रणवीर सिंह की 'धुरंधर' का क्रेज जनता के सिर चढ़कर बोल रहा है. थिएटर्स से बाहर निकल रहे दर्शक फिल्म के हैंगओवर में हैं. 'धुरंधर' में रणवीर और अक्षय खन्ना समेत सभी एक्टर्स के काम पर लोग रीझ रहे हैं. फिल्म के म्यूजिक, एक्शन, सीन्स पर जमकर चर्चाएं चल रही हैं. और इन चर्चाओं के बीच लोग फिल्म की पॉलिटिक्स का भी एक्स-रे कर रहे हैं. जहां कईयों को फिल्म की राइटिंग और सेटिंग में देशभक्ति का अनोखा फ्लेवर फील हो रहा है. वहीं कईयों को 'धुरंधर' एक पार्टी विशेष के विचारों को आगे बढ़ाने वाली लग रही है. ये मसला असल में फिल्म के कुछ सीन्स और डायलॉग में छुपा है.
क्या है 'धुरंधर' की पॉलिटिक्स?
'धुरंधर' का प्लॉट एक लाइन में समझ जा सकता है— ये भारत के खिलाफ, पाकिस्तान से चलने वाले आतंकी नेटवर्कों में घुसकर, उन्हें अंदर से कमजोर करने वाले जासूसी मिशन की कहानी है. 'धुरंधर' रणवीर सिंह के किरदार को नहीं, इंडिया के मिशन का नाम है.
फिल्म की शुरुआत 1999 के कंधार प्लेन हाइजैक से होती है. भारत सरकार, अपने नागरिकों के बदले तीन दुर्दांत आतंकयों को छोड़ने पर राजी हो गई है. सरकार के एक मंत्री के साथ, आईबी चीफ अजय सान्याल (आर माधवन) हाइजैक हुए प्लेन के अंदर हैं. वो यात्रियों को भरोसा दिला रहे हैं कि मामला सुलझ चुका है. यात्रियों से बात करने के बाद वो आतंकियों के सामने ही तीन बार जोर से बोलते हैं— भारत माता की... मगर एक भी बार प्लेन में बैठे यात्री डर के मारे 'जय' नहीं बोलते. एक आतंकी हंसता हुआ सान्याल से कहता है— 'हिंदू बहुत डरपोक कौम है'.
रिपोर्ट्स बताती हैं कि उस फ्लाइट में 179 यात्री थे. उनमें अलग-अलग धर्मों के अलावा कुछ विदेशी नागरिक भी थे. आतंकियों से नेगोशिएट करने वाली सरकार भारत की थी. इसलिए डायलॉग में आतंकी अगर सान्याल को 'हिन्दुस्तानी बहुत डरपोक होते हैं' कहकर उकसाता, तो भी फिल्म के नैरेटिव में सही फिट होता. लेकिन आतंकी के डायलॉग में एक धर्म विशेष को 'डरपोक' बताना, बड़े सॉफ्ट तरीके से आतंकवाद के सामने केवल उस धर्म को खड़ा कर देता है. जबकि आतंकवाद तो पूरे भारत के लिए खतरा रहा है.
कंधार हाइजैक और संसद हमले का दौर 1999-2001 वाला था. इसके बाद ही सान्याल को 'मिशन धुरंधर' के लिए हरी झंडी मिली थी. रियल टाइमलाइन में तब देश में एनडीए सरकार थी और प्रधानमंत्री थे स्वर्गीय अटल बिहारी बाजपेयी. सान्याल अपने प्लान में दो साल की देरी के लिए सरकार और मंत्री को दोष भी देता दिखता है. यानी फिल्म तबकी सरकार को मिशन के लिए हरी झंडी दिखाने का क्रेडिट तो दे रही है. पर इस काम में देरी के लिए खिंचाई भी कर रही है.
इसी तरह 'धुरंधर' के एक सीन में, अजय सान्याल अपने एक साथी के साथ, इस सवाल पर माथापच्ची कर रहा है कि भारतीय नोटों के डिजाइन वाली प्लेटें, पाकिस्तान में कैसे पहुंचीं? उसका साथी बाद में बताता है कि इस स्कैन्डल में सरकार के एक मंत्री और कई बड़े सरकारी अधिकारियों का हाथ है. वो बताता है कि कैसे नकली नोट नेपाल के रास्ते उत्तर प्रदेश होते हुए भारत की असली करंसी में मिक्स होते हैं. लेकिन सान्याल इस पूरे मामले पर कोई एक्शन नहीं लेता.
सान्याल की बात का निचोड़ कुछ ऐसा है कि— अभी उत्तर प्रदेश और देश में जो सरकारें हैं, वो इस मामले पर कुछ नहीं करेंगी. इसलिए अभी बस इंतजार किया जाए, ऐसी किसी सरकार के आने का 'जो सच में देश के लिए कुछ करना चाहती हो!' फिल्म की टाइमलाइन में ये सीक्वेंस साल 2005-07 के आसपास का है. इसी टाइम लाइन के बीच में मुंबई पर 26/11 हमला भी होता है. इस टाइमलाइन में 'मिशन धुरंधर' की सारी ऐक्टिविटी पाकिस्तान में है, मगर इंडिया में उसकी कोई राजनीतिक बैकिंग या हरकत नहीं नजर आती.
