ये किस नशे की गिरफ्त में फंस गए इरफान खान!

'अबे ओए...क्या कर रहे हो? हां हां! तोडऩा मत मांझा, तोडऩा मत...छोड़, छोड़ ना...'लंबे उलझे-बिखरे बाल. आंखों पर नजर और धूप का दो परतों वाला चश्मा. आंखें नीले-धुले आसमान में ऊंची उड़ती काली-सफेद पतंग पर. दोनों हाथ कभी धीमे-धीमे कभी एकदम तेज डोर ढीलने-तानने में व्यस्त. अरे! ये तो अभिनेता इरफान हैं.

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इरफान खान इरफान खान

आदर्श शुक्ला

  • जैसलमेर,
  • 04 जनवरी 2016,
  • अपडेटेड 11:36 PM IST

'अबे ओए...क्या कर रहे हो? हां हां! तोडऩा मत मांझा, तोडऩा मत...छोड़, छोड़ ना...' लंबे उलझे-बिखरे बाल. आंखों पर नजर और धूप का दो परतों वाला चश्मा. आंखें नीले-धुले आसमान में ऊंची उड़ती काली-सफेद पतंग पर. दोनों हाथ कभी धीमे-धीमे कभी एकदम तेज डोर ढीलने-तानने में व्यस्त. अरे! ये तो अभिनेता इरफान हैं. दिसंबर की कुनकुमाती सर्दी की इस शाम यहां जैसलमेर में! उतरते सूरज की चमक अब भी आंखों पर तेज पड़ रही है. 'बचपन से ही आदत पड़ गई है.'

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जब सारा ध्यान ध्यान पेंच लड़ाने पर हो तो चौंधियाते सूरज की भी किसे फिकर है? 'कब आए आप?' वे पूछते हैं. 'विजय (उनके एक सहायक), यार पकडऩा जरा.' डोर उन्हें पकड़ाकर वे स्कॉटलैंड से मंगाए गए सिगरेट के पारदर्शी रैपरों के पैकेट में से एक निकालते हैं. रोल करके उसमें स्कॉटिश तंबाकू भरते हैं, एक सिरे पर फिल्टर रखते हैं, थूक से चिपकाते हैं, लाइटर से जलाकर कश लेते हैं और फिर मांझा संभालते हैं. 'बड़ी देर से उलझाए हुए था.' किस्सा फिल्म से मशहूर हुए निर्देशक अनूप सिंह की फिल्म सांग ऑफ द स्कॉर्पियॉन की महीने भर से ज्यादा समय से रेगिस्तानी इलाकों में चल रही शूटिंग के लिए फिल्म क्रू ने जैसलमेर के होटल गोल्डेन हवेली में डेरा डाला हुआ है. उसी में इस शुक्रवार को छुट्टी रखने का फैसला हुआ है.

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छुट्टी है सो, देर से सोकर उठने के बाद खाना-वाना खाकर, शहर से 15-20 पतंगें मंगाकर वे दो मंजिला होटल की छत पर जम गए हैं. वहां से एक ओर पीले बलुए पत्थर का ऊंचा जैसलमेर फोर्ट और दूसरी ओर मीलों तक फैले ऊबड़-खाबर मैदान में जमें प्रतिद्वंद्वी पतंगबाज लडक़े. उन्हीं में से एक के उनकी पतंग का मांझा पकड़ लेने पर वे थोड़ी देर पहले बच्चों की तरह झगड़ रहे थे. 'इनको भी हमने लत लगा दी है. शाम को अब ये आकर यहीं जम जाते हैं.' उन्हीं को नहीं, अब तो मुंबई से आए, टीम के कई लोग भी उनके लगाए इस नशे के शौकीन हो गए हैं.

एक अंतराल के बाद वे हल्की-सी, एक सुकून भरी मुस्कान के साथ बोलते हैं, 'दिन छोटा लगने लगता है. बच्चा बनने को इससे अच्छा और कुछ नहीं.' इस बीच वे छत पर ही बनी-बनाई चाय लाने के लिए कह चुके हैं. पलटकर वे एकाएक पूछते हैं, 'आपने यहां की भांग की लस्सी पी? बहुत अच्छी मिलती है.' मेरे संकोच को समझने के बाद वे अपने अंदाज में चुटकी लेते हैं, 'आप सोच रहे होंगे, अच्छा नशेड़ी बनाए दे रहा है साला...हा हा हा हा. जयपुर में संकरातों (मकर सक्रांति) पर पतंगें उड़ती हैं.' फिर जैसे यथार्थ में लौटते हुए, 'अब तो लौंडे कंप्यूटर में लगे पड़े हैं .'

