पहले ही चुनाव में हार से 10वीं बार CM बनने तक... सियासत के सिकंदर नीतीश कुमार की पूरी कहानी

कभी लालू यादव के साथी रहे नीतीश कुमार अब बिहार में सियासत के सबसे बड़े सिकंदर बन चुके हैं. उन्होंने गुरुवार को 10वीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. यह नया रिकॉर्ड है. हालांकि उनके नौवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने का रिकॉर्ड भी अभी तक कोई नहीं तोड़ पाया.

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नीतीश कुमार ने एक बार फिर साबित कर दिया कि वह सिर्फ नेता नहीं, पूरे राजनीतिक परिदृश्य के गेम चेंजर हैं. (File Photo: PTI) नीतीश कुमार ने एक बार फिर साबित कर दिया कि वह सिर्फ नेता नहीं, पूरे राजनीतिक परिदृश्य के गेम चेंजर हैं. (File Photo: PTI)

आजतक ब्यूरो

  • नई दिल्ली,
  • 19 नवंबर 2025,
  • अपडेटेड 11:45 AM IST

बिहार की सियासत में अगर कोई कहानी सबसे दिलचस्प, सबसे उलझी हुई और सबसे अप्रत्याशित है तो वो है नीतीश कुमार की. एक ऐसा नेता जिसने आंदोलनकारी से लेकर लोकप्रिय मुख्यमंत्री तक का सफर तय किया. कभी केंद्र की राजनीति बदली तो कभी बिहार का चेहरा बदला, विचार बदले, समीकरण बदले, दोस्त बदले, दुश्मन बदले. लेकिन एक चीज हमेशा कायम रही- नीतीश कुमार का असर. 

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बिहार में इस बार की जीत सिर्फ एक चुनावी नतीजा नहीं बल्कि बिहार की राजनीति में आई सुनामी का नाम है. नीतीश कुमार ने एक बार फिर साबित कर दिया कि वह सिर्फ नेता नहीं, पूरे राजनीतिक परिदृश्य के गेम चेंजर हैं. जिस मुकाबले को कांटे की टक्कर बताया जा रहा था, उसमें उन्होंने ऐसी लहर खड़ी की कि विरोधियों के पैर ही उखड़ गए. इस जीत ने साफ कर दिया है अनुभव, रणनीति और भरोसा... यह तीनों जब एक ही नेता में मिलते हैं तो नतीजे इतिहास में दर्ज होते हैं.

अक्टूबर 2005 में हुए चुनाव में जेडीयू को 88 सीटें मिलीं. 2010 में जेडीयू ने कमाल कर दिया और 115 सीटें हासिल कीं. 2015 में जब 71 सीटें आईं तो कहा गया कि नीतीश कुमार का जादू खत्म हो रहा है. और 2020 में जब सिर्फ 43 सीटें मिलीं तो कई राजनीतिक पंडितों ने कहा कि नीतीश की सियासत अब समाप्त होने के दिन आ गए. लेकिन 2025 में 85 सीटें लेकर नीतीश ने बता दिया दबदबा था और दबदबा रहेगा. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 10वीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. यह नया रिकॉर्ड है. हालांकि उनके नौवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने का रिकॉर्ड भी अभी तक कोई नहीं तोड़ पाया.

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कौन कितनी बार बना मुख्यमंत्री

तमिलनाडु की मुख्यमंत्री रही जयललिता और हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह ने छह-छह बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी. सिक्किम के मुख्यमंत्री रहे पवन कुमार चामलिंग, ओसा के मुख्यमंत्री रहे नवीन पटनायक और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु ने पांच-पांच बार शपथ ली थी.

कभी लालू यादव के साथी रहे नीतीश कुमार अब बिहार में सियासत के सबसे बड़े सिकंदर बन चुके हैं. वो नेता जिसने कभी किसी और के लिए पोस्टर लगाए, आज खुद बिहार की राजनीति का सबसे मजबूत चेहरा बन गए हैं. जेपी आंदोलन से लेकर पार्टी बनाने तक, उस वक्त से नीतीश को हर मोड़ पर परख और हर बार उन्होंने खुद को नए सिरे से गड़ा है.