जिन सालों में 'धुरंधर' में भारत की पॉलिटिकल हरकत मिसिंग है या पॉलिटिक्स का भ्रष्टाचार देश को नुकसान पहुंचाता दिख रहा है, फिल्म में वो साल यूपीए सरकार वाले हैं. तब देश के प्रधानमंत्री स्वर्गीय मनमोहन सिंह थे. जबकि 'धुरंधर 2' में जब फिल्म का मेजर एक्शन होगा, तो सरकार बदल जाएगी. तब तक देश में मोदी सरकार की एंट्री हो चुकी होगी. इसका हिंट डायरेक्टर आदित्य धर ने 'भविष्य में आने वाली मजबूत सरकार' से दे ही दिया है. लोग इस लाइन को बड़ी आसानी से डिकोड कर ले रहे हैं, ये सबूत है कि आदित्य का हिंट काम कर रहा है.
क्या 'धुरंधर' का पॉलिटिकल नैरेटिव प्रोपेगेंडा है?
आदित्य धर की 'धुरंधर' एक स्पाई-फिल्म है. ऐसी फिल्मों के प्लॉट में पॉलिटिकल एंगल, कहानी को गहराई देते हैं. पॉलिटिकल एंगल सॉलिड है, तो कहानी का दांव बड़ा है, हीरो के एक्शन्स में जिम्मेदारी बढ़ती है. भारत-पाकिस्तान में बैर है, ये सब जानते हैं. इस बैर के रिश्ते को पाकिस्तान ने आतंक की डोर से मजबूती दे रखी है, ये भी अब सामान्य ज्ञान है. लेकिन अगर कहानी में पॉलिटिक्स मजबूत नहीं है, तो मामला सिर्फ हीरो के एक्शन सीन्स देखने का रह जाता है. हीरो आएगा, एक्शन करेगा, भारत को पाकिस्तानी खतरे से बचा लेगा... बात खत्म!
लेकिन अगर सिर्फ हीरोइज़्म से हटकर कहानी में कुछ नया क्रिएट करना है, रियल जैसा... तो पॉलिटिकल पैंतरेबाजी दिखाए बिना काम चलेगा नहीं. और पॉलिटिकल पैंतरों पर लोगों के निजी ओपिनियन भी होते हैं. वो आपके स्वाद को जमते हों या नहीं. एक आर्टिस्ट का ओपिनियन उसके काम में भी नजर आता है. और उसे अपने क्रिएटिव माध्यम से अपने ओपिनियन एक्सप्रेस करने का अधिकार भी है. आदित्य धर खुद एक कश्मीरी पंडित परिवार से आते हैं. बहुत संभव है कि उन्होंने अपने परिवार, अपने आसपास कश्मीर सिचुएशन के सांप्रदायिक नैरेटिव भी सुने होंगे.
उनकी फिल्म 'धुरंधर' में जो भी राजनीतिक झुकाव दिखता है, वो उनका अपना ओपिनियन ज्यादा महसूस होता है, ना कि प्रोपेगेंडा. उनकी फिल्म कहीं भी ठहरकर ऐसा मैसेज देने की कोशिश नहीं करती जो आज की सरकार की किसी पॉलिसी या राजनीतिक मंशा का प्रचार जैसा लगे. केवल एक लाइन सरकारी नैरेटिव से प्रेरित है— 'ये नया भारत है जो घर में घुसेगा भी, और मारेगा भी.' मगर ये लाइन तो हर तरह से पाकिस्तान को जवाब देने की हमारी मौजूद पॉलिसी से आती है. इसमें तो कभी कोई प्रोपेगेंडा था ही नहीं. ना ही ये किसी को अपमानित करने वाली बात है.
'धुरंधर' में किसी मंत्री के सरकारी बयान या देश की सत्ता में बैठी भाजपा के किसी नेता का भाषण नहीं है. इसमें किसी भारतीय को, उसकी विचारधारा या सोच की वजह से एंटी-नेशनल का लेबल नहीं दिया गया. ना ही देश के किसी समुदाय, धर्म, जाति की देशभक्ति पर सवाल उठाया गया है. 'धुरंधर' इस नैरेटिव को पुश नहीं करती कि मौजूदा सरकार आने के बाद से ही पाकिस्तान को करारा जवाब दिया जा रहा है. ना ही ये घटनाओं के फैक्ट्स को लेकर कोई ऐसा झूठ बोलती है जो पिछली सरकारों या दूसरी पार्टियों को गलत तरीके से पेश करता हो. फिल्म जो कुछ दिखा रही है, उसका अधिकांश हिस्सा डॉक्यूमेंटेड है.
'धुरंधर' बस पॉलिटिकल परसेप्शन मेकिंग को, अपनी कहानी बेचने के लिए, बड़ी चालाकी से टूल की तरह इस्तेमाल करती दिखती है. 'धुरंधर' इन चीजों को ऑडियंस की एंगेजमेंट खींचने के लिए इस्तेमाल करती है. परसेप्शन गढ़ने, और गढ़े हुए परसेप्शन को अपना माल बेचने के लिए इस्तेमाल कर लेने में थोड़ा फर्क है. लेकिन ये पैंतरेबाजी तब सफल हो जाती है जब फिल्म दमदार हो, उसमें जनता का ध्यान बांधने वाला, एंटरटेन करने वाला माल भरपूर हो. और हर रोज 'धुरंधर' के ताबड़तोड़ बिकते टिकट इस बात का सबूत हैं कि जनता को फिल्म पसंद आ रही है. इसे सिर्फ पॉलिटिकल प्रोपेगेंडा के लेंस से देखना भी एक फिल्ममेकर और उसे मिलने वाली क्रिएटिव लिबर्टी के साथ अन्याय ही है.