...जब शिमला जाना पुरानी दिल्ली जाने से भी आसान था, एक शहर में बसी दो दिल्लियों की कहानी!

आज एनसीआर के इलाकों को छोड़ दें तो अकेले दिल्ली शहर की आबादी पौने दो करोड़ के आसपास बनती है. लेकिन हमेशा से दिल्ली शहर इतनी भीड़-भाड़ वाली नहीं थी. दिल्ली की आबादी वक्त के साथ-साथ बढ़ती रही और दिल्ली से एनसीआर जुड़ता गया. 1911 में जब अंग्रेजों ने दिल्ली बसाई तब यहां की आबादी 4 लाख थी.

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संदीप कुमार सिंह

  • नई दिल्ली,
  • 07 जनवरी 2025,
  • अपडेटेड 10:03 AM IST

देश की राजधानी दिल्ली विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जुटी हुई है. दिल्ली शहर का दिल कौन सी पार्टी जीतेगी ये तो वक्त ही बताएगा लेकिन इसके इतिहास के पन्ने एक शहर के अंदर बसे कई शहरों की कहानी बयां करती हैं. इस खास सीरीज में हम आपको वर्तमान दिल्ली से अलग अतीत की ऐसी दिल्ली से परिचित कराएंगे जहां न तो भागदौड़ थी, न भीड़ और न महंगाई... बस था तो भारी जेब, सुकून, शांति और स्वच्छता... वो कहानियां थीं जो दिल्ली को दिल्ली से अलग करती थीं और तमाम दिल्लियों के दिलों को आपस में जोड़ती भी थीं.

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आप कहां रहते हैं... दिल्ली, नई दिल्ली या पुरानी दिल्ली? देश की राजधानी में सड़क चलते किसी भी शख्स से आज ये सवाल दागकर देखिए? वो कंफ्यूज हो जाएगा अनगिनत दिल्लियों के इस मकरजाल पर. वर्तमान पीढ़ी के लिए दिल्ली का मतलब नई दिल्ली से है, फिल्मी दुनिया के लिए पुरानी दिल्ली की गलियों से और मैप दिल्ली को कुछ और दिखाता है जो पुरानी और नई दिल्ली की चौहद्दी से भी कहीं ज्यादा विस्तृत और वृहद मायनें रखती है.

विदेशी लुटेरे आते गए, लूट-मार मचाते गए लेकिन ये शहर उजड़ नहीं सकी और हर बार पहले से ज्यादा गुलजार होकर आबाद हुई. इस शहर की दीवानगी को मिर्ज़ा ग़ालिब ने इस शेर से बयां किया है-

'इक रोज़ अपनी रूह से पूछा कि दिल्ली क्या है, तो यूं जवाब में कह गई, ये दुनिया मानो जिस्म है और दिल्ली उसकी जान…’

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आज एनसीआर के इलाकों को छोड़ दें तो अकेले दिल्ली शहर की आबादी पौने दो करोड़ के आसपास बनती है. लेकिन हमेशा से दिल्ली शहर इतनी भीड़-भाड़ वाली नहीं थी. दिल्ली की आबादी वक्त के साथ-साथ बढ़ती रही और दिल्ली से एनसीआर जुड़ता गया. 1911 में जब अंग्रेजों ने दिल्ली बसाई तब यहां की आबादी 4 लाख थी. दिल्ली के मूल निवासी दिल्ली की सीमा में पहले से बसे गांवों के मूल निवासियों को ही माना जाता था. पुरानी दिल्ली में रहने वालों में भी दूसरे राज्यों से आकर ही लोगों ने इसे अपना घर बना लिया.

एक तरफ पुरानी दिल्ली है जिसे मुगलों ने बनाया था उसका अलग ही कल्चर है, तो दूसरी तरफ वो दिल्ली है जो लुटियंस जोन है, जिसे अंग्रेजों ने बसाया था. ये वीआईपी इलाका है जहां प्रधानमंत्री से लेकर तमाम बड़े नेता और कैबिनेट मिनिस्टर रहते हैं. तो एक तरफ वो इलाका है जहां पाकिस्तान से आए रिफ्यूजी बसे जिसमें तिलक नगर, मुखर्जी नगर, राजेंद्र नगर, पटेल नगर, पंजाबी बाग, लाजपत नगर जैसे इलाके आते हैं.

