फायरिंग स्क्वैड सजा बस मुकम्मल करने ही वाली थी. फायर खुलता और गुनहगार बताए गए लोगों के चिथड़े उड़ जाते. सेंट पीट्सबर्ग के सेमेनोव्स्की चौक पर तमाशाइयों का एक हुजूम इस मजमे को देखने के लिए अधीर हुआ जा रहा था. यहां 15 विद्रोहियों की मौत की सजा दी जानी थी. इसी सदमे में एक दोषी ने दूसरे की ओर मुड़कर कहा- 'बस अब हम ईसा मसीह के साथ रहेंगे.' लेकिन वह व्यक्ति, जो नास्तिक था, मुड़ा, मुस्कुराया और धरती की ओर इशारा करते हुए कहा- एक मुट्ठी धूल.
इसके बाद सदमे से भरे मृ्त्यु का इंतजार कर रहे सवाल पूछने वाले कैदी ने ऐसा अनुभव किया जिसे आगे चलकर उसने रहस्यमयी आतंक कहा. इधर जनता की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. मृत्यु की प्रतीक्षा लंबी हो चली थी.
पंद्रह दोषियों को तीन-तीन के समूहों में मौत की सजा देने के लिए कतार में खड़ा किया गया. ये कैदी दूसरे ग्रुप में था. जब पहला समूह फायरिंग दस्ते के सामने खड़ा हुआ. तभी कुछ चमत्कार सा घटित हुआ. वो चमत्कार नहीं जहां अलौकिक शक्तियों का दखल रहता है. यहां रूस के सम्राट (जार) की शाही घोड़ागाड़ी आती है और एक पत्र अधिकारियों को सौंपा जाता है.
मृत्यु के दरवाजे से दस्तक देकर वापसी
तुरंत मुनादी होती है कि इन दोषियों की मृत्यु की सजा माफ कर दी गई है. सेमेनोव्स्की चौक हैरान था और 15 जिंदगियां कातर निगाहों से अपनी जिंदगी की नई किस्त को देख रही थीं.
इस सजा की वजह, मृत्यु के दरवाजे को दस्तक देकर वापसी का वृतांत हम आपको आगे बताएंगे.
इस घटना ने तब 27 साल के रहे एक कैदी को दोबारा जीने की वजह दे दी. ये वही कैदी था जिसका रुपांतरण आने वाले वर्षों में दुनिया के रंगमंच पर फ्योदोर दोस्तोवस्की के रूप में हुआ. महान उपन्यासकार, जिसने मनुष्य की पीड़ा को अपनी रचनाओं का आधार बना लिया. उसने मनुष्य के दुखों की पहचान की और जीवन की जकड़न को अनुभव किया.
फ्योदोर दोस्तोवस्की अपने मैग्नम ओपस यानी कि सर्वश्रेष्ठ कृति 'क्राइम एंड पनिशमेंट' में लिखते हैं, "एक विशाल बुद्धि और गहरे हृदय के लिए दुःख और पीड़ा हमेशा अपरिहार्य होती है. मुझे लगता है कि वास्तव में महान व्यक्तियों को पृथ्वी पर बहुत दुःख सहना पड़ता होगा."
दोस्तोवस्की वही सजायाफ्ता हैं जिसकी चर्चा लेख के शुरुआत में है. जो अपने साथी कैदी से कहता है- अब हम ईसा मसीह के साथ रहेंगे.
दोस्तोवस्की का पात्र जो फांसी से 5 मिनट दूर है
मृत्यु की प्रतीक्षा से पैदा हुई मानसिक यातना ने दोस्तोवस्की को गहरा प्रभावित किया. इतना कि इस एहसास को लिखने के लिए उन्होंने एक पात्र रचा. उनके उपन्यास 'द इडियट' का किरदार प्रिंस मिश्किन ऐसे व्यक्ति की कहानी सुनाता है जो मानता था कि वह फांसी से महज 5 मिनट दूर है.
"...उसने अपने जीवन के शेष समय को बांट लिया. दो मिनट अपने साथियों को अलविदा कहने के लिए, दो मिनट अंतिम बार ध्यान के लिए और बचा समय चारों ओर आखिरी बार निहारने के लिए. वह 27 वर्ष में पूरी तंदुरूस्ती और स्फूर्ति के साथ इस दुनिया से विदा होने वाला था..."
