अफसोस! बांग्लादेश में खाक हो गया 'छायानट'... चरमपंथ की आग में जल गई बंगाली चेतना और संस्कृति

बांग्लादेश की प्रमुख सांस्कृतिक संस्था छायानट पर 18 दिसंबर 2025 को धानमंडी में हमला हुआ, जिसमें इसका भवन आग के हवाले कर दिया गया. यह संस्था 1961 से बंगाली संस्कृति, संगीत और कला के संरक्षण का प्रतीक रही है.

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बांग्लादेश की राजधानी ढाका स्थित सांस्कृतिक केंद्र छायानट के दफ्तर में तोड़फोड़ की गई और उसे जला दिया गया बांग्लादेश की राजधानी ढाका स्थित सांस्कृतिक केंद्र छायानट के दफ्तर में तोड़फोड़ की गई और उसे जला दिया गया

विकास पोरवाल

  • नई दिल्ली,
  • 22 दिसंबर 2025,
  • अपडेटेड 5:55 PM IST

बांग्लादेश... भारत के इस पड़ोसी देश में चरमपंथ की ऐसी आग भड़की है कि इसमें इंसान, इंसानियत, संस्कृति, कला, संप्रदाय और समुदाय एक-एक करके खाक हुए जा रहे हैं. बीते हफ्ते कई दुर्दांत घटनाओं के बीच ऐसा भी हुआ जिसपर हो सकता है कि बहुत बात न की जाए, लेकिन कई जली-अधजली देहों के बीच एक और 'लाश' पड़ी मिली. 

सवाल उठेगा कि ये किसकी 'लाश' थी? जवाब- ये लाश थी 'कला' की, संस्कृति की और इसके संरक्षण के सबसे बड़े प्रतीक 'छायानट' संस्था की. बीते 18 दिसंबर 2025 को बांग्लादेश के ढाका में धानमंडी के पास मौजूद छायानट के दफ्तर को तहस-नहस कर दिया गया और इसे भीषण आग में झोक दिया गया. नतीजा... अब धानमंडी के 'छायानट' भवन में हैं टूटे-फूटे, जले हुए अवशेष...

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बांग्लादेश के लिए छायानाट की क्या अहमियत है ये जानने के लिए कैलेंडर में कुछ पीछे की तारीखों में चलते हैं. 

14 अप्रैल 2001... बांग्लादेश की राजधानी ढाका में मौजूद रमना पार्क रंग-बिरंगे परिधानों में सजे कलाकारों से गुलजार था. ये कलाकार बरगद के एक पेड़ के नीचे इकट्ठा थे और इस बरगद का चबूतरा ही उनके लिए मंच था. स्थानीय लोगों सहित पूरे बांग्लादेश में और उससे भी आगे दुनिया भर में बरगद की छांव में बना ये चबूतरा बटमूल कहलाता है. बटमूल यानी बरगद की जड़... लेकिन ये मूल, ये जड़, ये तरुछाया सिर्फ बरगद की नहीं थी, यह संस्कारों और संस्कृतियों की समृद्ध जड़ थी. मनुष्यता की पहचान और असल में जमीन से जुड़े होने की पहचान...

बांग्लादेश के ढाका में 'छायानट' (सांस्कृतिक केंद्र) के दफ्तर को आग लगा दी गई

लेकिन उस रोज जैसे ही कलाकारों ने गीत 'ए की अपरूप रूपे मा तोमाय हेरिनु पल्लि जनेनी' गाना शुरू किया, अगली ही पंक्ति में सुर, लय-ताल की आवाज दो घातक विस्फोटों में दब गई और जब धूल-धुएं-धुंध का गुबार छटा तो वहां खून से लथपथ 10 शव पड़े थे. जिन्हें पहचानना मुश्किल था. वह चीथड़ों में तब्दील हो चुके था. संगीत अब शोर में बदल चुका था और 'बटमूल' जो संस्कृति की रंगत की पहचान था, वह रंक्तरंजित हो चुका था.