वहीं पूर्वी दिल्ली में जमुनापार जिसे पूर्वांचलों की बसाई हुई दिल्ली कहते हैं भी अपने अलग रंग में गुलजार है. तो वहीं एक अलग 340 गांवों की दिल्ली है, हालांकि यहां भी शहरी कल्चर समय के साथ हावी होती चली गई. जो यहां के मूल निवासी माने जाते थे, जिसमें बाहरी दिल्ली आती है. यहां विभाजन के बाद पंजाबी लोगों का वर्चस्व था और 1982 के एशियाई खेलों के बाद पूर्वांचल से लोग आए और डेमोग्राफी एकदम से चेंज होती चली गई.

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लेकिन आजादी के पहले की दिल्ली एक अलग ही दिल्ली थी. जहां न भीड़ थी, न महंगाई और न ही भागमभाग वाली जिंदगी. था तो बस सुकून, शांतिपूर्ण जीवनशैली और लोगों के पास फुर्सत ही फुर्सत. महंगे दौर से पहले की दिल्ली के बारे में राजेंद्र लाल हांडा अपनी किताब में लिखते हैं-
'मेरे बड़े भाई भी कई वर्ष दिल्ली में रहे हैं. 1932 में वे दरियागंज से नई दिल्ली आ गए. क्योंकि वहां से दफ्तर नजदीक पड़ता था. उन दिनों मैं इलाहाबाद में पढ़ता था. नये पते से मुझे सूचित करते हुए भाई साहब का पत्र मेरे पास आया जिसमें लिखा था- प्रिय, दरियागंज का मकान छोड़कर अब मैं नई दिल्ली आ गया हूं. काफी अच्छी और खुली कोठी मिल गई है. हां, किराया कुछ अधिक है, 26 रुपया मासिक ठहरा. मेरा पता है नं. 13, बारहखंबा रोड. बारह खंबा नई दिल्ली का सुबर्ब यानी उपनगर है. उजाड़ अवश्य है लेकिन नई दिल्ली से बहुत दूर नहीं है. फिर भी ढूंढने में तुम्हें शायद परेशानी हो...'

(AI Generated Image)

उस दौरे की जिंदगी के बारे में वे लिखते हैं-

'1939-40 में पुरानी दिल्ली का जो जीवन था, आज उसकी कल्पना मात्र से ऐतिहासिक खोज का आभास होता है. कैसे विचित्र थे वे दिन, जब कश्मीरी गेट से औरंगजेब रोड(नई दिल्ली) तक जाने में यात्रा की झलक दिखाई देती थी. कम से कम मुझे इतनी दूर जाने के लिए कई दिन पहले दिल में तैयार होना पड़ता था. आने-जाने का कोई प्रबन्ध नहीं था. बसें थीं हीं नहीं. तांगे खूब सस्ते मिलते थे, पर वे बहुत दूर ले जाना पसंद नहीं करते थे. दिल्ली के तथा और किसी भी ठिकानों के शहर के तांगों में वही अंतर है जो दियासलाई की डिबिया और मजबूत काठ के डिब्बों में है.

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यातायात के साधन न होने के बराबर थे, इसीलिए नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली में इतना ही मेलजोल था जितना ग्राहक और दुकानदार में होता है. असल में सरकारी नौकरों की दृष्टि से नई दिल्ली से शिमला नजदीक पड़ता है और पुरानी दिल्ली दूर. नई दिल्ली से पुरानी दिल्ली जाने को कोई साधन नहीं था जबकि शिमला जाने के लिए हर वक्त रेलवे स्टेशन पर ट्रेनें तैयार मिलती थीं. क्योंकि देश की दूसरी राजधानी शिमला जाने के लिए अंग्रेजी शासन ने हर तैयारी कर रखी थी. लेकिन नई और पुरानी दिल्ली के बीच यातायात के साधनों के नहीं होने से ये दूरी काफी बड़ी थी. पहले मैंने इस बात पर विश्वास नहीं किया लेकिन कुछ ही दिन में इसके प्रमाण मिल गए. एक मित्र सप्लाई विभाग में काम करते थे, नई दिल्ली आने से पहले 5 साल शिमला में रहे थे. यहां आते ही उन्हें सरकारी मकान मिल गया. एक साल बाद उन्हें किन्हीं कारणों से पुरानी दिल्ली के सिविल लाइंस में मकान लेना पड़ा. इसलिए वे अब नई दिल्ली में मकान लेने के हकदार नहीं रह गए. सो शिमला नई दिल्ली का मुहल्ला ठहरा और पुरानी दिल्ली दूसरा शहर.'

