साल 2018 का माहे जनवरी. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का 11वां संस्करण. तारीख 25 से 29 के बीच फंदा हुआ. इस बार हम भी हो आए. थोड़ा-बहुत देखा. बहुत कुछ देखना रह गया. जैसा देखा आप सभी की नज़र पेश है...
जैपर लिटरेचर फेस्टिवल - ऐसा वहां के ठेठ स्थानीय कहते हैं. बाकी जनता के लिए यह जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल ही है. दिल्ली, चंडीगढ़ और आसपास के शहरों की संभ्रांत जनता के लिए वीकेंड गेटअवे. जनता जो वॉल्वो और उबर-ओला से कहीं भी आती-जाती. पब्लिक ट्रांसपोर्ट का हाल देखकर नाक-भौं सिकोड़ती और ऐसे जलसों में सामाजिक न्याय और स्त्रीवाद का नारा बुलंद करती. कहीं भी जाने से पहले वहां के हाईफाई होटल सर्च करती हुई. तो इस बार हम भी हो आए. 26 जनवरी - गणतंत्र दिवस के दिन नौकरी बजाने के बाद हम भी वीकेंड मोड में थे. वो क्या है न कि महानगरों में नौकरी करने वाली जनता के लिए वीकेंड नेक्स्ट लेवल की चीज है. वो 5 दिन काम ही इसीलिए करते हैं कि दो दिन का वीकेंड पा सकें.
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जयपुर जाने से पहले वहां से रपट करने गई एक दोस्त से पूछा कि वहां कैसे हैं सेशन? जवाब था ठीक हैं. हमने कहा- सोच रहे चले आएं. उसने कहा- चले आओ. नहीं तो हमने वीकेंड और कॉम्पऑफ जोड़ते हुए 4 दिन की लंबी छुट्टी जुगाड़ी थी. घर जाने वाले थे, लेकिन थैंक्स टू इंडियन रेलवे. हम जाने वाले थे बिहार और राजस्थान पहुंच गए. खैर, हम दिल्ली से 296 रुपये किराये लगाकर सुबह-सुबह जयपुर पहुंच गए. सिंधी कैंप बस स्टैंड. वहां से ओला बाइक राइड से दोस्त के घर पहुंच गए. जरा दूर था. शहर के दूसरे हिस्से में. दोस्त भी राज्य के नामी अखबार का रिपोर्टर है. उसे भी वहां आना था. तो उसके घर पर नहाने-धोने के बाद स्कूटी से साथ ही चले आए. उसके कहे अनुसार लिट फेस्ट की रौनक हर बार छीजती जा रही. हम बोले कि यार हमने तो पहले कभी देखी नहीं. जहां 2 साल से काम भी करते हैं. वहां के जलसों को डेस्क से ही कवर किया-देखा. नौकरी चीज ही ऐसी है. आदमी बनडमरू बन जाता है.
जाते-जाते बीते रोज के शहरी अखबार पर एक नजर मार ली थी. कुछ पढ़ा और कुछ छूट गया. जब वहां पहुंचे तब तक अनुराग कश्यप हिन्दी हार्ट लैंड (हिन्दी पट्टी) के मशहूर क्राइम थ्रिलर लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक के नॉवेल 'न बैरी न कोई बेगाना' को लॉन्च कर चुके थे. अनुराग कश्यप आजकल हर जगह हैं. हमारी सोशल मीडिया फीड से लेकर तमाम जलसों में. हो सकता है ऐसा उनकी हालिया रिलीज फिल्म की वजह से हो, मगर ऐसा ही है.
जब हम जलसे में पहुंचे तब तक सूरज अपने चरम पर था. जयपुर में दिल्ली जैसी ठंड नहीं. धूप भी चटख. जलसे का स्थान दिग्गी पैलेस. जलसे के स्थल पर पहुंचकर पाया कि वहां के सबसे बड़े मंच 'चारबाग' में शशि थरूर किसी मसले पर पैनल डिस्कशन में शामिल हैं. जितनी जनता सीटों पर जमी हुई. लगभग उतनी ही जनता पंडाल से बाहर के इलाके से उचक-उचककर कुछ सुनने और देखने के प्रयास में लगी हुई. चूंकि सूरज अपने चरम पर था और बाकी का काम वहां की जनता कर रही थी. देह से देह रगड़ती जनता. अपने पैरों से धुर्रा उड़ाती जनता.
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थोड़ी देर तक सुनने के प्रयास में फेल होने के बाद हम किताबों के हॉल में दाखिल हुए. हॉल में दाखिल तो बड़ी गर्मजोशी से हुए कि देखें कि क्या सब है, लेकिन यहां तो मामला दूसरा था. चारों तरफ अंग्रेजी की किताबें और वो भी अधिकांश उन्हीं लेखकों की जिनकी किताबें जलसे में लॉन्च हुईं या होने वाली हैं. थोड़ी देर में ही कान के पीछे और माथे पर पसीना आने लगा. चुनचुन्नी होने लगी सो अलग. जल्दी से वहां से भागना चाहा तभी तमाम अंग्रेजी की किताबों के बीच सुरेन्द्र मोहन पाठक की किताब दिख गई. हम भी ठिठके. सुरेन्द्र मोहन पाठक की किताबें भी तो पाठकों को कुछ ऐसे ही थाम लेती हैं. मगर यहां मामला जरा जुदा था.
यहां उनकी किताब वैसी नहीं जैसे रेलवे प्लेटफॉर्म, रेलवे स्टेशन के बाहर मस्तराम की पॉर्न किताबों के साथ दिखती थी. रफ कॉपी वाले कागज पर छपी हुई. बल्कि, पेंग्विन और जगरनॉट की किताबों से टक्कर लेती हुई. कागज की क्वालिटी भी एकदम झक्कास. मन ही मन सोचा कि जिस सुरेन्द्र मोहन पाठक की किताबें इस देश में सबसे अधिक पढ़ी जाती रही हैं. उसी लेखक की हिन्दी में लिखी गई किताब अंग्रेजी की किताबों के बीच कैसे बेचारी सी पड़ी है. जैसे राजनीति भले ही राज करने की भाषा बन गई हो लेकिन नौकरशाही और अभिजात्य जनों के बीच अंग्रेजी ही ग्राह्य है. जैसे रजिया गुंडों में फंस जाती है...
जारी है...
(लेखक के निजी विचार है)
विष्णु नारायण