धर्मेंद्र... इंसानियत को ताकत और इमोशन को एक्शन देने वाला 'हीमैन'

धर्मेंद्र नहीं रहे. एक आइकॉन, एक लेजेंड और एक सुपरस्टार धर्मेंद्र. पिछले दिनों जब वो बीमार पड़े थे तो पूरे देश के सिनेमा प्रेमी उनके लिए दुआएं मांगते दिखे. जनता में उनके लिए इतना प्यार क्यों था? क्यों वो इतने बड़े आइकॉन थे? आज जब धर्मेंद्र हमारे बीच नहीं हैं, तो इस सवाल का जवाब बहुत जरूरी हो जाता है.

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एक लेजेंड, एक आइकॉन, एक सुपरस्टार... धर्मेंद्र  (Photo: ITG archive) एक लेजेंड, एक आइकॉन, एक सुपरस्टार... धर्मेंद्र (Photo: ITG archive)

सुबोध मिश्रा

  • नई दिल्ली ,
  • 24 नवंबर 2025,
  • अपडेटेड 5:41 PM IST

धर्मेंद्र के बारे में आप किसी भी इंडियन सिनेप्रेमी से बात कीजिए... आपको उसकी बातों में धर्मेंद्र के लेकर एक लगाव, एक तरह की आत्मीयता अपने आप नजर आने लगेगी. संभव है बात करते-करते उनकी किसी फिल्म, या सीन या बात का मजाक भी बन जाए मगर उसमें कभी धर्मेंद्र के लिए अपमान या चिढ़ का भाव नहीं मिलेगा. ये विशुद्ध ऑरा है, जलवा है और भौकाल है. 

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कभी-कभी यंग फिल्म लवर्स को ये चीज नहीं समझ आती. कभी-कभी तो उन्हें भी नहीं समझ आती जो धर्मेंद्र से इतना प्यार करते हैं. कहते हैं... प्यार तो प्यार होता है, उसके पीछे कोई लॉजिक नहीं होता, बस मैजिक होता है. मगर फिर भी दुनिया आपसे प्यार की वजह पूछने से भला कब बाज आती है! इसी तरह धर्मेंद्र से जनता के प्यार की भी कुछ जायज वजहें हैं... 

पिक्चर में नए हीरो की एंट्री 
धर्मेंद्र की फिल्मों में एंट्री 1950 के दशक के एकदम अंत में होती है. इस दौर में राज कपूर, देव आनंद, दिलीप कुमार जैसे स्टार हिंदी सिनेमा पर राज कर रहे थे. मगर इन सबका अपना-अपना एक जोन था. राज कपूर की फिल्मों में सोशलिस्ट मैसेज का बोलबाला था और समाज सुधार की बातें थीं. दिलीप कुमार के एंटरटेनमेंट का ब्रांड सीरियस था. वो ट्रेजेडी किंग हो चले थे और गंभीर ड्रामा वाली फिल्मों का चेहरा थे. देव आनंद एक शहरी अंदाज वाले, लेटेस्ट फैशनधारी और स्टाइलिश हीरो थे. इस तिकड़ी का सिनेमा, आजादी के वक्त देखे गए सपनों और एम्बिशन की अलग-अलग साइड दिखाने पर बेस्ड था. 

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मगर अपनी नई पहचान में सहज होता देश इंडस्ट्रीज और आगे बढ़ने की एक्टिविटीज पर फोकस कर रहा था. वो मेहनतकशों का दौर था. रोज थक रहे लोगों को सिनेमा में आदर्शवाद, सोशल मैसेज की लेक्चरबाजी और भारी भरकम ड्रामा से ज्यादा एंटरटेनमेंट की तलाश थी. एंट्री होती है धर्मेंद्र की. उन्होंने इस तिकड़ी के बीच वो जगह बनाई, जहां आम दर्शक खुद को देख सके— हीरो जो मेहनतकश है, गुस्सा भी खूब करता है, और हंसता भी खुलकर है. ये हीरो बड़े पर्दे का आदर्श नायक नहीं था. ये बड़े पर्दे पर जनता का प्रतिनिधि था. पंजाब से आए इस देसी लड़के की बॉडी लैंग्वेज रॉ थी. उसके एक्सप्रेशंस में सिनेमाई अभ्यास से गढ़ी हुई शालीनता नहीं थी. उसमें अक्खड़पन और अल्हड़पन था. 

