कौन थे डोगरा योद्धा जोरावर सिंह? जिन्होंने लद्दाख को फतह कर उसका जम्मू-कश्मीर में किया विलय

डोगरा योद्धा जोरावर सिंह जम्मू कश्मीर के महाराजा रणजीत सिंह के सेनापति और भरोसेमंद साथी थे. सैन्य कौशल और नेतृत्व क्षमता ने जोरावर सिंह को देश का महान सेनानायक बनाया. जोरावर सिंह की तुलना नेपोलियन बोनापार्ट से भी की जाती है, क्योंकि दोनों ही योद्धाओं ने अपनी सैन्य क्षमताओं विरोधियों को पराजित किया और अपनी सीमाओं का विस्तार किया.

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लद्दाख को जीतने वाले जोरावर सिंह की कहानी (Photo: Representational) लद्दाख को जीतने वाले जोरावर सिंह की कहानी (Photo: Representational)

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 25 सितंबर 2025,
  • अपडेटेड 1:01 PM IST

लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने की मांग को लेकर बुधावर को लेह में हिंसक प्रदर्शन हुए, जिसमें चार लोगों की जान चली गई. जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाकर केंद्र सरकार ने लद्दाख को भी केंद्र शासित प्रदेश घोषित किया था और तब से लेकर स्थानीय लोग प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग पर अड़े हैं. सरकार का कहना है कि इसके लिए विभिन्न पक्षों से बातचीत चल रही है. लेकिन कुछ लोग हिंसा का सहारा लेकर वार्ता को पटरी से उतारने में लगे हैं. 

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'भारत के नेपोलियन' जोरावर सिंह

ऐसे में हम आपको लद्दाख के जम्मू कश्मीर में विलय की कहानी बताते हैं. उसे जानने के लिए लद्दाख, तिब्बत, बाल्टिस्तान जैसे क्षेत्रों को जीतने वाले महान सेनापति जोरावर सिंह कहलुरिया को जान लेना बेहद जरूरी है. डोगरा योद्धा जोरावर सिंह कहलुरिया को 'भारत का नपोलियन' भी कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने देश की सीमाओं का चीन के बॉर्डर तक विस्तार किया. जोरावर सिंह सिर्फ एक योद्धा ही नहीं थे, बल्कि वह पंजाब की आजादी और क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए समर्पित महान देशभक्त भी थे. उनका योगदान पंजाब के इतिहास में अमूल्य है. आज भी उन्हें पंजाब के इतिहास में गर्व के साथ याद किया जाता है.

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उत्तर भारत के साम्राज्य को विस्तार देने में जोरावर सिंह का बड़ा योगदान है. कहा जाता है कि उनका जन्म 1784 में हिमाचल के कांगड़ा जिले के एक गांव में हुआ था. उनका गांव कहलुर नाम की एक रियासत का हिस्सा हुआ करता था और इसी वजह से उनका नाम जोरावर सिंह कहलुरिया पड़ा. परिवार में जमीन विवाद की वजह से उन्होंने अपना गांव छोड़ दिया और रोजगार की तलाश में हरिद्वार चले गए. हरिद्वार में उनकी मुलाकात राणा जसवंत सिंह से हुई, जो जम्मू कश्मीर में एक जमींदार थे. राणा जसवंत सिंह के साथ ही उन्होंने जम्मू कश्मीर में युद्ध के कौशल सीखे और जल्द ही इस प्रशिक्षण को आजमाने का वक्त भी आ गया. 

डोगरा सेनापति ने किया सीमाओं का विस्तार

साल 1800 में महाराजा रणजीत सिंह ने सिखों के एक साम्राज्य की स्थापना कर ली थी. उन्हें अब योद्धाओं की जरूरत थी. जोरावर सिंह ने पहले रणजीत सिंह की सेना में नौकरी की और बाद में वह कांगड़ा के राजा संसार चंद के साथ चले गए. साल 1817 में जोरावर सिंह की जिंदगी में एक बड़ा बदलाव आया, जब उन्हें जम्मू के डोगरा सरदार मिया किशोर सिंह जमवाल की सेवा में जाने का मौका मिला. महाराजा रणजीत सिंह ने साल 1808 जम्मू पर जीत हासिल कर उसे अपनी रियासत बना लिया था और वहां की सत्ता किशोर सिंह को सौंप दी थी.

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लेह स्थित जोरावर फोर्ट (File Photo: FB/India History)

किशोर सिंह के बेटे का नाम गुलाब सिंह था. गुलाब सिंह की नजर जोरावर सिंह पर पड़ी और उन्होंने जोरावर को भीमगढ़ नाम के किले का नेतृत्व सौंप दिया. साल 1819 में जोरावर सिंह के कंधे पर एक और बड़ी जिम्मेदारी आई. महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर का एक बड़ा इलाका गुलाब सिंह के सुपुर्द कर दिया और गुलाब सिंह राजा बन गए. उन्होंने अपने सबसे खास जोरावर सिंह को किश्तवाड़ सहित कई जगीरों का गवर्नर बना दिया. वह डोगरा रियासत में राजा के बाद सबसे ताकतवर शख्स बन गए. कमान संभालते ही जोरावर सिंह ने अपनी सीमाओं का विस्तार करने की योजना बनाई.