इस बार के चुनावों में नीतीश कुमार की जीत ने तय कर दिया है कि तेजस्वी यादव को अभी और इंतजार करना पड़ेगा. लेकिन नीतीश कुमार की यह जीत आसान नहीं है. यह जीत उन्हें विरासत में नहीं मिली. यह जीत संघर्ष की कहानी कहती है.

दरअसल, नीतीश कुमार का जन्म मार्च 1951 में बिहार के बख्तियारपुर में हुआ था. चार भाई-बहनों में नीतीश सबसे छोटे थे. घर में सभी नीतीश कुमार को मुन्ना बुलाया करते थे. पिता रामलखन सिंह आयुर्वेदिक डॉक्टर और कांग्रेस के बड़े नेता थे. मां परमेश्वरी देवी खेती और घर संभालती थीं. नीतीश के 10वीं में अच्छे नंबर आए तो परिवार ने उनको इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पटना भेज दिया.

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1972 में कॉलेज में स्टूडेंट यूनियन के अध्यक्ष बने नीतीश

कॉलेज में नीतीश यूनाइटेड स्टूडेंट्स फ्रंट से जुड़ गए, जो कांग्रेस के खिलाफ आंदोलन चला रहे थे. कभी कॉलेज तक बस चलाने के लिए आंदोलन किया तो कभी छात्रों की दूसरी समस्या पर. लेकिन कॉलेज ने नीतीश को अपना नेता मान लिया था. 1972 में नीतीश ने बिहार अभियंत्रण महाविद्यालय स्टूडेंट्स यूनियन बनाई और इसके अध्यक्ष बने. कॉलेज के आखिरी साल में ही उनकी शादी नालंदा में रहने वाली मंजू कुमारी सिन्हा से तय हुआ और 22 फरवरी 1973 को नीतीश और मंजू की शादी हुई.

नीतीश कुमार को पढ़ाई पूरी करने के बाद बिजली विभाग में ट्रेनी इंजीनियर की नौकरी मिल गई थी. लेकिन वह नौकरी छोड़कर पटना लौट गए और जेपी आंदोलन से जुड़ गए. जेल से बाहर निकले तो चुनावी पारी की शुरुआत की. 1977 में पहली बार जनता पार्टी ने 26 साल के नीतीश को नालंदा की हरनौत सीट से टिकट दिया. लेकिन नीतीश हार गए. 1980 में फिर नीतीश ने हरनौत सीट से चुनाव लड़ा और फिर हार गए. 1985 में नीतीश कुमार ने कसम खाई कि अगर इस बार भी हार गए तो चुनाव नहीं लड़ेंगे.

पत्नी ने चुनाव लड़ने के लिए ₹20,000 दिए और इस बार वह 22,000 वोटों से जीत गए. 1989 में लोकसभा चुनाव जीतकर नीतीश दिल्ली चले गए. लेकिन लालू यादव बिहार में डटे रहे. 1989 में बिहार में कांग्रेस की सरकार थी और कर्पूरी ठाकुर विपक्ष के नेता थे. 1988 में कर्पूरी ठाकुर का अचानक निधन हो गया और उस वक्त के सियासी समीकरणों ने लालू को विपक्ष का नेता बना दिया. नीतीश तब लालू के साथ बिना शर्त खड़े थे और 1990 में जब प्रधानमंत्री वीपी सिंह के पसंदीदा उम्मीदवार रामसुंदर दास को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने की बात उठी तब लालू के हक में सबसे आगे नीतीश कुमार खड़े थे.

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कभी लालू यादव के हनुमान थे नीतीश

1990 में बिहार विधानसभा चुनाव में जनता दल ने जीत हासिल की और लालू प्रसाद यादव पहली बार मुख्यमंत्री बने. उस समय नीतीश कुमार लालू के सबसे भरोसेमंद सहयोगियों में गिने जाते थे. लालू की लोकप्रियता गांव में तेजी से बढ़ रही थी. लेकिन शासन में भ्रष्टाचार, जातिवाद और दबंगई के आरोप लगने लगे. लालू के प्रताप से नीतीश का मोह भंग हुआ और संपूर्ण क्रांति रथ के दोनों पहहिए अलग-अलग दिशाओं में दौड़ने लगे.