मास सिनेमा की खोज से पहले का असली मास हीरो 
1950–60 के दशक का हिंदी सिनेमा ज्यादातर शहरी किस्म का था. हीरो कोट-पैंट पहनते थे. उनकी बातों में अंग्रेजी के शब्द ऐसे ही टपक पड़ते थे और वो बड़े शहरों में रहते थे. मगर धर्मेंद्र जब स्क्रीन पर आए, तो उनके साथ मिट्टी की महक भी आई. ये एक किस्म की 'रूरल रियलिटी' थी जिसका चेहरा धर्मेंद्र थे.

'मेरा गांव मेरा देश', 'सत्यकाम', 'अनुपमा', 'धरम वीर' जैसी फिल्मों में उनका देहातीपन नकली नहीं लगता था. वो उनका सहज स्वभाव था.
उनके लहजे, डायलॉग और अदायगी में वो भारत झलकता था जो सिनेमा में कम दिखता था, मगर थियेटरों में टिकट खूब खरीदता था. और इसके साथ आया धर्मेंद्र का एक्शन. धर्मेंद्र के आने से पहले फिल्मों में एक्शन सीन डेकोरेशन थे. धर्मेंद्र ने इसे इमोशन बनाया. पहले एक्शन सिर्फ स्टंट था, धर्मेंद्र के आने के बाद वो अन्याय करने वालों का दंड बन गया. 

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धर्मेंद्र का हीरो लड़ता है क्योंकि किसी ने उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाई. किसी बेबस को सताया, या किसी रिश्ते से विश्वासघात हुआ. उनका घूंसा दर्शकों को कैथार्सिस देने लगा. जो गुस्सा एक आम आदमी ने अपनी मजबूरियों में समेट कर मन के बक्से में लॉक कर दिया, स्क्रीन पर धर्मेंद्र ताले तोड़कर उसे आजाद कर रहे थे. और सबसे बड़ी बात थी कि उनके मजबूत शरीर के साथ ये एक्शन फबता था. 

उनके फाइट सीन्स पर यकीन किया जा सकता था. धर्मेंद्र के एक्शन में डिजाइन किए स्टंट्स से ज्यादा रॉ पावर दिखती थी. इमोशंस के साथ मिलाकर उन्होंने एक्शन को इंसानियत दी थी. उनका हीरो हिंसा कर तो रहा था, मगर अन्याय को न्याय में बदलने के लिए. यही धर्मेंद्र का गरम-धरम अवतार था, जिसने इंडियन सिनेमा में क्लास के वो दरवाजे तोड़े, जिनसे आगे चलकर 'एंग्री यंगमैन' की एंट्री हुई. 

'फूल और पत्थर' से उनका ये अंदाज शुरू हुआ. फिर 'जब याद किसी की आती है', 'इज्जत', 'शिकार' और 'आंखें' से होता हुआ 'मेरा गांव मेरा देश' तक पहुंच गया. जब इंडियन सिनेमा की डिक्शनरी में 'मास सिनेमा' शब्द आया भी नहीं था, तब धर्मेंद्र असली मास हीरो बन चुके थे. उनकी फिल्में दिल्ली-मुंबई ही नहीं, जबलपुर-अकोला-गोरखपुर जैसे छोटे शहरों में हफ्तों चलती थीं. बी और सी सेंटर्स में उनकी कई फिल्में हर साल बक्से से निकालकर लगा दी जाती थीं. थिएटर्स की अकाउंट बुक्स में प्रॉफिट बराबर बना रहता था. 

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एक फायदा इस बात का भी हुआ कि 60 के दशक में फिल्म प्रदर्शन का व्यापार बड़े-छोटे शहरों से होता हुआ, कस्बों और दूर-दराज के गांवों के पास पहुंचने लगा था. फिल्म लवर्स की एक पूरी पीढ़ी के लिए धर्मेंद्र बड़े पर्दे के पहले यंग हीरो थे. इस पीढ़ी के लिए देव आनंद, दिलीप कुमार और राज कपूर जैसे एक्टर्स पिछली पीढ़ी के हीरो थे.

