फुरसतः नौटंकी की अद्भुत गद्य गाथा

यह उपन्यास नौटंकी नाट्य शैली की गायिका एवं कलाकार रागिनी की जीवनगाथा और नाट्य शैली के जन्म, उत्थान और पतन की महागाथा को बड़े ही मार्मिक ढंग से हमारे सामने लाता है.

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यह उपन्यास नौटंकी नाट्य शैली की गायिका एवं कलाकार रागिनी की जीवनगाथा और नाट्य शैली के जन्म, उत्था यह उपन्यास नौटंकी नाट्य शैली की गायिका एवं कलाकार रागिनी की जीवनगाथा और नाट्य शैली के जन्म, उत्था

संध्या द्विवेदी / मंजीत ठाकुर

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  • 10 जनवरी 2018,
  • अपडेटेड 6:16 PM IST

भगवानदास मोरवाल का एक नया उपन्यास आया है—सुर बंजारन. हमारे यहां हिंदी साहित्य में किसी अभिनेता, लोक कलाकार या लोकगायक की जिंदगी को आधार बनाकर शायद ही कोई कहानी या उपन्यास लिखा गया हो. सुरेंद्र वर्मा के उपन्यास मुझे चांद चाहिए ने जरूर एक अभिनेत्री की जीवन गाथा के बहाने से राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और आधुनिक हिंदी रंगमंच का गहराई से जायजा लिया था. मराठी भाषा में अभिराम भड़कमकर का उपन्यास बाल गंधर्व और बांग्ला में विनोदिनी दासी का उपन्यास नटी विनोदिनी चर्चित रचनाएं रही हैं. यूं मराठी में ही शिरवाडकर के नाटक नट सम्राट का उल्लेख भी किया जा सकता है, भले ही उसकी रचना के लिए इतालवी भाषा के सुप्रसिद्ध नाटककार लुई पिरांदेलो के नाटक हेनरी द फोर्थ से प्रेरणा मिली.

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यह उपन्यास दो कारणों से रेखांकित किया जाना चाहिए. एक नौटंकी नाट्य शैली की गायिका और कलाकार रागिनी की जीवनगाथा को तो प्रस्तुत करता ही है, इससे भी ज्यादा यह इस नाट्य शैली के जन्म, उत्थान और पतन की महागाथा को बड़े ही मार्मिक ढंग से हमारे सामने लाता है. हम जानते हैं कि नौटंकी की कानपुर शैली में अभिनय पर और हाथरस शैली में गायिकी पर जोर होता है. मोरवाल ने बड़े मनोयोग से शोध-अनुसंधान और पूरी खोजबीन के साथ एक-एक तथ्य को उघाड़कर रख दिया है. उपन्यास में आए सभी पात्र हमारे इतने परिचित हैं कि पढ़ते-पढ़ते हम उनके साथ एकाकार हो जाते हैं. इस उपन्यास में जगह-जगह इस बात की संभावनाएं थीं कि सारे विवरण बहुत ही भावुक और मैलोड्रामैटिक हो जाते. लेकिन लेखक ने कहीं भी ऐसा नहीं होने दिया, चाहे रागिनी की मां की मृत्यु का प्रसंग हो अथवा प्रदर्शन के दौरान उनके पति की मृत्यु की घटना—जिस तरह से इन प्रसंगों को रचा गया है, उससे लेखक का कलात्मक संयम जाहिर होता है. इससे बड़ा संयम और क्या होगा कि शाहजहां के सबसे बड़े बेटे दाराशुकोह ने जिस शहर को बसाया और जिसमें इसकी नायिका रागिनी रहती थी, उसका नाम उपन्यास की अंतिम चार पंक्तियों में जाकर हमारे सामने आता है.

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सुर बंजारन को पढऩा मेरे लिए एक आह्लादकारी अनुभव से गुजरना था. इसके लिए लेखक की सहज-सरल भाषा, बीच-बीच में लोकभाषा और बोली का पुट और मुहावरों से पुष्ट शैली इस अनुभव के लिए जिम्मेदार है. लेखक इस हद तक अपने कथानक और उसकी नायिका के साथ गुंफित हो गया है कि कुछ तथ्यों की अनदेखी कर दी गई है. उदाहरण के लिए ऐसा नहीं था कि आगा हश्र कश्मीरी को पारसी रंगमंडली में रोज एक नाटक लिखकर देना होता था. सच्चाई ये है कि उन्हें एक साल में एक नया नाटक लिखकर देना होता था. यहां इस बात का जिक्र करना भी जरूरी लगता है कि उपन्यास में आए लगभग सभी पात्रों के नाम वास्तविक हैं, ऐसे में सिर्फ नायिका का नाम काल्पनिक क्यों? इसके पीछे रचनाकार के कुछ सामाजिक दबाव अवश्य रहे होंगे. इसके बावजूद विषयवस्तु, रचना शैली और पठनीयता में निश्चित रूप से यह उपन्यास एक मील का पत्थर माना जा सकता है.   

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