Me No Pause Me No Play Review: महिलाओं की अनकही तकलीफ दिखाती काम्या पंजाबी की फिल्म, खास है मैसेज

'Me No Pause Me Play' एक ऐसी फिल्म है जो महिलाओं की उस समस्या के बारे में बात करती है जिसका जिक्र तक अनमने तरीके से किया जाता है. फिल्म बताती है कि उम्र के साथ आने वाली इस कंडीशन के साथ कैसी समस्याएं जन्म लेती हैं. तो कैसा है इस फिल्म का ट्रीटमेंट बताते हैं आपको हमारे रिव्यू में...

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 मी नो पॉज मी प्ले रिव्यू (Photo: Screengrab) मी नो पॉज मी प्ले रिव्यू (Photo: Screengrab)

आरती गुप्ता

  • नई दिल्ली,
  • 30 नवंबर 2025,
  • अपडेटेड 7:08 PM IST
फिल्म:ड्रामा
3/5
  • कलाकार : काम्या पंजाबी, दीपशिखा नागपाल, मनोज कुमार शर्मा
  • निर्देशक :समर के मुखर्जी

भारतीय सिनेमा में जहां ज्यादातर कहानियां रोमांस, हिंसा, पारिवारिक ड्रामा या युवा पीढ़ी की दिक्कतों के इर्द-गिर्द घूमती हैं, वहीं Me No Pause Me Play एक ऐसा सब्जेक्ट उठाती है, जिस पर शायद ही कभी बात होती है. जो कि है- मेनोपॉज. ये वो पड़ाव है जिसे हर महिला अपने जीवन में झेलती है, लेकिन समाज इसे न तो समझता है और न ही इस पर खुलकर बातचीत करता है. यही वजह है कि ये फिल्म अपने टॉपिक की वजह से ही अपने आप में खास और जरूरी बन जाती है.

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कैसा है कहानी का प्रेजेंटेशन

फिल्म की कहानी डॉली खन्ना यानी काम्या पंजाबी की लाइफ पर बेस्ड है. जो उम्र के एक ऐसे पड़ाव से गुजरती है- जहां मेनोपॉज की समस्या जन्म लेती है. हर महिला को होने वाली इस कंडीशन में वो एक ऐसी 'रेयर' कंडीशन से जूझती है- जहां वो चलने, खाने-पीने, शरीर में कई बदलाव- जैसे बाल झड़ना तक की दिक्कतों से लड़ती है. उसकी हालत इतनी गंभीर है कि वो अस्पताल में एडमिट है. 

वो एक ऐसी साधारण, रिश्तों को संभालकर रखने वाली महिला है, जिसकी दुनिया अचानक इमोशनल टर्मॉइल यानी भावनात्मक उतार-चढ़ाव, चिड़चिड़ापन, डर, भ्रम और अकेलेपन से भर जाती है. काम्या ने डॉली के कैरेक्टर को बहुत ईमानदारी से जिया है. उनकी आंखों की थकावट, बदली हुई भावनाएं और अंदर चल रहा संघर्ष कहानी को सच्चाई से जोड़ देते हैं.

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भले ही फिल्म फीमेल सेंट्रिक है लेकिन कहना गलत नहीं होगा कि, डॉली के पति रजत (मनोज कुमार शर्मा) फिल्म के अहम किरदार हैं. अक्सर फिल्मों में पति को या तो हीरो बनाकर दिखाते हैं या खलनायक, लेकिन इस फिल्म में रजत एक रियल पति की तरह दिखाई देते हैं- कभी समझते हुए, कभी उलझते हुए, और कभी हारकर फिर कोशिश करते हुए. पत्नी से कंडीशन से अनजान वो भटकने भी लगते हैं लेकिन डॉक्टर से पड़ा एक चांटा उन्हें होश में ले आता है. 

डॉ. जसमोना यानी दीपशिखा नागपाल कहानी की वो कड़ी हैं, जो डॉली को न सिर्फ मेडिकल समझ देती हैं, बल्कि भावनात्मक सहारा भी बनती हैं. इस तरह तीनों किरदारों के बीच एक खूबसूरत, गहरा और इंसानी रिश्ता बनता है, जो काफी सच्चा-सा लगता है.

फिल्म का ट्रीटमेंट 

जाहिर है कि ये एक छोटे बजट की छोटी सी फिल्म है. लेकिन इसने काम बड़ा कर दिखाया है. निर्देशक समर के. मुखर्जी का काम यहां खास तारीफ के काबिल है. उन्होंने टॉपिक को ओवरड्रामैटिक या ओवरएक्टिंग का मैदान नहीं बनाया. कहानी बिल्कुल जमीन से जुड़ी, सरल और सहज अंदाज में आगे बढ़ती है. डायलॉग और स्क्रीनप्ले शकील कुरैशी का है इन्होंने भी बढ़िया काम किया है.

मेनोपॉज जैसे निजी सब्जेक्ट को बिना किसी असहजता, ग्लैमर के बेहद संवेदनशीलता से दर्शाया गया है. कई सीन्स में दर्शक खुद को डॉली की जगह महसूस कर सकेंगे और यहीं डायरेक्टर पास हो गए हैं.

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लाइट्स-कैमरा-एक्शन

काम्या पंजाबी ने फिल्म को कंधों पर उठाया है. उनकी छवि वैसे भी एक बिंदास और बेबाक एक्ट्रेस की है, वो फिल्म में भी इस पर खरी उतरती हैं. मनोज कुमार शर्मा की एक्टिंग ऐसे है जैसे किसी पति की होती है, जो आपको उनसे नफरत और प्यार दोनों करने पर मजबूर करती है. वहीं, दीपशिखा नागपाल और अमन वर्मा भी अपने-अपने किरदार में सधे हुए नजर आते हैं.

फिल्म का म्यूजिक बहुत खास नहीं लेकिन फिल्म से रिलेट करता है. वो कहानी को सपोर्ट करता है, उसे दबाता नहीं. कैमरा वर्क में क्लोज-अप्स पर ज्यादा फोकस किया गया है, जिससे इमोशन्स साफ झलकती हैं. फिल्म बहुत जल्दबाजी में आगे नहीं बढ़ती है, ना ही अपने ट्रैक से भटकती है. 

फिल्म क्यों देखें?

ये फिल्म केवल कहानी नहीं, बल्कि एक वाद-विवाद के दौर को शुरू करती है, जिसमें महिलाओं की सेहत पर, उम्र बढ़ने पर, सम्मान पर, और उन भावनाओं पर जिनके बारे में शायद ही कभी बात होती है. जो ऑडियन्स हाई फाई कास्ट और लोकेशन्स से हटकर सिर्फ अच्छी कहानी में विश्वास करते हैं उनके लिए ये फिल्म जरूर देखने लायक है.

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