"अभी वह वजूद में था और जी रहा था, तीन मिनट में कुछ घटित होगा. कोई व्यक्ति या कोई चीज़, लेकिन कौन, कहां? पास ही एक चर्च था जिसका सुनहरा गुंबद तेज धूप में चमक रहा था. वह अपनी आंखें नहीं हटा पा रहा था. वे किरणें उसे अपनी नई प्रकृति लग रही थीं, वो उसका अपना होने वाला था. उसने कल्पना की कि तीन मिनट में वह उनका हिस्सा बन जाएगा. अज्ञात के सामने उसकी अनिश्चितता और उसका विकर्षण, जो उसे तुरंत आ घेरने वाला था, भयानक था."
रूढ़िवादी, निरंकुश रूस का वो समय
बालक दोस्तोवस्की का जन्म (11 सितंबर, 1821) जिस रूसी परिवेश में हुआ वो समाज रूढ़िवादी, निरंकुश और असमानता की खाइयों से दरक रहा था. रूस की सत्ता जार निकोलस I के हाथों में थी. बोल पाने की आजादी तो थी लेकिन अभिव्यक्ति पर सख्त सेंसरशिप थी. जारशाही में अफसर दमनकारी नीतियों के साथ बुद्धिजीवियों और सुधारकों पर नियंत्रण रखते थे. 80 फीसदी आबादी गरीब थी और दास के रूप में जमींदारों के यहां खेती का काम करती थी.
लेकिन पश्चिमी यूरोप की जागृति की बौद्धिक हवा जब-तब रूस में आ घुसती और रूसी बौद्धिकों के दिमाग में परिवर्तन की सरसराहट छोड़ जाती. रूसी साहित्य में कला, धर्म और रोमांटिसिज्म का प्रभाव बढ़ रहा था.
ऐसे ही माहौल में एक मिलिट्री डॉक्टर के घर दोस्तोवस्की पैदा हुए. सात भाई बहनों के परिवार में जन्मे दोस्तोवस्की ने अभाव को छुटपन से ही महसूस किया. स्कूल में रूसी एलीट के बच्चों से उन्हें दुत्कार झेलना पड़ता.
जिस मां की छांव उन्हें दुनिया की दुश्वारियां से बचाए रखती वो जल्द ही टीबी से चल बसीं. उस समय इनकी उम्र 15 साल थी.
अब किशोर दोस्तोवस्की का परीक्षा काल शुरू हो चुका था. उनकी मौजूदा पढ़ाई रूक गई. परिवार ने उन्हें मिलिट्री इंजीनियर बनने सेंट पीट्सबर्ग के एक स्कूल में भेज दिया. यहां दोस्तोवस्की ने अपनी अलग दुनिया बनाई. 120 सहपाठियों के बीच वे एक बाहरी बन गए. एकांत उन्हें पसंद था, अपनी साहित्य की दुनिया में वे डूबे रहते, अनमने, उनींदे से.
1848 में जब पूरे यूरोप (फ्रांस, जर्मनी,ऑस्ट्रिया) में क्रांतियां भड़क उठीं तो रूस की सत्ता पश्चिम से आने वाली चिंगारियों को देख चिंतित हो उठी.
डिबेट क्लब और व्यवस्था परिवर्तन की बहसें
दोस्तोवस्की उस समय एक ऐसे डिबेट क्लब के सदस्य थे जहां सामाजिक बदलाव और व्यवस्था परिवर्तन पर उत्तेजक बहसें होती थी. इसका नाम था पेट्राशेव्स्की क्लब.
यह 19वीं सदी का रूसी बौद्धिक समूह था, जिसकी स्थापना 1845 में मिखाइल पेट्राशेव्स्की ने की थी. यह क्लब सेंट पीटर्सबर्ग में फ्राइडे मीटिंग्स के रूप में चलता था, जहां सदस्य प्रतिबंधित पश्चिमी साहित्य, दर्शन और रूसी सुधारों (किसान मुक्ति, राजशाही विरोध) पर चर्चा करते थे.
तब शर्मीले और सामाजिक रूप से अनाड़ी होने के नाते दोस्तोवस्की सक्रिय रूप से भाग लेने की बजाय दूसरों की बहस सुनने में अधिक समय गुजारते थे.
