मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को विधान परिषद का सदस्य मनोनीत करने पर राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी खामोशी अख्तियार किए हुए हैं. ऐसे में शिवसेना प्रमुख की टेंशन बढ़ती जा रही है. उद्धव ठाकरे को एमएलसी मनोनीत करने के लिए महाराष्ट्र सरकार को प्रस्ताव भेजे हुए करीब 2 सप्ताह होने जा रहे हैं, लेकिन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने अभी तक कोई फैसला नहीं लिया है. इसके चलते महाराष्ट्र का सियासी संकट गहराने लगा है और शिवसेना-राजभवन आमने-सामने आ गए हैं.
उद्धव ठाकरे राज्य विधानसभा या विधान परिषद में से किसी के भी सदस्य नहीं हैं. संविधान के मुताबिक किसी मुख्यमंत्री या मंत्री को शपथ लेने के छह महीने के अंदर विधानसभा या विधानपरिषद में से किसी की सदस्यता ग्रहण करनी होती है, ऐसा नहीं होने पर उसे इस्तीफा देना पड़ता है. ठाकरे ने 28 नवंबर 2019 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी और उनके छह महीने 28 मई 2020 को पूरे हो रहे हैं.
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महाराष्ट्र के उप-मुख्यमंत्री अजीत पवार ने 6 अप्रैल को कैबिनेट की बैठक में सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित कर राज्यपाल को भेजा था कि मौजूदा परिस्थिति में विधान परिषद के चुनाव नहीं हो सकते हैं. ऐसे में मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे जो इस समय ना तो विधानसभा के सदस्य हैं और ना विधान परिषद के सदस्य हैं, उन्हें राज्यपाल की ओर से नामित किए जाने वाली विधानपरिषद की सीट के लिए मनोनीत किया जाए.
सरकार के इस प्रस्ताव को राज्यपाल के पास भेजे करीब दो सप्ताह हो रहे हैं, लेकिन अब तक राजभवन ने न तो इसे स्वीकार किया है और न अस्वीकार कर रहे हैं. ऐसे में राज्य सरकार की नजरें राजभवन के फैसले पर टिकी हैं. दरअसल, महाराष्ट्र में अभूतपूर्व स्थिति है. इससे पहले कभी ऐसी स्थिति पैदा नहीं हुई कि राज्यपाल को किसी मुख्यमंत्री को मनोनीत सदस्य के तौर पर विधान परिषद भेजने की जरूरत पड़ी हो.
महाराष्ट्र गवर्नर की तरफ से उद्धव ठाकरे को मंजूरी मिलने में हो रही देरी पर शिवसेना का गुस्सा फूट पड़ा और पार्टी सांसद संजय राउत ने निशाना साधना भी शुरू कर दिया है. संजय राउत ने रविवार को ट्वीट करते हुए कहा, 'राज भवन, राज्यपाल का आवास राजनीतिक साजिश का केंद्र नहीं बनना चाहिए. याद रखिए, इतिहास उन लोगों को नहीं छोड़ता जो असंवैधानिक व्यवहार करते हैं.'
राज्यपाल ने अस्वीकार किया तो क्या होंगे विकल्प
राज्यपाल ने मंत्रिमंडल की सिफारिश को अस्वीकार कर दिया तब क्या होगा? इस के बाद सरकार के पास दो ही विकल्प होंगे. पहला तो 3 मई को लॉकडाउन खत्म होने के तुरंत बाद चुनाव आयोग विधान परिषद की खाली पड़ी सीटों के लिए चुनाव का ऐलान करे और 27 मई से पहले चुनाव प्रक्रिया पूरी कर परिणाम घोषित करे, ताकि मुख्यमंत्री निर्वाचित सदस्य के रूप में सदन के सदस्य बन सकें. हालांकि, कोरोना संकट के चलते चुनाव होना मुश्किल है.
