊदी अरब और खाड़ी देशों से भारतीयों की वापसी की एक बड़ी वजह वहां चल रही नेशनलाइजेशन पॉलिसी है. जैसे सऊदी को ही लें तो वहां सऊदीकरण जोरों पर है. यानी नौकरी में अपने लोगों को ऊपर रखा जाएगा. जिन सेक्टरों में सालों से भारतीय और दूसरे विदेशी काम कर रहे थे, वहां अब स्थानीय लोगों को प्राथमिकता दी जा रही है, इसलिए कइयों के कॉन्ट्रैक्ट रिन्यू नहीं हो रहे और वे वापस लौटाए जा रहे हैं.
क्या भारतीयों के खिलाफ नाराजगी इसलिए बढ़ रही है क्योंकि वे ज़्यादा काबिल हैं या बेहतर ओहदों पर पहुंच गए हैं, खासतौर पर अमेरिका में. यह सवाल भी अक्सर उठता रहा. मामला काबिलियत से ज्यादा दिखाने देने से जुड़ा हुआ है. सिलिकॉन वैली में भारतीय लीडरशिप रोल में तो हैं ही, लेकिन बाकी लेवल्स पर भी इंडियन प्रोफेशनल काफी हैं. अमेरिका में फिलहाल आर्थिक दबाव दिख रहा है. ऐसे में अच्छी नौकरियां बाहरी लोग ले जा रहे हैं, जैसी बातें सुनाई देती हैं. यही वजह है कि इंडियन इमिग्रेंट्स निशाने पर दिख रहे हैं.
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