दिल्ली-एनसीआर के हजारों लोग फ्लैट बुक कर पछता रहे हैं, लोगों ने अपने घर का सपना देखा था, अपनी सेविंग लगाकर इंतजार कर रहे थे कि घर में शिफ्ट होंगे तो जिंदगी आसान हो जाएगी, लेकिन उनका सपना ऐसे बिखरा कि उनके लिए घर का ख्वाब एक बुरी हकीकत बनकर रह गया है. सुपरटेक इकोविलेज 2, आम्रपाली ड्रीम वैली, शिवालिक होम्स 2, ATS Le Grandiose 2 जैसे कई प्रोजेक्ट हैं, जिनमें लोगों ने फ्लैट बुक किया था, लेकिन बिल्डर के दिवालिया घोषित होने के बाद उनके प्रोजेक्ट अटके पड़े हैं. आखिर ऐसे केस में बायर्स के पास क्या ऑप्शन होता है?
बिल्डर के दिवालिया होने का ये मतलब नहीं है कि खरीदारों के सारे पैसे डूब जाएंगे. किसी भी कंपनी के दिवालिया होने पर सरकार एक अधिकारी नियुक्त करती है, जो उसके कामकाज की निगरानी रखता है..
दिल्ली-एनसीआर के सैकड़ों प्रोजेक्ट अटके
लोग घर के लिए बैंक से लोन लेते हैं, पैसा बिल्डर के पास जाता है, बिल्डर न तो घर दे रहे हैं और न ही उनके पैसे वापस देते हैं. होम बायर्स एक बार जब ईएमआई के चक्कर में फंस गया तो फंस गया, वो सालों तक लोन भरता है, भले ही घर मिले या मिले. दिल्ली-एनसीआर में सैकड़ों प्रोजक्ट अटके पड़े हैं, जिसमें घर खरीदार 10-15 साल से इंतजार कर रहे हैं, लेकिन घर मिलने की उम्मीद नहीं है.
ATS Le Grandiose 2 के फ्लैट खरीदार मनीष ने अपने करियर के शुरुआती दिनों में अपनी सारी पूंजी लगाकर फ्लैट बुक किया था, लेकिन उनको अपना घर आज तक नहीं मिला. वो बताते हैं उस एरिया के सबसे महंगे प्रोजेक्ट में फ्लैट लिया, लेकिन दो पार्टनर का विवाद हुआ और 2024 में उनका प्रोजेक्ट NCLT में चला गया. उसके बाद यहां काम बिल्कुल बंद हो गया है. करीब डेड़ साल से बस हमें सुनवाई के लिए नई डेट मिलती है. वो कहते हैं बायर्स के करीब 150 करोड़ रुपये कहां गए किसी को पता नहीं चल रहा है.
क्या कहते हैं एक्सपर्ट?
प्रॉपर्टी एक्सपर्ट प्रदीप मिश्रा ने आजतक डिजिटल से बताया - जब कंपनी NCLT में जाती है, तब सबसे पहले IRP की नियुक्ति की जाती है. उसके बाद सारे बायर्स को अपने क्लेम के लिए अप्लाई करना होता है. खरीदारों ने जितना पेमेंट किया है, उसका और साथ में इंट्रेस्ट भी जोड़कर अपना क्लेम अप्लाई करना होता है. IRP का काम होता है सारे क्लेम को देखकर ये अनुमान लगाना कि कंपनी की देनदारी कितनी है. देनदारी देखने के बाद ये फैसला लिया जाता है कि कंपनी आगे चल सकती है या नहीं. वैसे तो पहला मोटिव यही होता है कि कंपनी को रिवाइव किया जाए.
दूसरे डेवलपर करते हैं अधूरा काम पूरा
IRP एक तरह से कंपनी को ही रिप्रजेंट करता है. पहले वो सारी संभावना तलाश करता है प्रोजेक्ट को पूरा करने का, लेकिन अगर लगता है कि ये मुश्किल है, तब वो प्रोजेक्ट इनसॉल्वेंसी में जाता है. आमतौर पर ये भी होता है कि अगर उस प्रॉपर्टी की रियल इस्टेट कास्ट बढ़ गई है तो दूसरे डेवलपर भी कंपनी में रुचि दिखाते हैं.
डेवलपर उस कंपनी को टेकओवर करते हैं, ज्यादातर मामलों में प्रोजेक्ट वाइज टेकओवर होता है. मान लीजिए किसी प्रोजेक्ट को थर्ड पार्टी ने टेकओवर कर लिया, तो वो उस प्रोजेक्ट को पूरा करेगा. डेवलपर अपना प्रपोजल भी लाता है कि वो कैसे उस प्रोजेक्ट को पूरा करेगा, जिसमें वो अपनी शर्तें भी रखता है. जिसे COC (committee of creditors) अप्रूव करती है. COC में होम बायर्स समेत सारे क्रेडिटर्स भी होते हैं. COC उस डेलवपर का रिकॉर्ड चेक करती है और सारी चीजें सही लगती हैं, तब उसे प्रोजेक्ट को दे दिया जाता है.
हालांकि कई खरीदारों की यही शिकायत रहती है कि ये प्रोसेस इतना लंबा चलता है कि उनके घर का इंतजार लंबा खींचता जा रहा है.
स्मिता चंद