1995 का विधानसभा चुनाव आते-आते नीतीश कुमार लालू के खिलाफ नई पार्टी बनाकर चुनावी रणनीति में उतर चुके थे. जॉर्ज फर्नांडिस के साथ समता पार्टी बनाकर नीतीश अपनी चुनावी सभाओं में लालू राज के प्रशासन की पोल खोलने लगे. चुनाव में नीतीश कुमार अपना नया दल समता पार्टी बनाकर उतरे लेकिन लालू का कद तब बिहार में सबसे ज्यादा ताकतवर था. 167 सीटों के साथ लालू तमाम आरोपों के बीच पूर्ण बहुमत के साथ 1995 में एक बार फिर सत्ता में लौटे और नीतीश की नई पार्टी सात सीटों पर सिमट गई.

साल 2000 में जब बिहार चुनाव हुए तो लगभग हर राजनैतिक विश्लेषक ने लालू के अंत की भविष्यवाणी कर दी थी. क्योंकि इस लड़ाई में एक ओर अकेले लालू यादव थे और दूसरी तरफ वाजपेई, आडवाणी, जॉर्ज फर्नांडिस, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, शरद यादव, शत्रुघ्न सिन्हा जैसे नेता थे. लालू यादव ने जोड़तोड़ से भले ही सरकार बना ली, लेकिन बिहार की सियासत में नीतीश कुमार, लालू यादव के बराबर खड़े हो गए थे.

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जब 7 दिन ही चली नीतीश कुमार की सरकार

दरअसल, उस चुनाव में एनडीए को 122 सीटें मिली थीं. नीतीश कुमार सर्वसम्मति से सीएम के तौर पर कुबूल थे. उन्होंने राज्यपाल को 146 विधायकों की सूची सौंपी और आरजेडी के विरोध के बावजूद उन्हें शपथ दिला दी गई. हालांकि बाद में सात दिन ही सरकार चल चल सकी थी. नीतीश कुमार बहुमत साबित नहीं कर सके थे. लेकिन ये ड्रामे का अंत नहीं था. लालू यादव दिल्ली गए. सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता से दूर रखने की खातिर कांग्रेस का समर्थन हासिल किया. छोटी पार्टियां, इंडिपेंडेंट एमएलए... सबको लालू ने अपने साथ बनाए रखा.

आखिरकार विश्वास मत से पहले ही नीतीश कुमार को अपनी कमजोरी का एहसास हो गया था. उन्होंने केवल 7 दिनों में ही कुर्सी छोड़ दी थी. राज्यपाल को राबड़ी देवी को सरकार बनाने का न्योता देना पड़ा. कांग्रेस का बाहरी समर्थन मिला और राबड़ी देवी बिहार की मुख्यमंत्री बन गईं. सरकार बनने के कुछ ही सालों में तीन बड़ी घटनाएं हुईं. राबड़ी देवी का भी नाम चारा घोटाले में आ गया. लालू को तीसरी दफा जेल जाना पड़ा और 5 नवंबर 2000 को बिहार से अलग झारखंड राज्य बन गया.

2005 में नीतीश की अगुवाई में एनडीए को मिला बहुमत

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साल 2004 में आम चुनाव हुए. एनडीए 169 सीटों पर सिमट गई. कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी. सरकार बनाने के लिए यूपीए का गठन हुआ. आरजेडी इस गठबंधन में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी और लालू यादव रेल मंत्री बने. दूसरी तरफ 2005 में बिहार एक बार फिर विधानसभा चुनाव के लिए तैयार था. फरवरी 2005 में जो चुनाव हुए उसमें बिहार ने किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं दिया और बिहार में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. 9 महीने बाद जब नवंबर 2005 में दोबारा चुनाव हुए तब नीतीश की अगुवाई में एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिला. बीजेपी जेडीयू को 143 सीटें मिलीं. आरजेडी 54 सीटों पर सिमट गई.