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इसी दौरान एक पतंग की कन्नी टूट जाने पर वे अपने एक दूसरे सहायक इकबाल को टूथपिक लाने के लिए कहते हैं. कन्नी के आसपास ऊपर-नीचे चार छेद करके पूरी एकाग्रता के साथ सद्दी डालकर उसे बांधते हैं और धीरे-धीरे आसमान में पहुंचाकर उसी से 3-4 पतंगें काटते हैं. ऊपर आसमान में ही मांझा देकर एक कौवे के एकाएक रास्ता बदल देने पर वे हंस पड़ते हैं. 'साले बड़े होशियार होते हैं. पता नहीं कैसे दिख जाता है इनको. बस इनकी आवाज ही कर्कश होती है. आपको पता है? सुबह-शाम ये झुंड के झुंड निकलते हैं यहां.' मैं बताता हूं कि अलसुबह ट्रेन से उतरकर आते वक्त मैंने भी सैकड़ों कौवों का कलरव सुना था. 

बीच-बीच में सेना के लड़ाकू विमान भी उड़ाने भर रहे हैं. जल्द ही यहां सेना का एक बड़ा शांति प्रदर्शन होने वाला है. सेना का एक हेलीकॉप्टर इस बीच काफी नजदीक से गुजरता है. 'काट न दे साला!' कहकर वे खिलखिला देते हैं. धीरे-धीरे अंधेरा उतरने लगा है. चरने गया बकरियों का एक रेवड़, लौटते हुए, आधा घंटा पहले काफी दूर दिख रहा था. अब वह एकदम नजदीक आ पहुंचा है. ''वॉऊ, सो ब्यूटीफुल.' थोड़ी देर पहले मगरिब की नमाज के सुर गूंज रहे थे. अब शहर के मशहूर गड़सीसर तालाब की ओर के मंदिरों में ढोल और मंजीरे बज रहे हैं. चाय का दो दौर हो चुका है.

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पतंगबाजी और बीच-बीच में कुछ गंभीर बातों के इस कई घंटों में फैले वक्फे के बीच वे 7-8 बार हाथ से सिगरेट बनाकर पी चुके हैं. इस बनाने को भी उन्होंने एक कला बना डाला है. और कौवों का शायद यह आखिरी झुंड भी शोर मचाता, रेलवे स्टेशन की तरफ के अपने बसेरों में जा रहा है. कुर्सी पर बैठते हुए उनके मुंह से निकल पड़ता है, 'बताइए, अब बॉम्बे में यह सब कहां मिलेगा. मेरा तो यहां से जाने का जी नहीं कर रहा. ऐसा खुला आसमान.'

अब मुंडेर के नीचे, मैदान की तरफ, एक छोटा लडक़ा करीब आकर नीचे से आवाज लगाते हुए एक पतंग मांग रहा है. इस बीच मैदानी लडक़ों में से एक ने इरफान की कटी पतंग का मांझा पकड़ लिया है. वे छोटे लडक़े से कहते हैं, 'पहले उससे बोल मांझा छोडऩे को.' इन लडक़ों को बिल्कुल अंदाजा नहीं कि पतंगबाजी का इतना तगड़ा नशा रखने वाला यह शख्स आखिर है कौन . वे तो बस काटने और कट जाने का मजा ले रहे हैं.

पतंग कटने पर लूटने के लिए लड़कों का झुंड एक-एक किलोमीटर तक पतंग के पीछे भागता चला जाता है. सूरज काफी पहले डूब चुका है. किला रोशनी से नहा उठा है. दूर दिखती पवन चन्न्कियों के पंखे भी अब ओझल हो चुके हैं. लेकिन नीचे लडक़े मैदान से हटने को तैयार नहीं. इरफान फिर एक कश खींचते हैं. मुंह से धुएं के साथ एकाएक निकलता है: 'स्साला, क्या नशा है ये पतंगबाजी भी!'

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