रूस का जब माहौल बदलने लगा तो इस ग्रुप पर जारशाही पुलिस ने नजरें गड़ा दी. जैसा कि हर समाज में प्रतिगामी ताकतें होती है, सेंट पीट्सबर्ग में भी ऐसे लोग थे जो यथास्थिति से संतुष्ट थे. उन्होंने इस ग्रुप की चुगली अफसरों से कर दी और पेट्राशेव्स्की मंडली में गुप्त पुलिस ने घुसपैठ की और अप्रैल 1849 में इसके सदस्यों को अरेस्ट कर लिया गया. दोस्तोवस्की भी धरे गए.
आधी रात को उन्हें घर से उठाकर पीटर एंड पॉल किले में बंद कर दिया गया. यहां वे छह महीने तक एकांत कारावास में रहे. अपनी सजा का इंतजार करते हुए.
तो क्रांति पर चर्चा करने, मजदूरों किसानों को दासता से मुक्त करने के हिमायती होने के जुर्म में फ्योदोर दोस्तोवस्की को मौत की सजा सुनाई गई. तारीख मुकर्रर की गई 23 दिसंबर 1849. सेंट पीट्सबर्ग के उस चौक पर मजमा उसी दिन लगा हुआ था.
1849 में दोस्तोवस्की रूस की साहित्यिक बिरादरी में ऐसे लेखक माने जाते थे जिनका लेखकीय कौशल अबतक नहीं उभरा था. तीन साल पहले उनकी एक कृति 'पुअर फोक' बाजार में आ चुकी थी. इस पुस्तक ने सुर्खियां बटोरी. लेकिन इसका असर सीमित रहा. 1849 तक कई लोगों ने उन्हें एक अधूरा लेखक मान लिया. हालांकि दोस्तोवस्की इतिहास तो आने वाले वर्षों में लिखने वाले थे.
इसके बाद के दशकों में उन्होंने इतिहास की कुछ महानतम कथाएं लिखीं, जैसे- "क्राइम एंड पनिशमेंट", "द ब्रदर्स करमाज़ोव", "द इडियट" और "डेमन्स".
पांच साल की निजी नर्क यात्रा
एक साधारण सफल लेखक से सर्वकालिक चुनिंदा उपन्यासकारों में उनका रुपांतरण 1849 के बाद की वो पांच साल की निजी नर्क यात्रा थी जिसमें वे एक बेसुध मुसाफिर की तरह भटके.
रूसी सत्ता से मिली मौत से मुक्ति के बाद का उनका जीवन प्रचंड दुश्वारियों से भिड़ जाने की कहानी है. दोस्तोवस्की को रूस की दमनकारी सरकार ने सबसे खतरनाक कैदी माना और उनके हाथ और पैर को चेन से बांध दिया. मौत से माफी के बाद उन्हें चार साल की कठोर कारावास की सजा सुनाई गई. इस सजा को काटने के लिए उन्हें भेज दिया शीत प्रदेश साइबेरिया में. जहां तापमान शून्य से 20-30 डिग्री तक कम रहता था.
अगले चार साल वे जेल में अपराधियों से घिरे रहे, परिस्थितियां भयावह रहीं और गुजारा बस जिंदा रह पाने के राशन भर से हुआ.
दोस्तोवस्की के लिए काल की ये कोठरी अपार दुख के साथ मानव जिजीविषा की अनंत संभावनाओं को भी साथ लेकर आई.
दोस्तोवस्की ने देखा कि उनके साथी कैदियों में से कोई भी जेल की उस बजबजाती गंदगी से परेशान नहीं थे. उन्हें एहसास हुआ कि मनुष्य की एक खासियत है, सबसे कठिन परिस्थितियों में भी खुद को ढाल लेने की उसकी अद्भुत क्षमता.
उन्होंने अपने जेल जीवन के वर्णन नोट्स फ्रॉम अ डेड हाउस में लिखा है.
"मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो हर चीज का आदी हो जाता है और मुझे लगता है कि यही उसकी सर्वोत्तम परिभाषा है."
मिर्गी के दौरे और आध्यात्मिक जागृति
मनुष्य की मनोदशा समझने में दिमाग खपाने वाले इस उपन्यासकार को युवा काल से ही मिर्गी के दौरे आते थे. कैद में मिर्गी का दौरा और भी बढ़ गया.