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रमना पार्क 'बटमूल ब्लास्ट'
रमना पार्क में 'बटमूल' के नीचे हुई यह घटना 'बटमूल ब्लास्ट' नाम से देश-दुनिया में सुर्खियों में छा गई. इस नाम से आहत हुआ कलाकारों का एक खास वर्ग तीन दिन बाद सामने आया और उन्होंने कहा- बटमूल संगीत और संस्कृति की पहचान रहा है वह किसी ब्लास्ट के लिए नहीं जाना जाएगा. 'छायानट' बांग्लादेश की इस सांस्कृतिक धरोहर को संजोता आया है और संजोता रहेगा.

सवाल उठता है कि 'छायानट' क्या है? वह 'बटमूल' कौन सी संस्कृति को संजोने की बात कर रहा था और आखिर 14 अप्रैल की उस दोपहर वहां हो क्या रहा था?

इन सभी सवालों के जवाब एक लाइन में दें तो बात इतनी सी है कि 'छायानट' बांग्लादेश की वह सांस्कृतिक संस्था है जो बीते 65 वर्षों से भारत के इस पड़ोसी राज्य में गीत-संगीत, कला-संस्कृति की लौ को जलाए रखे थी. 14 अप्रैल 2001 की दोपहर इसी संस्था के तहत 'पहला बोईशाख' (बंगाली नववर्ष, जो बैशाख मास के शुरू होने पर मनाया जाता है. पहली फसल के आने का त्योहार) उत्सव मनाया जा रहा था. इस उत्सव की परंपरा ही यह रही थी कि बीते लगभग 40 वर्षों से यह आयोजन 'बटमूल' के नीचे ही हो रहा था. क्योंकि यही 'बटमूल' छायानट संस्था का जन्मस्थान भी था. उसकी सांस्कृतिक नींव, इसकी जड़ें इसी वट वृक्ष के साथ एकाकार होती हुईं साल दर साल गहरी हो रहीं थीं, लेकिन कट्टरवादी चरम पंथ को यह फूटी आंख न सुहाता था.

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रमना पार्क बटमूल के नीचे 'पहिला बोईशाख' आयोजन... छायानट के आर्काइव में ये तस्वीरें अब इतिहास हैं

लिहाजा.... 18 दिसंबर 2025 की रात धानमंडी में मौजूद 'छायानट' के दफ्तर में भयंकर तोड़फोड़ की गई और फिर इसके भवन को आग के हवाले कर दिया गया. छायानट अब खाक हो गया और इसी के साथ वो उम्मीद भी खाक हो गई, जिसके जरिये संगीतकार कालीम शरीफी, कवियत्री सोफिया कमाल, वहीदुल हक, मोखलेसुर रहमान जैसे कलम और कलाम के इन सिपहसालारों ने एक रंगारंग समावेशी संस्कृति का प्रतीक बांग्लादेश बनाने का सपना देखा था.

पर अफसोस कि छायानट खाक हो गया...

छायानट क्या था और इसके न होने पर ये अफसोस क्यों ? इस दर्द को आप बिना इसके इतिहास जाने नहीं समझ सकते हैं. जब किसी समाज की पहचान पर संकट आता है, तब संस्कृति केवल मनोरंजन नहीं रह जाती, बल्कि प्रतिरोध का औजार बन जाती है. भाषा, संगीत, नाटक और लोक परंपराएं सत्ता की नीतियों के विरुद्ध खड़े होने का साहस जुटाती हैं. बांग्लादेश में 'छायानट' इसी सांस्कृतिक प्रतिरोध का उदाहरण था. यह संस्था केवल एक सांस्कृतिक संगठन नहीं, बल्कि बंगाली अस्मिता, स्वतंत्रता और सांस्कृतिक आत्मसम्मान की जीवित चेतना रही है.

छायानट की स्थापना साल 1961 में हुई, उस समय जब आज का बांग्लादेश पाकिस्तान का हिस्सा था और इसे 'पूर्वी पाकिस्तान' कहा जाता था. उस दौर में जब पाकिस्तानी सैन्य शासन के जरिये बंगाली भाषा और संस्कृति को सिस्टम से ही हाशिये पर धकेलने की कोशिशें हो रही थीं, तब छायानट की संकल्पना ने अपना आकार गढ़ा और हिटलरी कोशिश का डटकर सामना किया.

