कोरोना के शुरुआती वक्त में चीन काफी घिरा हुआ था. कई देश आरोप लगा रहे थे कि कोरोना वायरस चीन के वुहान मार्केट से फैला. ये वो बाजार है, जहां एग्जॉटिक एनिमल मीट मिलता है, जैसे सांप, चमगादड़. चीन ने आरोपों को सिरे से नकारते हुए तब वुहान मार्केट को बंद करा दिया. ये भी पक्का नहीं हो सका कि वायरस आखिर फैला कहां से. लेकिन इस बीच चीन के सबकुछ खाकर पचा सकने की बात खूब कही जाने लगी. लेकिन चाइनीज आबादी के लिए दूध पचाना मुश्किल रहा.
क्या कहता है अध्ययन
चीन की थोड़ी-बहुत नहीं, बल्कि करीब 92% आबादी लैक्टोज इनटॉलेरेंट है. अमेरिकी बायोमेडिकल लाइब्रेरी नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन में ये स्टडी छपी है. अध्ययन के अनुसार सबसे ज्यादा प्रभावित लोग नॉर्थईस्टर्न चीन से हैं, लेकिन बाकी हिस्सों में भी असर 80 प्रतिशत से ज्यादा है, यानी लोगों को दूध के पाचन में समस्या रहती है. काफी सारे लोग ऐसे हैं जो दूध बिल्कुल भी पचा नहीं सकते, वहीं बाकी आबादी में मालएब्जॉर्प्शन की परेशानी है. वे डाइजेस्ट तो कर पाते हैं, लेकिन दूध के पोषक तत्वों का पूरा फायदा नहीं मिल पाता.
बच्चों में भी उम्र के साथ बढ़ती है परेशानी
चाइनीज प्रिवेंटिव मेडिसिन एसोसिएशन (CPMA) ने भी एक अध्ययन में पाया कि छोटे बच्चों को भले ही दूध दिया जाए, लेकिन जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती है, दूध का पाचन मुश्किल होता चला जाता है. CPMA की मानें तो 11 से 14 साल के 40% बच्चों में लैक्टोज इनटॉलेरेंस पैदा हो चुका होता है.

क्या है दूध को न पचा पाने वाली बीमारी
इसे लैक्टोज इनटॉलेरेंस कहते हैं. इसमें दूध ही नहीं, उससे बनी कई सारी चीजें पच नहीं पातीं. लैक्टोज दूध में मिलने वाली शुगर है. इसे पचाने के लिए आंत में जो एंजाइम बनती है, उसे लेक्टेज कहते हैं. जब छोटी आंत में ये एंजाइम ठीक से नहीं बन पाता तो दूध पच नहीं पाता.
चीन क्यों नहीं पचा पाता दूध
इसकी ठीक-ठीक वजह कभी पता नहीं चल सकी. माना जाता है कि पुराने समय में चीन की बड़ी आबादी की डाइट में दूध या डेयरी उत्पाद ही नहीं थे. धीरे-धीरे उनका शरीर इसी तरह ढल गया. चाइनीज लोगों के शरीर में लैक्टोज पचाने वाले एंजाइम की कमी हो गई. एंथ्रोपोलॉजिस्ट ने इसे नॉनमिल्किंग कल्चर मान लिया. चीनियों में दूध को लेकर पूर्वाग्रह भी था. चूंकि पश्चिमी देश डेयरी प्रोडक्ट खूब खाते-पीते थे और चीन का पश्चिम से विरोध रहा तो खाने-पीने के उन तरीकों का भी विरोध चलता रहा. दूध भी इसमें गेहूं में घुन की तरह आ गया. इसके बाद छोटे बच्चों में भी दूध पचाने को लेकर मुश्किल होने लगी.
वैसे समय और कोशिश से इसे बदला भी जा सकता है, लेकिन ये तभी संभव है, जब बचपन से ही दूध पीने की आदत डाली जाए. यही सोचते हुए चीन ने साल 2000 में एक प्रोग्राम लॉन्च किया, जिसमें बच्चों को रोज एक कप दूध दिया जाता. पेरेंट्स को भी कहा जाने लगा कि वे घर पर बच्चों के खाने में दूध भी शामिल करें.

अब क्या बदला है
बाहर घुलने-मिलने की वजह काफी कुछ अलग हुआ. खाने-पीने की आदतें देखादेखी बदलीं. चीन के लोग भी अब डेयरी प्रोडक्ट लेने लगे हैं. वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम की रिपोर्ट से बीते और अब के समय में फर्क साफ दिखेगा. इसके मुताबिक, साल 1961 में जहां पूरे साल में प्रति व्यक्ति दो लीटर दूध ही लिया जाता था, वही अब ये 82 लीटर हो चुका. ये बड़ा फासला है.
क्या लैक्टोज इनटॉलेरेंस और मिल्क एलर्जी एक ही बात है
दोनों में बहुत फर्क है. लैक्टोज इनटॉलरेंट लोग दूध पीने या डेयरी प्रोडक्ट लेने पर थोड़ी देर या कुछ घंटों के लिए बीमार होते हैं. उन्हें उल्टियां होती हैं, पेटदर्द या खदबदाहट होती है. ये अपने-आप ठीक भी हो जाएगी. लेकिन मिल्क एलर्जी एकदम अलग है. ये वो अवस्था है, जिसमें दूध के प्रोटीन को शरीर फॉरेन पार्टिकल मानकर लड़ने के लिए तैयार हो जाता है. इससे एनाफिलेक्सिस जैसी स्थिति आ जाती है. इसमें शरीर पर चकत्ते पड़ते हैं, गले, होंठों पर सूजन आ सकती है और सांस लेने में समस्या होने लगती है. अगर तुरंत इलाज न मिले तो जान भी जा सकती है.
क्या दूध का उत्पादन भी नहीं हो रहा
चीन भले ही दूध न पचा सके, लेकिन दूध का उत्पादन वहां जमकर हो रहा है. यूनाइटेड नेशन्स फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन के अनुसार पूरी दुनिया में साल 2021 में 929.9 मिलियन टन दूध का उत्पादन हुआ था. इसमें भारत ने सबसे ज्यादा योगदान दिया. इसके बाद अमेरिका और फिर चीन का नंबर था. पहले दो नंबर भारत और अमेरिका में आगे-पीछे सरकते रहते हैं, जबकि चीन कई सालों से नंबर तीन पर है. वहां अगर 35 मिलियन टन से ज्यादा दूध का उत्पादन हो तो इसका ज्यादा हिस्सा निर्यात में चला जाता है.