पिता-बेटे के उलझे हुए रिश्तों की एक ऐसी कहानी, जहां मां सबसे ज्यादा सरप्राइज करती है. पृथ्वीराज सुकुमारन, काजोल और इब्राहिम अली खान स्टारर 'सरजमीं' जियो-हॉटस्टार पर स्ट्रीम हो रही है. फिल्म को कायोजे ईरानी ने डायरेक्ट किया है. वहीं धर्मा प्रोडक्शन्स और स्टार स्टूडियोज ने मिलकर इसे प्रोड्यूस किया है. तो अब बिना देरी किए इस ड्रामा फिल्म की कहानी क्या है और ये अपने पैमानों पर कितनी खरी उतरी है, आइये हम आपको बताते हैं.
क्या कहती है कहानी?
बात बिल्कुल साफ है- जैसे हर फौजी पिता चाहता है कि उसका बेटा उससे भी बड़ा अफसर बने, सबसे तेज-तर्रार हो, लोग उसे देखें तो बस कहें, 'वाह, देखो ये फलाना का बेटा है. पिता से भी आगे निकलेगा.' ऐसी ही कुछ पृथ्वीराज सुकुमारन यानी कर्नल विजय मेनन भी चाहते हैं. लेकिन उनका बेटा इब्राहिम अली खान यानी हरमन मेनन इससे बिल्कुल उलट है. उनमें जरा-सा भी सेल्फ-कॉन्फिडेंस नहीं है, वो हकलाते भी हैं. वहीं एक मां हैं काजोल यानी मेहेर जो बेटे के प्यार में सब कुछ भूल बैठी हैं. वो बस उसे प्रोटेक्ट करना चाहती है.
अब इस सोच के साथ कि मेरा बेटा कमजोर है विजय हरमन से ठीक से बात तक नहीं करता, बल्कि पब्लिकली उसे बेटे पर शर्म भी आती है. वहीं मां हर पल इसी कोशिश में है कि बाप-बेटे का रिश्ता सुधार सके. लेकिन इसी बीच विजय दो आतंकियों को पकड़ता है, जिसे छुड़ाने के लिए आतंकवादी बेटे को किडनैप कर लेते हैं. और बस यहीं से शुरू होती है भावनाओं की खींचतान.
आप पिता बने पृथ्वीराज सुकुमारन के इमोशन्स से पार पा ही रहे होते हैं कि फिल्म के क्लाईमैक्स में मां के रोल में काजोल ऐसा ट्विस्ट ला देती हैं कि वाकई हैरानी होती है. सेकेंड हाफ में हरमन एक सिक्स पैक ऐब्स वाला आतंकवादी बन चुका है लेकिन कर्नल विजय आराम से उसे घर ले आता है, मां उसकी देखभाल करती है. विजय को बेटे पर शक है लेकिन खुद आर्मी के साथी उसे ऐसा करने से रोकते हैं.
दो पहलुओं पर टकराती है फिल्म
अब कहानी तो देखिए इतनी सी है लेकिन इसमें देशभक्ति और देश की आर्मी के काम करने का तरीका, या यूं कहें कि एथिक्स पर पूरी तरह से झूलती नजर आती है. इस फिल्म को देखने के दो पहलू हैं- अगर आप भावनाओं का अंबार लाकर देखेंगे तो आपको पिता-बेटे का ये रिश्ता और मां का त्याग अच्छा-सा लग सकता है. लेकिन वहीं अगर आप सोचेंगे कि देशभक्ति बेस्ड फिल्म है- तो आप खुद को ठगा-सा महसूस करेंगे. आपको लग सकता है कि कब, क्या कैसे, कुछ भी हो रहा है. आर्मी में ऐसे थोड़े-ना होता है. खैर, मेकर्स ने खुद भी इसे देशभक्ति की कैटेगरी में नहीं डाला है, वो तो बस हिंट लेकर चल रहे हैं. तो जाने दीजिए.
फिल्म की कहानी साफ है, लेकिन अपनी गहराई में नहीं जा पाई है. कुछ सीन्स आपको भावुक कर देते हैं, तो अगले ही पल आप खुद को ये सोच कर मना लेंगे कि फिल्म में कुछ भी दिखाते हैं. कायोजे का डायरेक्शन भी ठीक है, लेकिन बीच-बीच में फिल्म की पकड़ बेहद ढीली पड़ती दिखती है.
काजोल-पृथ्वीराज के कंधों पर टिकी फिल्म
एक चीज जिसकी आप तारीफ करेंगे वो है कास्ट की एक्टिंग, कहीं-कहीं के ओवर ड्रामाटिक सीन्स को छोड़ दें तो पृथ्वीराज सुकुमारन, काजोल और यहां तक कि इब्राहिम भी अच्छे लगते हैं. नादानियां से डेब्यू करने वाले इब्राहिम यहां थोड़े बेहतर नजर आते हैं. पर उनकी शुरुआत है तो जाहिर है उन्हें अभी अपने ऊपर बहुत काम करना है. वहीं पिता की मजबूरी और देश की सुरक्षा में तैनात विजय के किरदार से पृथ्वीराज भी पूरी जस्टिस करते हैं. काजोल हर बार आपको हैरान करती हैं- इसमें कोई डाउट नहीं है. वहीं फिल्म के साइड कैरेक्टर्स की बात करें तो मिहिर आहूजा, जितेंद्र जोशी भी अपने किरदार में सधे हुए हैं.
फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर और म्यूजिक भी फिल्म के हिसाब से है, जिसे कहानी के साथ आराम से डाइजेस्ट किया जा सकता है. फिल्म की कहानी कश्मीर की वादियों की बात करती है लेकिन इसकी शूटिंग हिमाचल प्रदेश में मंडी के एक छोटे-से गांव झाना में हुई है. कुल मिलाकर फिल्म को देखने का मन बना रहे हैं तो देख लीजिए, लेकिन हमारी एडवाइस कहती है कि ज्यादा उम्मीदें मत बांधिएगा.
आरती गुप्ता