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बंगाली धरती पर उसकी खास पहचान रहा है बाउल और रवींद्र संगीत... पाकिस्तानी सैन्य शासन ने बंगाली चेतना के इस मूल स्वर पर प्रतिबंध लगा दिया. ऐसे समय में संगीतज्ञ कलिम शरीफी (जिन्होंने बांग्लादेश के रेडियो और टेलीविजन की भी स्थापना की), कवयित्री सोफिया कमाल (नारीवादी नेता और स्वतंत्र बांग्लादेश की पैरोकार), वहीदुल हक (द डेली स्टार के पूर्व संपादक और टैगोर गीतों के विशेषज्ञ), संजीदा खातून (बांग्लादेशी संगीतज्ञ) और मोखलेसुर रहमान (सिद्धू भाई) जैसे सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं ने मिलकर एक ऐसे संगठन की परिकल्पना की, जो संगीत, नाटक और नृत्य के माध्यम से बंगाली संस्कृति की रक्षा कर सके.

छायानट भवन... धानमंडी ढाका, बांग्लादेश

कैसे पड़ा छायानट नाम?
संस्था का नाम ‘छायानट’ रखने का प्रस्ताव दिया गया, जिसका अर्थ है – 'वृक्ष की छाया में नृत्य' यानी संरक्षण, आश्रय और निरंतरता. छायानट नाम रखने का अर्थ सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं रह जाता है. इसके गहरे अर्थ में जाएं तो शास्त्रीय संगीत में एक प्रसिद्ध राग भी है, 'राग छायानट'. कल्याण थाट से निकला और रात के पहले पहर में गाया जाने वाला ये राग शृंगार के साथ गहरी अनुभूति रचता है. यह केवल मधुरता ही नहीं, बल्कि एक गहन, आध्यात्मिक आनंद का अहसास कराता है.

संगीत को कला से उठाकर आत्म-साक्षात्कार (self-realization) की ओर ले जाता है, जो भारतीय संगीत की आध्यात्मिक परंपरा का मूल है. यही वजह है कि बाउल संगीत के गीतों की अधिकतर रचना कल्याण थाट के रागों जैसे बिलावल, अहिल्या बिलावल, यमन, हमीर और छायानट राग में बंधी हुई मिलती है.

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छायानट... जिसने कला-संस्कृति के जरिए लड़ी अस्मिता की लड़ाई
खैर... छायानट पर लौटते हैं. 1960 के दशक में छायानट का काम आसान नहीं था. रवींद्र संगीत के सार्वजनिक प्रदर्शन पर रोक के बावजूद छायानट ने इसे गुप्त और सार्वजनिक दोनों रूपों में जीवित रखा. संस्था की शाखाएं विभिन्न जिलों-शहरों में एक तरह से 'अंडरग्राउंड नेटवर्क' की तरह फैलने लगीं.

यही कारण है कि छायानट धीरे-धीरे केवल एक सांस्कृतिक संगठन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक आंदोलन बन गया. 1961 में रवींद्रनाथ ठाकुर की जन्मशती के अवसर पर हुए आयोजनों ने इस आंदोलन को और ऊर्जा दी. बंगाली समाज को यह एहसास हुआ कि संस्कृति पर हमला, असल में पहचान पर हमला है.

छायानट की पहली कार्यकारिणी समिति में सुफिया कमाल अध्यक्ष और फरीदा हसन महासचिव बनीं. उपाध्यक्षों में जाहुर हुसैन चौधरी और सईदुल हसन थे. समिति में वहीदुल हक, संजिदा खातून, कमाल लोहानी जैसे कई नाम शामिल थे, जो आगे चलकर बांग्लादेश की सांस्कृतिक पहचान बने. संस्था का पहला कार्यक्रम ढाका के 'इंजीनियर्स इंस्टिट्यूट ऑडिटोरियम' में हुआ, जहां पुराने बंगाली गीतों का संकलन प्रस्तुत किया गया. 1963 में 'बांग्ला अकादमी' के बरामदे में संगीत की कक्षाएं शुरू हुईं. रवींद्र संगीत, नज़रूल गीत, तबला, वायलिन और सितार की नियमित शिक्षा दी जाने लगी. इसी वर्ष छायानट संगीत विद्यालय की औपचारिक स्थापना भी हुई.

