दिल्ली यूनिवर्सिटी (DU) में हाल की भर्ती प्रक्रिया को लेकर कई शिक्षक घूस लेने के आरोपों की गुपचुप तरीके से चर्चा कर रहे हैं. अभी तक इस पर कोई औपचारिक शिकायत नहीं की गई है क्योंकि सबके भीतर डर तो है लेकिन सबूत नहीं. इंटरव्यू और परीक्षा की तैयारी वाले ग्रुप्स में 'अनौपचारिक रूप से पैसों' की बातें होती रहती हैं. ये एक ऐसा संकट है जो कागजों पर नहीं बस फुसफुसाहटों में नजर आ रहा है.
कोई खुले में बोलना नहीं चाहता...
DU के एक सरकारी कॉलेज की 50 साल की शिक्षिका बताती हैं कि जब उन्होंने वरिष्ठ लेक्चरर बनने के लिए आवेदन किया तो उनसे लगभग 50 लाख रुपये 'अनौपचारिक रूप से देने' का इशारा किया गया. लेकिन वे इसकी शिकायत नहीं करना चाहतीं क्योंकि वे उसी सिस्टम में काम करती हैं और उन्हें डर है कि शिकायत करने पर उनके खिलाफ कार्रवाई हो सकती है.
एक शिक्षक-कार्यकर्ता ने बताया कि ऐसे आरोप कई जगह सुनने को मिल जाते हैं लेकिन इसके कोई दस्तावेज या प्रमाण नहीं मिलते. सबसे बड़ी चिंता ये है कि इस माहौल का असर शिक्षण के स्तर पर पड़ रहा है. अब पब्लिक फंडेड संस्थानों में अच्छे शिक्षक आने से हिचकने लगे हैं.
इनब्रीडिंग से लेकर नई चिंताओं तक...
DUटीचर्स एसोसिएशन (DUTA) की सदस्य आभा देव बताती हैं कि पहले शिकायत सिर्फ 'इनब्रीडिंग' की होती थी यानी विभाग अपने ही पुराने छात्रों को नौकरी पर रख लेते थे. लेकिन वो भी इसलिए काम कर जाता था क्योंकि ज्यादातर उम्मीदवार DU, JNU, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी, हैदराबाद यूनिवर्सिटी जैसे बेहतरीन संस्थानों से आते थे. लेकिन अब माहौल बदल गया है.
आजकल व्हिसपर्ड एलिगेशंस यानी 'पैसा मांगने की अफवाहें' ज्यादा सुनने को मिल रही हैं. कोई सबूत नहीं, कोई शिकायत नहीं बस डर और असहजता दिख रही. यही असहजता असली खतरा है.
सेलेक्शन कमेटी: पारदर्शिता के लिए बनी पर अब चिंता का कारण
UGC नियमों के तहत DU में असिस्टेंट प्रोफेसर के लिए चयन समिति में शामिल होते हैं. इसमें VC का एक नामांकित सदस्य, कॉलेज प्रिंसिपल, बाहरी विषय विशेषज्ञ, विभागाध्यक्ष और गवर्निंग बॉडी प्रतिनिधि होते हैं. ये व्यवस्था पक्षपात कम करने के लिए बनाई गई थी. पर कई शिक्षक कहते हैं कि इससे नई तरह की शक्ति-संरचनाएं बनी हैं जिन्हें कोई समझ नहीं पाता.
सबसे बड़ी समस्या पैनल में बदलाव बहुत कम होता है. एक ही समिति कई इंटरव्यू लेती रहती है जिससे लगता है कि फैसले कुछ ही लोगों के हाथ में सिमटे हुए हैं. इससे शिक्षक बोलने से डरते हैं. आज शिकायत की तो कल प्रमोशन कौन देगा?.
धरना, विरोध और कागज न होने का विरोधाभास
इस साल DU के कई कॉलेजों में स्थायी भर्तियों में देरी, ऐड-हॉक शिक्षकों को नजरअंदाज करना, इंटरव्यू प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी और चयन पैनल की रचना पर सवाल आदि मुद्दों पर प्रदर्शन हुए. लेकिन औपचारिक शिकायतें लगभग शून्य हैं. यही विरोध और चुप्पी का विरोधाभास सबको उलझाता है.
जैसाकि एक शिक्षक रोहित सिंह कहते हैं कि शिकायत देने का मतलब है नाम बताना, दस्तावेज देना और लंबे मामलों से गुजरना, ऐसे में कोई अपनी नौकरी खतरे में क्यों डाले?
क्या सच में हो रहा अकादमिक पतन?
कई शिक्षक कहते हैं कि पहले प्राइवेट यूनिवर्सिटीज DU के शिक्षकों को बहुत गर्व से नौकरी देती थीं. लेकिन अब वे ज्यादातर युवा या विदेश से पढ़कर आए शिक्षकों को ज्यादा तवज्जो दे रही हैं. इसका मतलब ये नहीं कि DU के शिक्षक कमजोर हैं बल्कि इसलिए क्योंकि DU में भर्ती की पूरी प्रक्रिया अब अनिश्चित और उलझी हुई लगने लगी है.
DU आज भी एक बेहतरीन संस्था है लेकिन डर, अफवाहें और अनिश्चित माहौल उसकी पहचान को धीरे-धीरे नुकसान पहुंचा सकते हैं. इसका असर छात्रों पर भी कम वैकल्पिक विषय (इलेक्टिव), कॉपी जांच और रिजल्ट में देरी और मेंटरिंग के लिए शिक्षकों के पास कम समय के रूप में दिखता है.
मूल समस्या क्या है?
शिक्षकों के अनुसार संकट गलत कामों से ज्यादा अनिश्चितता का है और शिक्षा का ढांचा पारदर्शिता और स्थिरता पर चलता है, डर और फुसफुसाहट पर नहीं. हर शिक्षक यही चाहता है कि DU अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखे. लेकिन यह तभी होगा जब भर्ती प्रक्रिया पर भरोसा बना रहे.
दीबाश्री मोहंती