दोस्तोवस्की मिर्गी के दौरे से पहले होने वाले अनुभवों को असाधारण और "पवित्र क्षण" मानते थे. वे इसे एक प्रकार की आध्यात्मिक जागृति के रूप में देखते थे, जो उनके लेखन में मानव अस्तित्व, दुख, और ईश्वर की खोज जैसे विषयों में झलकता है. यह उनकी कृति ब्रदर्स करमाजोव और क्राइम एंड पनिशमेंट जैसे उपन्यासों में गहरे दार्शनिक प्रश्नों के रूप में प्रकट होता है. दोस्तोवस्की की मिर्गी ने उनके साहित्य को आत्मकथात्मक, दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक गहराई प्रदान की. ये बीमारी उनकी रचनाओं में नैतिक जटिलताओं के चित्रण का आधार बनी.
दोस्तोवस्की का कैदी जीवन चार साल के अंतहीन आध्यात्मिक एकांत का समय था. लोगों से घिरे होने के बावजूद वह मानसिक रूप से पूरी तरह अकेले थे और उन्होंने कभी भी गहरी दोस्ती नहीं की. शुरुआत में मन की ये तनहाई उन्हें बोझ लगती थी कि लेकिन समय के साथ उन्हें प्रबोध हुआ कि इस एकांत में एक क्रांतिकारी आत्म-परिवर्तन की शक्ति है.
जैसा कि उन्होंने लिखा,"आखिरकार मुझे वह एकांत प्रिय लगने लगा. आध्यात्मिक रूप से अकेले मैंने पिछले जीवन को याद किया... स्वयं को अकेले में कठोरता और दृढ़ता से परखा, और कभी-कभी तो अपने भाग्य को भी धन्यवाद दिया कि उसने मुझे वह एकांत दिया, जिसके बिना न तो खुद का मूल्यांकन हो पाता और न ही अपने पिछले जीवन की कठोर समीक्षा."
जीवन में मकसद का क्या महत्व है?
कैद ने दोस्तोवस्की को यह भी सिखाया कि मनुष्य के जीवन में मकसद का क्या महत्व है? मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य के लिए जीवन का मतलब और उद्देश्य कितने महत्वपूर्ण हैं यह समझते हुए दोस्तोवस्की ने सुझाया कि यदि आप किसी व्यक्ति को पागल बनाना चाहते हैं तो आप उसे किसी प्रकार के व्यर्थ काम में, जैसे पत्थरों के ढेर को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना और फिर वापस लाना, लगा दें.
आप हैरान रह जाएंगे कि नाजी कैंप में यहूदी कैदियों को यातना देने के लिए इसी तरीके को अमल में लाया गया था.
1854 में रिहाई के बाद 1861 में जेल जीवन के अनुभवों पर आधारित उनकी किताब नोट्स फ्रॉम अ डेड हाउस प्रकाशित हुई.
इससे पहले 1857 में उन्होंने मारिया नाम की लड़की से शादी की.
लेकिन ये विवाह दुखद बंधनों की कहानी रही. दोनों में से कोई एक दूसरे से खुश नहीं रहा. 1864 में मारिया की मृत्यु हो गई.
प्रपोज न कर सके तो किरदार ही रच दिया
दोस्तोवस्की जीवन में कई रिलेशनशिप में रहे. उन्हें सहज ही प्रेम हो जाता लेकिन उनके रिश्ते ज्यादा दिन नहीं चलते. 1867 में जब 46 साल दोस्तोवस्की 20 साल की अपनी सेक्रेटरी एना ग्रिगोरयेवेना से शादी करना चाहते थे, लेकिन उन्हें प्रपोज करने की हिम्मत न थी. इस प्रपोजल की कहानी एना ने अपनी संस्मरणों (रेमिनिसेंस ऑफ एना दोस्तोव्स्काया) में लिखी है.
दोस्तोवस्की ने एना को एक काल्पनिक उपन्यास की कहानी सुनाई. उन्होंने एना से कहा कि वे एक नए उपन्यास की रूपरेखा बना रहे हैं, जिसमें एक बुजुर्ग चित्रकार एक युवा लड़की, जिसका नाम "अन्या" है, से प्रेम करता है और उसे प्रपोज करता है.
दोस्तोवस्की ने एना से पूछा, "क्या इतनी कम उम्र की लड़की का इस चित्रकार से प्रेम करना संभव है, जो उससे इतना बड़ा और अलग स्वभाव का है?" एना का जवाब दोस्तोवस्की के वीरान मन पर बारिश की फुहार लेकर आया. एना ने जवाब दिया- यह पूरी तरह संभव है.
