मैडम माया का गुस्साः कांशीराम के साथी, सबसे छूट गया है हाथी

बहनजी के कहर का शिकार कब, कौन, कहां और कैसे हो जाए कहा नहीं जा सकता. दरअसल माया ने उन नेताओं को भी नहीं बख्शा, जिन्हें उनका करीबी माना जाता था. पार्टी में जिस नेता पर माया की नजर टेढ़ी हुई, उसे बाहर जाना ही पड़ा है. इसी कड़ी में पार्टी का मुस्लिम चेहरा रहे नसीमुद्दीन सिद्दीकी के बाद अब दलित चेहरा रहे इंद्रजीत सरोज की भी बसपा से विदाई हो गई है.

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बीएसपी संस्थापक कांशीराम के साथ मायावती बीएसपी संस्थापक कांशीराम के साथ मायावती

कुबूल अहमद

  • नई दिल्ली ,
  • 03 अगस्त 2017,
  • अपडेटेड 3:22 PM IST

कांशीराम ने अपने जिन सिपहसालारों के साथ मिलकर दलित समाज में राजनीतिक चेतना जगाने के लिए बहुजन समाज पार्टी का गठन किया था, पार्टी के वो सभी नेता एक-एक कर बीएसपी छोड़ गए या फिर मायावती ने उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया.

बहनजी के कहर का शिकार कब, कौन, कहां और कैसे हो जाए कहा नहीं जा सकता. दरअसल माया ने उन नेताओं को भी नहीं बख्शा, जिन्हें उनका करीबी माना जाता था. पार्टी में जिस नेता पर माया की नजर टेढ़ी हुई, उसे बाहर जाना ही पड़ा है. इसी कड़ी में पार्टी का मुस्लिम चेहरा रहे नसीमुद्दीन सिद्दीकी के बाद अब दलित चेहरा रहे इंद्रजीत सरोज की भी बसपा से विदाई हो गई है.

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कांशीराम ने दलित समाज के हक और हुकूक के लिए पहले डीएस-4, फिर बामसेफ और 1984 में दलित, ओबीसी और अल्पसंख्यक समाज के वैचारिक नेताओं को जोड़कर बहुजन समाज पार्टी का गठन किया. देश के कई राज्यों में बीएसपी का जनाधार बढ़ने लगा. इसी कड़ी में कांशीराम के संपर्क में मायावती आईं तो उत्तर प्रदेश में बीएसपी को एक नई ताकत मिली. 1993 में बीएसपी ने एसपी के साथ मिलकर यूपी में सरकार बनाई और फिर तो बीएसपी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा.

एक के बाद एक कामयाबी की सीढ़ी मायावती भी चढ़ती गईं. 2007 में तो बीएसपी ने सूबे में ऐतिहासिक जीत का परचम फहराया, लेकिन इस सफर में कांशीराम के वो सभी साथ बीएसपी से दूर हो गए जो कभी बीएसपी की जान हुआ करते थे. 2012 के विधानसभा चुनाव से बसपा नेताओं का पार्टी छोड़ना या बाहर निकाला जाना जारी है.

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राज बहादुरः कांशीराम के कर्णधारों में राज बहादुर का नाम प्रमुख रहा है, ये कोरी समाज के बड़े नेता रहे हैं. इन्हें पार्टी में छोटे साहब के नाम से पुकारा जाता था. सूबे में पार्टी की कमान राज बहादुर के कंधों पर थी. उनके प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए बीएसपी सूबे की सत्ता पर विराजमान हुई. लेकिन जैसे ही मायावती का दखल पार्टी में बढ़ा, उन्हें बाहर होना पड़ा.

डॉक्टर मसूद अहमदः डॉक्टर मसूद अहमद नब्बे के दशक में बीएसपी का मुस्लिम चेहरा थे. एसपी और बीएसपी की 1993 में जो सरकार बनी थी, उसमें वे शिक्षा मंत्री थे. 1994 में तत्कालीन बसपा महासचिव मायावती से उनके मतभेद हो गए. मुलायम को न चाहते हुए भी उन्हें न सिर्फ अपने मंत्रिमंडल से हटाना पड़ा बल्कि मायावती के दबाव में आधी रात को सरकारी बंगले से मसूद अहमद का सामान निकलवाकर बाहर फिंकवाना पड़ा. अब शायद ही किसी को डॉक्टर मसूद याद होंगे.