विधान परिषद के चुनाव न होने की स्थिति में उद्धव ठाकरे को इस्तीफा देना होगा और फिर दोबारा से शपथ लेनी होगी. हालांकि इस प्रक्रिया में एक बड़ा पेच यह है कि मंत्रिमंडल की समस्त शक्तियां मुख्यमंत्री में निहित हैं, अगर मुख्यमंत्री अपने पद से इस्तीफा देते हैं, तो समूचे मंत्रिमंडल को इस्तीफा देना पड़ेगा और फिर से सभी मंत्रियों को शपथ दिलानी पड़ेगी.
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मुख्यमंत्री के इस्तीफा देने के बाद गेंद वापस राजभवन के पास चली जाएगी और राज्यपाल ही यह तय करेंगे कि वे कब शपथ दिलाएंगे. बहरहाल, इस स्थिति को टालने के लिए राज्य सरकार की तरफ से भी कानूनी सलाह मशविरा किया जा रहा है. ऐसे में हो सकता है कि यदि राज्यपाल मंत्रिमंडल की सलाह को स्वीकार नहीं करते हैं, तो सरकार की तरफ से राज्यपाल के फैसले को लेकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया जा सकता है. हालांकि अभी तक सरकार की ओर से ऐसी कोई बात सामने नहीं आई है.
उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाले महाविकास अघाड़ी सरकार के चुनावी खिलाड़ियों का गणित यह था कि 15 अप्रैल को खाली हो रही विधान परिषद की 9 सीटों में से एक सीट पर मुख्यमंत्री आसानी से चुनाव जीत कर विधान परिषद के सदस्य चुन लिए जाएंगे, लेकिन उससे पहले ही कोरोना संकट ने दस्तक दे दी और चुनाव आयोग ने सभी चुनाव स्थगित कर दिए. इसके साथ ही आघाडी सरकार का सारा चुनावी गणित गड़बड़ा गया. इसके बाद अब राज्यपाल ने सरकार के प्रस्ताव पर खामोशी अख्तियार किए हुए हैं, जिससे उद्धव ठाकरे की टेंशन बढ़ गई है.
क्या कहते हैं संविधान विशेषज्ञ?
संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप कहते हैं कि मुख्यमंत्री पद या मंत्री पद की शपथ लेने के 6 महीने के अंदर विधानमंडल का सदस्य होना जरूरी है. वहीं, राज्यपाल द्वारा मनोनीत होने वाले एमएलसी सदस्यों के नामों की सिफारिश राज्य सरकार ही करती है. इसके बावजूद राज्यपालों का यह आग्रह रहता है कि जिन नामों की सिफारिश राज्य सरकार कर रही है, वे गैर राजनीतिक हों.
राज्यपाल कोटे की सीटों पर खेल, कला, विज्ञान, शिक्षा, साहित्य आदि क्षेत्रों से आने वाले विद्वानों को ही मनोनीत किया जाता है. ऐसे में उद्धव ठाकरे को सरकार किस क्षेत्र के तहत विधान परिषद में भेज रही है, इसे देखना होगा. यह राज्यपाल के ऊपर निर्भर करेगा कि सरकार के अनुरोध को मानें या नहीं.
यूपी में ऐसा मामला हो चुका है
बता दें कि 2015 में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन अखिलेश सरकार ने राज्यपाल कोटे से एमएलसी के लिए नामित सीट पर 9 उम्मीदवारों के नाम की सिफारिश की थी, लेकिन तत्कालीन गवर्नर रामनाइक ने चार नामों पर अनुमोदन कर दिया था बाकी पांच नाम वापस भेज दिए थे. गवर्नर ने कहा था कि इनमें से कई व्यक्तियों के विरुद्ध अपराधिक मामले थे.
वे संविधान के अनुच्छेद 171(5) के तहत उल्लिखित कुल 5 क्षेत्रों साहित्य, विज्ञान, कला, सहकारी आंदोलन और समाज सेवा में से किसी भी क्षेत्र में विशेष ज्ञान अथवा व्यावहारिक अनुभव नहीं रखते हैं. इस कारण उन्हें विधान परिषद का सदस्य नामित नहीं किया जा सकता है. इसके बाद अखिलेश सरकार ने दोबारा से उनकी जगह दूसरे नाम भेजे थे, जिस पर गवर्नर ने सहमति दी थी. ऐसे ही स्थिति अब महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नाम पर होती दिख रही है.
कुबूल अहमद