बिहार अब खुलकर सांस ले रहा था. नीतीश कुमार की अगुवाई में जेडीयू बीजेपी सरकार ने जंगल राज खत्म करने की दिशा में जो कदम उठाए, वो चुनावी नतीजों की शक्ल में नजर आए. 2010 का पूरा चुनाव नीतीश कुमार के कामकाज पर, उनके गवर्नेंस पर, उनके विकास के कामों पर और कानून व्यवस्था के मामले पर उनकी सरकार के द्वारा उठाए गए कड़े कदम थे, उन पर हुआ. लोगों ने दोबारा नीतीश कुमार को भारी बहुमत के साथ मौका दिया. राज्य में विकास और सुशासन का संयुक्त श्रेय जेडीयू और बीजेपी का था.

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जब नरेंद्र मोदी के विरोध में खुलकर सामने आए नीतीश

प्रधानमंत्री पद के लिए आडवाणी के बाद बीजेपी में चर्चा नरेंद्र मोदी के नाम पर हो रही थी और नरेंद्र मोदी के नाम से नीतीश कुमार को ऐतराज था. नीतीश अब तक एक्सक्लूसिव वोट बैंक के समीकरण को तलाश चुके थे. यही कारण था कि बीजेपी के साथ रहने के बावजूद वो गुजरात के तत्कालीन सीएम नरेंद्र मोदी से दूरी बनाए रखना चाहते थे. नीतीश कुमार 2004 में एनडीए की हार की सबसे बड़ी वजह नरेंद्र मोदी को मानते थे. 2009 के आम चुनाव में मिली एनडीए की हार के लिए भी उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व की विफलता नहीं, बल्कि नरेंद्र मोदी की राजनीति को जिम्मेदार माना. लेकिन समय बदला, समीकरण बदले. नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मिलकर बिहार की सियासत में इतिहास रच दिया.

2009 में आडवाणी हार चुके थे. लेकिन हार के बावजूद 2014 में भी एनडीए में पीएम पद की उम्मीदवारी की उम्मीद लगाए बैठे थे. पर बीजेपी के भीतर अब मोदी के लिए समर्थन बढ़ रहा था. 9 जून 2013 को बीजेपी ने गोवा में मोदी को आम चुनाव के लिए बीजेपी की प्रचार समिति का अध्यक्ष घोषित कर दिया. गोवा अधिवेशन की घोषणा के 13 दिन बाद 16 जून 2013 को नीतीश कुमार ने 17 साल पुराने रिश्ते को तोड़ दिया. तब नीतीश सीधे राजभवन पहुंचे और राज्यपाल को बता दिया कि वह 19 जून 2013 को नया विश्वास मत हासिल करेंगे.

19 जून को शक्ति परीक्षण के दिन जेडीयू के 117 विधायकों के अलावा चार निर्दलीय, चार कांग्रेस और एक सीपीआई विधायक का नीतीश को समर्थन मिला. कुल 126 के साथ नीतीश ने अपनी शक्ति दिखा दी. बीजेपी के 91 विधायकों ने वॉकआउ किया और आरजेडी के 22 विधायकों समेत कुल 24 ने प्रस्ताव के खिलाफ वोट किया. नीतीश कुमार खुलकर नरेंद्र मोदी पर निशाना साधने लगे. 2014 के आम चुनाव दोनों ही पार्टियों या यूं कहें कि दोनों ही नेताओं के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया. एनडीए ने बिहार में 40 में से 31 सीटें जीत ली, जिनमें 22 सिर्फ बीजेपी ने जीती. नीतीश के जेडीयू को मिली केवल दो सीटें और आरजेडी ने हासिल कीं चार साटें.

नीतीश की लाख कोशिशों के बावजूद प्रधानमंत्री बने मोदी

नीतीश की लाख कोशिशों के बावजूद नरेंद्र मोदी पीएम बन गए थे. बिहार में जेडीयू की हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए उन्होंने मुख्यमंत्री पद से ही इस्तीफा दे दिया. नीतीश ने बिहार की जिम्मेदारी जीतन राम मांझी को सौंपी. लेकिन कुछ महीनों में ही नीतीश का भरोसा डगमगाने लगा. नीतीश अब अपनी मुख्यमंत्री की कुर्सी वापस चाहते थे. 50 से ज्यादा विधायकों ने नीतीश को दोबारा सीएम बनाने की सिफारिश कर दी और नीतीश एक बार फिर बिहार के मुख्यमंत्री बन गए. लेकिन इस बार लालू के सहयोग से.

