क्या आपको अफगानिस्तान में फैले तालिबान के कैंसर के बारे में पता है? अगर आप यह सोच रहे हैं कि इससे आपको क्या फर्क पड़ता है. तो इतना जान लीजिए कि अफगानिस्तान में भारत ने कई वर्षों में अरबों रुपये का जो निवेश किया है. वो डूब रहा है. आतंक से लेकर कूटनीति तक. हर मोड़ पर तालिबान की आक्रामक सत्ता का असर पड़ने वाला है. अमेरिकी सेना ने अफगानिस्तान से पूरी तरह निकलने की तैयारी कर ली है. लेकिन उसके पहले ही तालिबान बहुत तेज़ी से एक्शन में आ गया और तख्तापलट की कोशिश करने लगा. तालिबान ने जंग छेड़ दी है.
तालिबान का दावा है कि अफगानिस्तान का 85 फीसदी इलाका उसके नियंत्रण में है. एक-एक कर अफगानिस्तान के बड़े शहर तालिबान के कब्जे में आ रहे हैं. हालांकि अफगानिस्तान की सेना ने कई इलाकों पर वापस कब्जा करने का दावा किया है.
सवाल उठता है कि 20 साल तक अमेरिका के अफगानिस्तान में रहने के बावजूद तालिबान खत्म क्यों नहीं हुआ. उसकी ताकत में कोई कमी क्यों नहीं आई और अब पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर किस तरह का खतरा मंडरा रहा है?
एक-एक इंच पर कब्जे की जंग
अफगानिस्तान में जमीन के एक-एक इंच पर कब्जे की जंग हर रोज कुछ ज्यादा खूनी होती जा रही है. हर गांव, हर बड़े शहर, हर प्रांतीय राजधानी, हर बॉर्डर एरिया, यहां तक कि बेजान पहाड़ों पर भी नियंत्रण के लिए संघर्ष तीखा होता जा रहा है. तालिबान और अफगान मिलिट्री हर मोर्चे पर आमने-सामने है.
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अमेरिका ये समझता है कि तीन लाख अफगान सुरक्षा बलों के सामने 75 हजार तालिबान लड़ाके टिक नहीं सकेंगे. लेकिन तालिबान का दावा है कि हमें आजमा लो, दो हफ्ते में पूरे अफग़ानिस्तान का कंट्रोल संभाल सकते हैं. तालिबान के दावों और उसके ग्राउंड एक्शन को जब तौलेंगे तो एक बात बिल्कुल साफ हो जाएगी कि वो हर मोर्चे पर मजबूत पोजिशन लिए हुए है.
अफगानिस्तान के 20 राज्यों के 421 जिलों में कम से कम, आधे पर तालिबान का कब्जा है. हालांकि तालिबान ने इसी हफ्ते शुक्रवार को दावा किया था कि उसने अफगानिस्तान के 85 फीसदी इलाकों को अपने नियंत्रण में ले लिया है. अप्रैल में संघर्ष शुरू होने के बाद, अबतक 3600 नागरिकों की मौत हुई है. अफगान मिलिट्री के 1000 जवान और अफसर भी मारे गए हैं. 3 हजार से ज्यादा लोग घायल हुए हैं.
तालिबान तेजी से जमीन पर कर रहा है कब्जा
भारत में अफगानिस्तान के राजदूत ये मानते हैं कि तालिबान तेजी से जमीन पर कब्जा तो जमा रहा है. लेकिन दावा ये भी है कि अफगान मिलिट्री तालिबान के लड़ाकों पर भारी पड़ेगी. उन्हें वापस पीछे ढकेल दिया जाएगा, पिछले तीन दिनों में अफगान सेना ने युद्ध में कमबैक किया है और 10 जिलों पर फिर कब्जा जमा लिया है.
तालिबान इस जंग में अपने पुरानी रणनीति पर भरोसा कर रहा है. यानि उसके लड़ाके धीरे-धीरे राजधानी काबुल की तरफ बढ़ रहे हैं. तालिबान ने सबसे पहले गांव और दूर दराज के इलाके पर नियंत्रण जमाया. सीमावर्ती इलाकों पर अफगान मिलिट्री को खदेड़ दिया गया. फिर प्रांतीय राजधानियों की घेराबंदी की गई. कंधार और देश के बड़े शहरों के बाहरी इलाके में भारी गोलाबारी जारी है.
यानी तालिबान सीधे केंद्र पर हमला करने के बजाए किनारे को तोड़ने की वो चाल चल रहा है. जिसका ज़िक्र मगध पर विजय के लिए चाणक्य और चंद्रगुप्त के प्लान में मिलता है और अलग अलग दौर की युद्धनीति में भी इसका ज़िक्र रहा है.
अफगानिस्तान को तुरंत एयर डिफेंस की जरूरत
अब तालिबान को रोकने के लिए अफगानिस्तान को तुरंत एयर डिफेंस की जरूरत है लेकिन अफगानिस्तान की वायुसेना अभी इतनी ताकतवर नहीं है कि इतने बड़े अभियान को चला सके. लिहाजा अमेरिकी ब्लैक हॉक हेलिकॉप्टर के एयर स्पोर्ट का बेसब्री से इंतजार है.
अफगानिस्तान में अमेरिकी नेतृत्व वाली सेना ने तालिबान को साल 2001 में सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया था. लेकिन इन 20 सालों में धीरे-धीरे तालिबान अपनी पकड़ मजबूत करता गया और अब एक बार फिर से इसका दबदबा देखने को मिल रहा है. समझना होगा कि आखिर ऐसा क्या है कि अफगानिस्तान में कोई बाहरी सेना टिक नहीं पाती.