फिर दोस्तोवस्की ने कहा, "एक पल के लिए खुद को उस लड़की की जगह रखें. कल्पना करें कि मैं वह चित्रकार हूं और मैंने आपसे अपने प्यार का इजहार किया और आपसे शादी करने को कहा. आप क्या जवाब देंगी?" अन्ना ने जवाब दिया, "मैं कहूंगी कि मैं आपसे प्यार करती हूं और हमेशा करती रहूंगी."
इस जवाब ने दोस्तोवस्की को भावुक कर दिया, इसके बाद दोनों शादी के बंधन में बंधे.
1866 की जनवरी-फरवरी में दोस्तोवस्की की श्रेष्ठ कृति क्राइम एंड पनिशमेंट प्रकाशित हुई.
क्या असाधारण लोग नैतिक नियमों से ऊपर हैं?
ये कालजयी मनोवैज्ञानिक उपन्यास मानव मन, नैतिकता और अपराध की गहराइयों की पड़ताल करता है. कहानी रस्कोलनिकोव नाम के एक गरीब शख्स के इर्द-गिर्द घूमती है, जो आर्थिक तंगी और दार्शनिक विचारों से प्रेरित होकर एक साहूकार और उसकी बहन की हत्या कर देता है. उसकी मनोवैज्ञानिक कंडीशनिंग उसे ये मानने पर विवश कर देती है कि कुछ "असाधारण" लोग नैतिक नियमों से ऊपर हैं, लेकिन अपराध के बाद उसे गहरा अपराधबोध और मानसिक उथल-पुथल सताने लगता है. पूरी कहानी इस द्वंद और तीक्ष्ण विचार मंथन की रिपॉजटिरी है.
घनघोर क्रिश्चयन दोस्तोवस्की ने अपनी रचनाओं में दुष्ट स्वभाव और संत आत्मा दोनों का ही पोस्टमार्टम किया. वे न्यू टेस्टामेंट जेल में भी पढ़ते, बावजूद इसके इंसानी कमजोरियों से वे खुद को दूर नहीं कर सके. उन पर जुआ खेलने की लत इस तरह सवार थी कि कई बार दिवालिया होते होते बचे. कई बार फाकाकशी की नौबत आई.
अगर दोस्तोवस्की के राजनीतिक विचारों की बात करें तो उनके अनुभव उन्हें किसी एक विचारधारा को स्वीकार करने से रोकते थे. वे सर्फडम यानी कि बंधुआ मजदूरी के रूसी वर्जन का अंत तो चाहते थे लेकिन संविधान उन्हें रूस के मिजाज के अनुरूप नहीं लगता था. एक ईसाई के रूप में वह नास्तिक समाजवाद को अस्वीकार करते थे. संस्थाओं की समाप्ति उन्हें ठीक नहीं लगती थी. इसके अलावा हिंसा से पैदा हुई क्रांति को भी वे अस्वीकार करते थे.
भारत में दोस्तोवस्की की छाया
20वीं सदी की शुरुआत में दोस्तोवस्की की रचनाएं अंग्रेजी में अनुवाद होकर भारत आई और सामाजिक-नैतिक बहसों का हिस्सा बनीं. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बंगाल के अंग्रेजीदां वर्ग को उनके विचारों में स्पार्क दिखा.
भारत में उनकी प्रासंगिकता ब्रिटिश उपनिवेशवाद के दौरान रूसी साहित्य के प्रभाव से जुड़ी है. जहां टॉलस्टॉय और दोस्तोवस्की जैसे रूसी लेखकों को सामाजिक न्याय और मानवीय संघर्ष के प्रतीक के रूप में देखा गया.
1917 में रूसी क्रांति के बाद सोवियत संघ के साथ सांस्कृतिक आदान-प्रदान ने भारत में रूसी साहित्य को बढ़ावा दिया. 1930 के दशक में, प्रगतिशील लेखक संघ के माध्यम से दोस्तोवस्की की रचनाएं भारत में चर्चित हुईं. आजादी के बाद रूसी साहित्य का हिंदी और उर्दू में अनुवाद होने लगा. 1960 में क्राइम एंड पनिशमेंट का नरेश नदीम ने हिंदी में अनुवाद किया. 1981 में मुनीष सक्सेना द इडियट का अनुवाद किया. रेक्ता पर दोस्तोवस्की की 'पुअर फोक' का उर्दू अनुवाद 'बेचारे लोग' 1970 में आया. इस तरह उनकी रचनाएं आज भी भारत में अपराध, विवेक और मानवीय संघर्ष के संदर्भ में पढ़ी जाती हैं, खासकर युवाओं द्वारा.
पन्ना लाल