जब सीमा पाहवा ने थिएटर की वजह से आईफा अवॉर्ड्स वालों को कर दिया नाराज

थिएटर व बॉलीवुड इंडस्ट्री की दुनिया में सीमा भार्गव पाहवा एक जाना पहचाना नाम हैं. सीमा को यह बात स्वीकारने में कोई झिझक नहीं है कि फिल्मों से ज्यादा थिएटर में उनकी दिलचस्पी रही है. वर्ल्ड थिएटर डे के मौके पर सीमा हमें थिएटर से जुड़े कुछ दिलचस्प किस्से सुनाती हैं.

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सीमा पाहवा सीमा पाहवा

नेहा वर्मा

  • मुंबई,
  • 27 मार्च 2023,
  • अपडेटेड 12:07 PM IST

सोशल मीडिया पर एक्ट्रेस सीमा भार्गव पाहवा ने वर्ल्ड थिएटर डे के मौके पर थिएटर्स से जुड़ी अपनी कई सारी पुरानी तस्वीरें शेयर की हैं. बता दें सीमा पाहवा का थिएटर में आना संयोग नहीं बल्कि फैमिली लिगेसी को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी थी. दरअसल सीमा की मां सरोज भार्गव मशहूर थिएटर आर्टिस्ट्स रही हैं. उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन के लिए अभिनय किया है. सीमा बताती हैं, एक्टिंग की कला उन्हें विरासत में मिली है. एक्टिंग में आने से पहले उन्हें पता भी नहीं था कि उन्हें इस फील्ड में आना भी है या नहीं. 

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आजतक डॉट कॉम से एक्सक्लूसिव बातचीत में सीमा पाहवा बताती हैं, थिएटर मेरे लिए सांस लेने जैसा है. हालांकि मैंने कभी थिएटर व एक्टिंग में आने की प्लानिंग की थी. दरअसल मां से मुझे यह विरासत में मिला है. बचपन में ही मुझे ऑडिशन दिलाकर मेरी एंट्री करा दी गई थी. इसके बाद कभी सोचने का वक्त ही नहीं मिला, मैं बस नाटक दर नाटक करती चली गई. पहले तो ऐसा लग रहा था कि कोई फैमिली बिजनेस चला रही हूं, लेकिन बाद में यही थिएटर एक्टिंग मेरा जुनून सा बनता चला गया. उस वक्त ये एहसास हुआ कि यार इसमें तो मुझे विविधरंगी लोगों की जिंदगी को जीने का मौका मिल रहा है, हर तरह के इमोशन को इमोट कर पा रही हूं. ऐसा काम तो और किसी फील्ड में संभव ही नहीं है. 

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बता दें, सीमा एक्टिंग फ्रंट से हटकर डायरेक्शन और लेखन में मशगूल हैं. 'रामप्रसाद की तेरहवीं' की सक्सेस के बाद सीमा ने इन दिनों जी थिएटर्स के लिए एक प्ले 'कोई बात चले', लिखा है. इसे वो डायरेक्ट भी कर रही हैं. इस प्ले की खास बात यह है कि इसमें हिंदी जगत के मशहूर लेखक हसन मंटो, मुंशी प्रेमचंद, हरि शंकर परसाई की कहानियों का समायोजन है. अपने दौर के थिएटर के दिनों को याद करते हुए सीमा कहती हैं, पैसे तो आज भी नहीं हैं और पहले भी नहीं हुआ करते थे. लेकिन एक पैशन होता था, जिसने हमें मुफलिसी में भी काम करना सिखाया है. यकीन मानों कई बार प्ले के लिए हम अपने घर से या आस पड़ोस से कपड़े मांगकर लेकर जाते थे. मेकअप भी खुद ही कर लिया. लेकिन जो संतुष्टि मिलती थी, उसके सामने पैसे मायने रखते ही नहीं हैं. थिएटर के कभी दर्शक बन ही नहीं पाए हैं, उनका यह संघर्ष लगातार जारी है. हमारे थिएटर की यह बहुत बड़ी ट्रैजिडी है. 

अपने जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा थिएटर को समर्पित कर चुकी सीमा बताती हैं, कई बार थिएटर और फिल्में दोनों में से एक चुनने की चुनौतियां रही हैं. थिएटर एक लंबा कमिटमेंट मांगता है. कम से कम एक महीने तो आपको शोज को देने हैं. कई बार फिल्म शोज के बीच पड़ जाती थीं, तो मुझे मना करना पड़ जाता था. मैंने कितने आइकॉनिक रोल्स केवल थिएटर के लिए छोड़े हैं. एक बार की बात है, आईफा अवॉर्ड फंक्शन में पहली बार मेरे दो-दो नॉमिनेशन थे. थाइलैंड में हो रहे उस अवॉर्ड फंक्शन में जाने को लेकर मैं खासी उत्साहित भी थी. फिर पता चला कि पृथ्वी थिएटर में उसी वक्त मेरा एक प्ले है. मुझे उन्हें मना करना पड़ा. आप लोगों को जानते ही हैं, अगर यहां आप किसी चीज को मना कर दो, तो वे नाराज भी हो जाते हैं. थिएटर के लिए ये खामियाजा भी भुगतना पड़ा है.

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