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बटमूल की छांव में 'पोहेला बोइशाख' समारोह
छायानट की सबसे ऐतिहासिक और पहचान बनाने वाली परंपरा है - 'रमना पार्क के वटवृक्ष (बटमूल)' के नीचे 'पोहेला बोइशाख' यानी बंगाली नववर्ष का आयोजन. इसकी शुरुआत '1964' में हुई. यह आयोजन धीरे-धीरे बांग्लादेश का सबसे बड़ा और प्रतीकात्मक सांस्कृतिक उत्सव बन गया. सुबह की पहली रोशनी में रवींद्रनाथ ठाकुर का गीत *“एशो हे बोइशाख”* गूंजता रहा, जो केवल नववर्ष का स्वागत नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण की उद्घोषणा बन चुका है.

'1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम' के दौरान छायानट के कई प्रमुख सदस्य भारत चले गए. कोलकाता में उन्होंने 'मुक्ति संग्रामी शिल्पी संस्था' बनाई, जिसमें बंगाली कलाकारों ने शरणार्थी शिविरों और मुक्ति सेनानियों के लिए कार्यक्रम किए. संगीत नाटक ‘रूपांतरेर गान’ के जरिए संघर्ष की कथा गाई गई. रवींद्र सदन में आयोजित कार्यक्रमों में हेमंत मुखोपाध्याय, देबब्रत बिस्वास, कणिका बंद्योपाध्याय और सुचित्रा मित्रा जैसे कलाकारों ने भाग लिया. इन कार्यक्रमों से जुटाई गई राशि मुक्ति संग्राम के लिए समर्पित की गई. यही सांस्कृतिक आंदोलन आगे चलकर फिल्म मेकर तारेक मसूद की डॉक्यूमेंट्री ‘मुक्तिर गान’ का विषय बना.

छायानट के दफ्तर में वाद्ययंत्र भी तोड़ दिए गए

स्वतंत्रता के बाद छायानट को ढाका विश्वविद्यालय के 'यूनिवर्सिटी लैबोरेटरी स्कूल' परिसर में काम करने की परमिशन मिली, जहां वह लगभग तीन दशकों तक एक्टिव संस्था के रूप में स्वतंत्रता से काम करता रहा. यह व्यवस्था तत्कालीन प्राचार्य 'डॉ. नूरुन नाहर फैज़ुन्नेसा और कुलपति प्रो. मोज़्ज़फ्फर अहमद चौधरी के सहयोग से संभव हुई. 1999 में बांग्लादेश सरकार ने छायानट को धानमंडी में एक बीघा जमीन आवंटित की. यहीं बना 'छायानट संस्कृति भवन', जिसे प्रसिद्ध वास्तुकार 'बशीरुल हक' ने डिज़ाइन किया. इसमें आधुनिक सभागार, पुस्तकालय, संगीत कक्षाएं, रिकॉर्डिंग स्टूडियो और सांस्कृतिक संग्रहालय शामिल हैं.

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14 अप्रैल 2001 को पोहेला बोइशाख के आयोजन के दौरान रामना बटमूल में भयावह आतंकी हमला हुआ. जैसे ही गीत 'ए की अपरूप रूपे मा तोमाय हेरिनु पल्लि जननी' गाया जा रहा था, दो बम विस्फोट हुए. इस हमले में '10 लोगों की मौत' हुई और करीब 50 लोग घायल हुए. इस हमले के पीछे आतंकी संगठन 'हर्कत-उल-जिहाद-अल-इस्लामी (हुजी)' का हाथ था. बाद में अदालतों ने दोषियों को सज़ा सुनाई. छायानट ने स्पष्ट किया कि आतंकवाद बंगाली नववर्ष और सांस्कृतिक परंपराओं को नहीं रोक सकता.

छायानट को साल 2015 में भारत सरकार द्वारा स्थापित **रवींद्रनाथ टैगोर अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किया गया. 2019 में बांग्लादेश सरकार ने इसे 'शिल्पकला पदक' से सम्मानित किया गया था.

बांग्लादेश जल रहा है. जल रहे हैं जिस्म और खाक बनकर उड़ रही है संस्कृति, संगीत और चेतना की परंपरा... छायानट भी जल चुका है. सवाल है कि अगले चार महीने में जब बैशाख आएगा तो क्या 'बटमूल' के नीचे रवींद्र संगीत 'एशो हे बोइशाख' गूंजेंगा? जवाब है आग, राख और नाउम्मीदी... क्योंकि अफसोस 'छायानट' जल चुका है....

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