लद्दाख को बौद्धों के कब्जे से आजादी

जोरावर सिंह को अपनी पहली बड़ी जीत लद्दाख में मिली. उससे पहले तक लद्दाख में बौद्धों का शासन था और वह तिब्बत को टैक्स चुकाया करते थे. लद्दाख तब काफी अहम होता था, क्योंकि तिब्बत से अफगानिस्तान तक जान वाला ट्रेड रूट लद्दाख से होकर जाता था. यहां मिलने वाली ऊनी शॉल की दुनिया भर में काफी मांग थी. कश्मीर के राजा गुलाब सिंह लंबे वक्त से लद्दाख को डोगरा शासन के अधीन लाना चाहते थे. यह मौका उन्हें 1834 में मिला.

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उस साल लद्दाख के स्थानीय गवर्नर ने स्थानीय शासक से बगावत कर दी और उसने गुलाब सिंह से मदद मांगी. गुलाब सिंह के लिए ये लद्दाख में पैर जमाने का बड़ा मौका था. इसलिए उन्होंने जोरावर सिंह की अगुवाई में लद्दाख के लिए डोगरा फौज को रवाना कर दिया. पांच हजार फौजी लेकर जोरावर सिंह करगिल तक पहुंचे. यहां हुई एक लंबी लड़ाई के बाद डोगरा फौज ने जीत हासिल की. युद्ध के बाद हुई एक संधि के तहत लद्दाख के शासक ने राजा गुलाब सिंह की अधीनता को स्वीकार कर लिया और इस तरह लद्दाख डोगरा शासन और सिख साम्राज्य के अधीन आ गया.

दूसरी पर लद्दाख पर कब्जा और विलय

हालांकि जोरावर जब लद्दाख में जीत का झंडा लहरा रहे थे, ठीक इस समय कश्मीर में उनके खिलाफ एक साजिश की शुरुआत हो रही थी. कश्मीर के गवर्नर मियां सिंह की गुलाब सिंह के साथ रंजिश थी. जोरावर की जीत से हताश होकर उन्होंने लद्दाख में डोगरा शासन के खिलाफ विद्रोह भड़काना शुरू कर दिया. इसका नतीजा था कि अगले 5 साल में कारगिल से लेकर लेह तक गुलाब सिंह के खिलाफ बगावत शुरू हो गई. किलों पर कब्जा कर डोगरा फौजियों को मार डाला गया. इस बात से गुस्सा होकर जोरावर सिंह ने तीन हजार सैनिकों को इकट्ठा किया और लद्दाख पर एक बार फिर हमला कर दिया.

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इस बार उन्होंने लद्दाख को जागीर नहीं रहने दिया, उसे पूरी तरह जम्मू कश्मीर में विलय कर कर वहां के राजा को एक छोटे से गांव का जागीरदार बना कर वहां भेज दिया. लद्दाख जीतने के कारण जोरावर सिंह का पूरे सिख साम्राज्य में नाम हो चुका था. हालांकि वह यहीं पर नहीं रुके. साल 1840 में उन्होंने काराकोरम के पार बाल्टिस्तान का रुख किया. यहां भी शाही परिवार में हुई बगावत ने जोरावर सिंह को मौका दिया. आखिर में बाल्टिस्तान भी डोगरा राजाओं के शासन के अधीन आ गया. इसके बाद उन्होंने तिब्बत के कई इलाकों पर अपना साम्राज्य स्थापित किया. 

तिब्बतियों से लड़ते हुए मिली वीरगति

12 दिसंबर 1841 को जोरावर सिंह तिब्बतियों के खिलाफ अपनी आखिरी लड़ाई लड़ रहे थे, तभी उनके कंधे में एक गोली आकर लगी. बावजूद इसके वीरा योद्धा ने लड़ना जारी रखा. फिर एक तिब्बती कमांडर ने जोरावर सिंह पर भाले से वार किया और उन्हें वीरगति हासिल हुई. जोरावर सिंह की बहादुरी देख दुश्मन ने भी सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया और तिब्बतियों ने ताकलाकोट पर उनकी समाधि बनाई और उनके नाम पर एक स्मारक भी बनवाया.

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अपनी किताब कैलाश में राजेंद्र अरोड़ा ने कैलाश मानसरोवर यात्रा का ब्यौरा दिया है. इसमें वह लिखते हैं कि जोरावर सिंह की समाधि आज भी उसी जगह है जहां उनकी मौत हुई थी. 21वीं सदी में भी चीन के सैनिक तक इस महान योद्धा का नाम जानते हैं. भारत में जोरावर सिंह के नाम पर एक लाइट टैंक बनाया गया है. इस टैंक को लद्दाख से सटी चीन की सीमा पर तैनात करने की योजना है.

ऐसे में जब आज लद्दाख हिंसा की आग में सुलग रहा है तो हमें जोरावर सिंह जैसे महान योद्धा के बलिदान को भी नहीं भूलना चाहिए. डोगरा सेनापति के पराक्रम और युद्ध कौशल की वजह से ही लद्दाख भारत का हिस्सा बना था.

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