इतिहास की किताबों में अक्सर किले पत्थर और ईंट से बने हुए मिलते हैं, लेकिन राजस्थान की धरती पर एक ऐसा किला भी है जो मिट्टी से बना और फिर भी दुश्मनों के लिए लोहे की दीवार साबित हुआ. जहां मुगल बादशाहों की ताकत और अंग्रेजों की आधुनिक तोपें भी बेअसर हो गईं. यह कहानी है भरतपुर के लोहागढ़ किले की, जिसे देखकर पहली नजर में कोई नहीं कह सकता कि यह किला सदियों तक अजेय रहा. लेकिन जैसे ही इसके इतिहास में झांकते हैं, समझ आता है कि मजबूती सिर्फ ऊंची दीवारों से नहीं, दिमाग और रणनीति से भी आती है. आइए जानते हैं उस किले की कहानी, जिसका लोहा आज भी पूरी दुनिया मानती है.
वो सीक्रेट तकनीक जिसने बारूद को हराया
19 फरवरी 1733 को जब महाराजा सूरजमल ने इस किले की नींव रखी, तो उनके मन में सुरक्षा को लेकर एक अनोखा विचार था. उन्होंने पत्थर की मजबूती पर भरोसा करने के बजाय मिट्टी के लचीलेपन को हथियार बनाया. इस किले को 'दोहरी प्राचीर' से घेरा गया था. भीतरी दीवार तो पत्थर और ईंटों की थी, लेकिन उसके बाहर सैकड़ों फुट चौड़ी कच्ची मिट्टी की एक विशाल दीवार खड़ी की गई. यही वजह है कि युद्ध के दौरान जब दुश्मन की तोपें आग उगलती थीं, तो वे गोले पत्थर की दीवार को तोड़कर उसे गिराने के बजाय इस मिट्टी में धंसकर ठंडे हो जाते थे. महाराजा की इस अद्भुत सूझबूझ ने बारूद की ताकत को बेअसर कर दिया और किले को नाम मिला लोहागढ़, यानी लोहे जैसा मजबूत दुर्ग.
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खाइयों का जाल और सुजान गंगा का अभेद्य पहरा
राजस्थान का पूर्वी द्वार कहे जाने वाले भरतपुर को सिर्फ दीवारों ने ही नहीं, बल्कि पानी के एक चक्रव्यूह ने भी सुरक्षित रखा. किले के चारों ओर सुजान गंगा नाम की एक गहरी नहर बनाई गई थी, जो हमेशा पानी से लबालब रहती थी. यह खाई इतनी चौड़ी और गहरी थी कि दुश्मन की सेना अगर दीवार तक पहुंचना भी चाहे, तो उसे पार करना जान जोखिम में डालने जैसा था. इसके साथ ही, पूरे शहर की सुरक्षा के लिए मिट्टी की एक बड़ी रक्षा दीवार बनाई गई थी, जिसमें प्रवेश के लिए 12 विशाल गेट थे. इन दरवाजों की सुरक्षा और नहर का घेरा ऐसा था कि रात के अंधेरे में भी कोई दुश्मन दीवार पर चढ़ने की जुर्रत नहीं कर पाता था.
जब बारूद पर भारी पड़ी भरतपुर की मिट्टी
लोहागढ़ का इतिहास उन बड़ी ताकतों की नाकामी की गवाह है, जिन्होंने इसे जीतने का ख्वाब देखा था. सबसे पहले मुगलों ने अपनी विशाल सेना के साथ इस किले पर कई बार आक्रमण किए, लेकिन इसकी अनोखी बनावट के आगे उन्हें हर बार हार का स्वाद चखना पड़ा. मुगलों के बाद लोहागढ़ के इतिहास का सबसे रोमांचक मोड़ तब आया, जब शक्तिशाली अंग्रेजों ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया. ब्रिटिश जनरल लॉर्ड लेक ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी और एक के बाद एक पांच बार इस दुर्ग पर हमला किया. अंग्रेजों के पास उस दौर की सबसे आधुनिक और विनाशकारी तोपें थीं, लेकिन लोहागढ़ की मिट्टी ने उनके हर वार को खिलौना साबित कर दिया.
जितनी बार भी अंग्रेजों ने अपनी तोपों से गोले दागे, वे किले की मोटी कच्ची दीवारों में समाकर ठंडे हो गए. अंग्रेजों का बारूद और धैर्य दोनों खत्म हो गए, लेकिन किले की एक ईंट तक नहीं टूटी. अंत में दुनिया पर राज करने वाली ब्रिटिश सेना को थक-हारकर पीछे हटना पड़ा. यह ब्रिटिश इतिहास की सबसे शर्मनाक हार में से एक मानी जाती है, जिसने पूरी दुनिया के सामने यह साबित कर दिया कि भरतपुर का यह दुर्ग वाकई 'अजेय' है और इसे जीतना किसी के बस की बात नहीं.
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सांस्कृतिक एकता और अजेय विरासत का गौरव
इतिहास के पन्नों में भरतपुर और अलवर का रिश्ता हमेशा से गहरा रहा है. 1948 में जब 'मात्स्य संघ' बना, तो इस पूरे क्षेत्र की प्रशासनिक और सांस्कृतिक एकता और भी मजबूती से उभरकर सामने आई. यह किला आज भी महाराजा सूरजमल के शौर्य और उस दौर की बेमिसाल इंजीनियरिंग का प्रतीक है. आज भी जब लोग लोहागढ़ की प्राचीर को देखते हैं, तो उन्हें गर्व होता है कि भारत के पास एक ऐसा किला है, जिसे न मुगल जीत पाए, न मराठा और न ही शक्तिशाली अंग्रेज.
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