आजादी के बाद दिल्ली में शरणार्थियों की बाढ़ आ गई तो डेमोग्राफी बदली और फिर बिहार-यूपी-हरियाणा से आने वाले लोगों की आबादी ने कॉलोनियों का विस्तार भी किया. लेकिन पुरानी दिल्ली की गलियों की रौनक बदलने लगी. लोगों की भीड़, सड़कों पर गाड़ियों की रफ्तार और सुकून की जगह हर समय भागते लोग ऐसी तो न थी पुरानी दिल्ली. शायर जां निसार अख़्तर लिखते हैं-
'दिल्ली कहां गईं तिरे कूचों की रौनक़ें, गलियों से सर झुका के गुज़रने लगा हूं मैं ...'

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इस सुकून को मिस करने के लिए फिर पुराने दिनों में लौटने की जरूरत है. राजेंद्र लाल हांडा आगे लिखते हैं-
'तब यानी 1930 के दशक के आखिरी वर्षों में, पुरानी दिल्ली में मनोरंजन के साधन इने-गिने ही थे. रईस लोग तो दो घोड़े की फिटन में बैठकर चार-पांच मील की हवाखोरी को ही मनोरंजन समझते थे. अधिक से अधिक कुदसिया बाग में आध घंटा बेंच पर बैठ लिए.

मध्यम वर्ग के लोग जामा मस्जिद और लाल किले के सामने जो विशाल मैदान है उस में घूम-फिर कर या बैठ कर दिल बहलाते थे. इन मैदानों में शाम के समय दर्जनों टोलियां इधर-उधर बैठी दिख जाती थीं. कहीं ताश, चौपड़ या शतरंज की बाजी गरम होती थी तो कहीं कविता पाठ और फिल्मों के गीत गाये जाते थे. कहीं-कहीं गंभीर लोग बीड़ी का सेवन करते हुए बाजार भाव और सोने-चांदी के रुख की समीक्षा करते हुए भी दिख जाते थे. कुछ शौकीन और हिम्मती लोग भोजन के बाद कपड़े बदल कर रेलवे स्टेशनों के प्लेटफार्मों पर चहलकदमी को ही मनोरंजन का अच्छा माध्यम बना लेते थे. सिनेमा घरों में इतनी भीड़ नहीं होती थी. इस उद्योग के कर्णधार दिल्ली को थर्ड क्लास केंद्र मानते थे.'

लेकिन आज आबादी पौने दो करोड़ है इस शहर की. पुरानी दिल्ली और नई दिल्ली के दायरे के बाहर भी विशाल दिल्ली है. अनगिनत लोगों की भीड़ है और हर कुछ मिनट पर रेलवे स्टेशनों पर देशभर से भीड़ को लाकर उगलती रेल गाड़ियों के नजारे हैं. जो दिल्ली को बदलती चली जा रही है. लेकिन ये दिल्ली सबकी थी, सबसे थी और शायद यही इसकी पहचान है और इतिहास में हर बार मिटकर भी बस जाने की कहानी भी. यही दिल्ली है, साड्डी दिल्ली... ये दिल्ली है ही ऐसी कि यहां जो एक बार आ जाता है, वो इसी का होकर रह जाता है.

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तभी मशहूर शायर मोहम्मद इब्राहिम ज़ौक़ लिखते हैं-
'इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न, कौन जाए ‘ज़ौक़’ पर दिल्ली की गलियां छोड़ कर.’
 

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