सुधीर गोयलः कांशीराम के करीबी रहे सुधीर गोयल को बीएसपी से क्यों बाहर होना पड़ा ये खुद उन्हें भी पता नहीं चल सका.

बरखूराम वर्माः बीएसपी में कुर्मी समाज के बड़े नेता थे. कांशीराम उनके जरिए ओबीसी समाज को बीएसपी से जोड़ने में काफी हद तक कामयाब रहे थे. लेकिन मायावती की नजर टेढ़ी होते ही वे पार्टी से बाहर कर दिए गए. वर्मा काफी समय तक यूपी विधानसभा में अध्यक्ष रहे हैं.

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बरखूराम के अलावा कुर्मी नेताओं में राम लखन वर्मा, जंगबहादुर पटेल, आरके पटेल और सोने लाल पटेल भी कांशीराम के दाहिने हाथ माने जाते थे, लेकिन मायावती के प्रकोप से ये भी नहीं बच सके और पार्टी से उन्हें बाहर होना पड़ा. जबकि सूबे में 5 फीसदी कुर्मी मतदाता हैं.

यूपी के तीन फीसदी पाल समाज के नेता को भी मायावती ने नहीं बख्शा, उन्हें भी पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. इनमें रमाशंकर पाल, एसपी सिंह बघेल समेत कई नेता शामिल रहे.

स्वामी प्रसाद मौर्य- मायावती के काफी करीबी रहे नेताओं में स्वामी प्रसाद मौर्य का नाम प्रमुख रहा है. 2017 विधानसभा चुनाव से पहले मायावती का साथ छोड़कर मौर्य ने भाजपा का दामन थाम लिया, जबकि वो पूरी तरह से अंबेडकरवादी हैं. बावजूद इसके मायावती की कार्यशैली के चलते पार्टी से विदा हो गए. स्वामी से पहले मौर्य समाज के  बाबू सिंह कुशवाहा को भी मायावती ने पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया था.

नसीमुद्दीन सिद्दीकीः 2017 के विधानसभा चुनाव में मिली शिकस्त के बाद मायावती के प्रकोप के शिकार सबसे पहले नसीमुद्दीन सिद्दीकी बने, जबकि उन्हें मायावती का सबसे करीबी माना जाता था. सिद्दीकी के बाद नंबर दलित नेता इंद्रजीत सरोज का आया. मायावती ने उन्हें भी पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया है.

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बसपा का राजपूत चेहरा माने जाने वाले राजवीर सिंह ने खुद ही पार्टी को अलविदा कह दिया है. 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले सीतापुर जिले के पूर्व मंत्री अब्दुल मन्नान, उनके भाई अब्दुल हन्नान, राज्यसभा सदस्य रहे नरेंद्र कश्यप हों या फिर एमएलए रामपाल यादव, मायावती के पसंदीदा लोगों की सूची से बाहर होते ही सबके सब पार्टी से बाहर कर दिए गए. इसी तरह कांशीराम के साथी रहे राज बहादुर, राम समुझ, हीरा ठाकुर और जुगल किशोर जैसे नेता भी मायावती के प्रकोप से नहीं बच पाए. गेस्ट हाउस हमले के समय मायावती का साथ देने वाले कैप्टन सिकंदर रिज़वी को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.

सांसद धनंजय सिंह हों या विधायक योगेंद्र सागर, माया ने किसी को नहीं बख्शा. फिलहाल सतीश चंद्र मिश्रा को छोड़ दें, तो पार्टी का जो भी नेता मायावती के ज्यादा करीब पहुंचा, बहुत जल्द ही किनारे हो गया और फिर सीधे बाहर. कांशीराम के साथियों में से अब सिर्फ सुखदेव राजभर ही पार्टी में बचे हैं. ऐसे में मायावती बीएसपी को किन कर्णधारों के साथ आगे बढ़ाएंगे ये वही जानती हैं.

 

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