पाटलिपुत्र की राजनीति दिलचस्प पड़ाव पर आ चुकी थी. लालू नीतीश जिनका सियासी अस्तित्व ही एक दूसरे का धुर विरोध था, वो एक रथ के सारथी बन चुके थे. 2015 का विधानसभा चुनाव आया. महागठबंधन में लालू की आरजेडी को 80 सीटें मिली. नीतीश कुमार की जेडीयू को 71, कांग्रेस को 27 सीटें मिलीं. आरजेडी-जेडीयू की साझा सरकार के सीएम नीतीश कुमार ने पांचवी बार बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली. उसके बाद पहली बार के विधायक बने लालू के छोटे बेटे तेजस्वी यादव ने शपथ ली. और कुछ ही महीनों बाद लालू का पूरा का पूरा परिवार भ्रष्टाचार के आरोपों के तहत जांच के दायरे में आ गया. आरजेडी के साथ नीतीश की सरकार करीब 20 महीनों तक चली.

2017 में फिर बीजेपी के समर्थन से सीएम बने नीतीश

इस्तीफे की रात ही बीजेपी ने वापस नीतीश कुमार को समर्थन का ऐलान कर दिया. 27 जुलाई 2017 को नीतीश कुमार ने एनडीए में वापसी के साथ ही एनडीए के समर्थन से बिहार में छठी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. छठी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश कुमार बिहार के सबसे ज्यादा बार और सबसे लंबे समय तक रहने वाले मुख्यमंत्री बन गए. एक समय था जब कयास यह लगाए जा रहे थे कि मोदी विरोध का चेहरा विपक्षी राजनीति में नीतीश हो सकते हैं. एक समय यह आ चुका था कि नीतीश कुमार ही एनडीए का हिस्सा फिर से बन चुके थे. 2020 के विधानसभा चुनावों ने जैसे-जैसे दस्तक देनी शुरू की, यह सवाल फिर से उठने लगा था कि कौन किसके साथ जाएगा?

चुनाव परिणाम आए तो आरजेडी को 75 सीटें मिली. बीजेपी को 74, जेडीयू को 43, कांग्रेस को 19 और लेफ्ट पार्टी को 12 सीटें मिली. जेडीयू तीसरे नंबर की पार्टी थी. अब इसे बिहार का सियासी गणित कहिए या बिहार राजनीति का राष्ट्रीय राजनीति में महत्व कि बीजेपी ने नीतीश को कम सीटें होने के बावजूद मुख्यमंत्री के तौर पर स्वीकार किया. नीतीश कुमार ने सातवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. नीतीश एनडीए के साथ थे, लेकिन अब उनकी पार्टी के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लगने लगा था. सरकार के 2 साल होते-होते नीतीश का एक बार फिर एनडीए से मोह भंग हो गया. 10 अगस्त 2022 को नीतीश कुमार ने एनडीए से गठबंधन तोड़ दिया और एक बार फिर महागठबंधन की बाह पकड़ ली.

जब नीतीश ने खाई बीजेपी से हाथ न मिलने की कसम

नीतीश ने कसम खाई कि अब कभी बीजेपी के साथ हाथ नहीं मिलाएंगे. नीतीश तुरंत महागठबंधन का हिस्सा हो गए और महागठबंधन की तरफ से उन्होंने आठवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. तेजस्वी यादव एक बार फिर उप मुख्यमंत्री बने. बीजेपी नीतीश के कदम से बेहद गुस्से में थी क्योंकि 2024 का लोकसभा चुनाव सामने था और ऐसे में नीतीश के कदम ने एनडीए के सामने बड़ा संकट खड़ा कर दिया. 2024 के आम चुनावों की घोषणा से पहले ही उन्होंने विपक्षी गठबंधन से किनारा कर दिया. 28 जनवरी 2024 को नीतीश ने एनडीए के सहयोग से नौवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.

2025 में पाटलिपुत्र ने फिर से नीतीश कुमार नाम की गाथा लिख दी है. नीतीश के नेतृत्व में एक बार फिर एनडीए का रथ बिहार में 5 साल तक दौड़ेगा.

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