कम्प्लीट हीरो पैकज की शुरुआत 
'दिल भी तेरा हम भी तेरे', 'शोला और शबनम', 'अनपढ़' और 'बंदिनी' जैसी फिल्मों से धर्मेंद्र सॉफ्ट रोमांटिक किरदारों में आए थे. 'सत्यकाम', 'मंझली दीदी' और 'अनुपमा' जैसी फिल्मों में उनका सीरियस एक्टिंग टैलेंट निखर कर आया. और फिर एक्शन में तो कोई उनका हाथ पकड़ ही नहीं सका. और उनकी कॉमिक टाइमिंग तो इतनी नेचुरल थी कि सीरियस ड्रामा फिल्मों में एक-आध लाइन से ही माहौल बन जाता था. बाद में ये टैलेंट 'चुपके चुपके' जैसी आइकॉनिक कॉमेडी फिल्म में भी उतरा. 

मगर 'मेरा गांव मेरा देश' की ब्लॉकबस्टर कामयाबी के बाद धर्मेंद्र उस शिखर पर थे जहां उनके लिए कहानियां डिजाइन होने लगीं. फिल्ममेकर्स का टारगेट था ऐसी कहानियां लाना जो धर्मेंद्र के हर रंग को पूरी ग्लोरी में दिखा सकें. ये फ़िल्मी सुपरस्टारडम की वो शुरुआत थी जिसे आगे चलकर राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन ने भोगा. 

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मर्दाना खूबसूरती के आइकॉन
1997 के फिल्मफेयर अवॉर्ड्स में दिलीप कुमार ने धर्मेंद्र को लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड देते हुए कहा था— 'अल्लाह ने मुझे धर्मेंद्र जितना हैंडसम क्यों नहीं बनाया?!' सलमान खान ने एक बार धर्मेंद्र को 'सबसे खूबसूरत पुरुष' कहा था. माधुरी दीक्षित का भी यही मानना था. 

धर्मेंद्र के आने से पहले, और उनके आने के कुछ दशक बाद भी हीरो साहसी तो होते थे, मगर उनके जितने सुंदर नहीं. ये एक ऐसा गुण था जो ईश्वर ने उन्हें दिया था और पढ़ाई के दिनों से ही अखाड़े में जाकर उन्होंने इसे तराशा भी था. उनसे पहले और उनके साथ के हीरोज के पास खूबसूरत चेहरा तो फिर भी था. मगर ऐसी मजबूत कद-काठी नहीं थी जिसमें एक फिजिकल आकर्षण हो. 

धर्मेंद्र शायद वो पहले बड़े हीरो थे जिसके कल्ट का एक हिस्सा मेल सेंशुअलिटी भी थी. कैमरा उनके इश्क में डूबा लगता था, महिलाओं के लिए वो क्रश थे. इस क्वालिटी को कैमरे के आगे धर्मेंद्र पूरे कॉन्फिडेंस से पेश भी करते थे. धर्मेंद्र के आने से पहले फिल्मों में ऐसे सीन्स आपको कम ही दिखेंगे जहां हीरो की बॉडी, दमखम, डोले या चौड़ी छाती को कैमरा दर्शकों के लिए पेश कर रहा है. 

सौंदर्य का ये सम्मान कैमरे पर महिला एक्टर्स के लिए ही रिजर्व था. धर्मेंद्र ने ये दीवार तोड़ी थी और इसमें एक चौड़ा दरवाजा फिट कर दिया था. इसी दरवाजे से बाद में उनके बेटे सनी देओल, संजय दत्त, सलमान खान और फिर एक पूरी पीढ़ी के बॉडी चमकाने वाले स्टार्स ने स्टारडम के मंच पर एंट्री ली. 

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इंडस्ट्री को साल की सबसे बड़ी हिट्स देने से लेकर, मास सिनेमा का पहला ब्लू-प्रिंट तैयार करने तक. एक्शन, इमोशन, ड्रामा और कॉमेडी को एक साथ-एक दक्षता के साथ पर्दे पर उतारने तक, मर्दों के लिए मर्दानगी का आइकॉन और महिलाओं के लिए ड्रीम-मैन बन जाने तक... धर्मेंद्र ने हिंदी फिल्मों को पहली बार ऐसी पैकेज डील दी थी. उन्होंने सुपरस्टारडम की एक किताब लिखी थी. उनके बाद आए राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन से लेकर सलमान खान और रणबीर कपूर तक... सारे टॉप सुपरस्टार्स उस किताब के किसी ना किसी चैप्टर से इंस्पायर्ड मिलते हैं. ये धर्मेंद्र की सिनेमाई विरासत है. और यही उस लगाव और आत्मीयता की वजह है, जो जनता को धर्मेंद्र से हमेशा था, आज भी है और हमेशा रहेगा. भले ही उन्होंने अब इस संसार को विदा कह दिया हो...

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