रूस 10 साल तक जमा रहा लेकिन अंत में उसे लगभग अफगानिस्तान से भागना पड़ा. अमेरिकी सेना 20 साल तक अफगानिस्तान पर जमी रही लेकिन उसके मैदान छोड़ते ही बिजली की तरह तालिबान फिर सत्ता पर काबिज होने को तैयार है. अगर इस विदेशी सेनाओं की नाकामी की वजह तलाशेंगे तो पाएंगे की तालिबान की सबसे बड़ी ताकत धार्मिक कट्टरवाद है.
रूढ़िवादी सोच वाले अफगानियों पर पकड़
तालिबान ने रूढ़िवादी सोच वाले अफगानियों पर जबरदस्त पकड़ बनाई है. पाकिस्तान तालिबान का बड़ा मददगार है. पाकिस्तान के शहरों में तालिबान के बड़े कंमाडर छिपकर ऑपरेशन को अंजाम देते हैं. ज़ाहिर है ये बिना लोकल सपोर्ट के नहीं हो सकता. अफगानिस्तान की भौगोलिक स्थिति वाले चक्रव्यूह में विदेशी सेनाएं फंसती है. नतीजा तालिबान का सफाया नहीं हो पाता.
तालिबान की आर्थिक शक्ति, नशे के कारोबार से जुड़ी हुई है. दुनिया की 90 फीसदी हेरोइन अफगानिस्तान से आती है. तालिबान का इसपर कब्जा है यानी आतंक की फैक्ट्री चलाने में हेरोइन, कमाई का एक बड़ा जरिया है.
अमेरिका भी रूस की तरह हारकर, अफगानिस्तान से बाहर नहीं निकलना चाहता था लिहाजा वो धीरे-धीरे अपने हाथ खींचता गया. 20 साल तक तालिबान से संघर्ष में उसके 2300 फौजी मारे गए हैं और करोड़ो-अरबों डॉलर का बोझ अलग से. यही वजह है कि अमेरिका ने अफगानिस्तान को उसके हाल पर छोड़ दिया है.
तालिबान ने सीख ली कूटनीति
ऐसा लगता है कि पिछले 20 साल में तालिबान ने थोड़ी बहुत कूटनीति की पढ़ाई भी कर ली है. वो एक तरफ तो अफगानिस्तान में सत्ता पर कब्जा जमाने के लिए जंग लड़ रहा है. वहीं दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बीच अपने प्रतिनिधिमंडल भेज रहा है और दुनिया को ये बताने की कोशिश कर रहा है कि वो नया तालिबान है. वह कोई आतंकी गुट नहीं बल्कि अफगानिस्तान के आम लोगों की आवाज़ है. युद्ध के बीच ये कूटनीति अनोखी है.
9 जुलाई को तालिबान का एक प्रतिनिधिमंडल रूस पहुंचा.
तालिबान के नेताओं ने वादा किया कि इस्लामिक स्टेट को अफगानिस्तान में एक्टिव नहीं होने देंगे और जमीन का इस्तेमाल पड़ोसियों के खिलाफ कभी नहीं करेंगे. तालिबान ने ये भी वादा किया कि अफगानिस्तान से ड्रग्स की तस्करी को पूरी तरह से बंद कर देगा. तालिबान का वादा है कि वो अफगानिस्तान में अल्पसंख्यकों के अधिकारों का सम्मान करेगा. इसके साथ ही अफगान नागरिकों को इस्लामी कानून और अफगान परंपराओं के ढांचे में एक सभ्य शिक्षा का अधिकार भी देगा.
तालिबान ऐसा ही प्रतिनिधिमंडल कतर, ईरान और पाकिस्तान भी भेज चुका है. इस बीच तालिबान ने चीन को अपना मित्र बताया है. उसने चीन को ये भरोसा दिया है कि वो अशांत शिंजियांग प्रांत के उइगर इस्लामी चरमपंथियों को अपनी ज़मीन पर पनाह नहीं देगा. लेकिन पिछले शासन में तालिबान ने जो किया उसे देखते हुए उसपर विश्वास करना असंभव है. तालिबान की कथनी और करनी पर बड़ा अंतर रहा है.
तालिबान कट्टर शरीया कानून का पक्षधर
तालिबान कट्टर शरीया कानून का पक्षधर है. उसके सजा देने के तरीके बेहद क्रूर और अमानवीय हैं. तालिबान सार्वजनिक फांसी, गोली मारकर हत्या, अंगभंग जैसी सजा देने के लिए कुख्यात है. तालिबान की कट्टर विचारधारा की सबसे ज्यादा शिकार महिलाएं हुई हैं. पिछले शासन में 10 साल से ज्यादा उम्र की लड़कियों के स्कूल जाने पर रोक लगा दी गई थी. महिलाओं को इंसान नहीं बल्कि वस्तु समझा जाने लगा था. इसके अलावा तालिबान ने टीवी, फिल्म और गानों पर पाबंदी लगा दी थी.
हालांकि अब तालिबान ने वादा किया है कि महिलाएं शिक्षा के क्षेत्र में सेवा दे सकती हैं, व्यापार, स्वास्थ्य और सामाजिक क्षेत्र में काम कर सकती हैं. शर्त ये रखी गई है कि इसके लिए उन्हें इस्लामी हिजाब का सही ढंग से इस्तेमाल करना होगा. लेकिन तालिबान के ईमान पर किसी को भरोसा नहीं है. क्योंकि ये पक्की बात है कि वो मानव मूल्यों से नहीं बल्कि धार्मिक कट्टरपंथ की बैटरी से चलता है.
(ब्यूरो रिपोर्ट)
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