गुजरात चुनाव: BJP को फिर आई राष्ट्रवाद, आतंकवाद और अस्मिता की याद

गुजरात में ध्रुवीकरण की राजनीति का गेम चेंजिंग कार्ड खेल दिया गया है. भाजपा ने तीर तो अंधेरे में चलाया है, लेकिन निशाना सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार और लंबे समय तक पार्टी के संकटमोचक रहे अहमद पटेल पर है. यह भाजपा की सोची समझी रणनीति का हिस्सा है. चोट वहां करो या उस पर करो जो गांधी परिवार का विश्वसनीय हो.

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गुजरात में 9 दिसंबर और 14 दिसंबर को मतदान होने हैं गुजरात में 9 दिसंबर और 14 दिसंबर को मतदान होने हैं

मौसमी सिंह

  • गांधीनगर,
  • 28 अक्टूबर 2017,
  • अपडेटेड 2:36 PM IST

गुजरात के चुनावी समर का तीसरा राउंड शुरू हो चुका है. पहला राउंड राज्यसभा चुनाव के दौरान था, जब भाजपा ने कांग्रेस की नाक में दम कर दिया था और कांग्रेस दिग्गज अहमद पटेल को जीतने के लिए नाकों चने चबाने पड़े थे.

इसके बाद दूसरा राउंड आया चुनाव की तारीखों के एलान का. यह वो वक्त था जब 'विकास पगला गया है' कैंपेन से कांग्रेस चींटी की तरह हाथी की सूंढ़ में घुस गई. कम से कम सोशल मीडिया कि ट्रेंडिंग से तो ऐसा ही लगा. उस पर अल्पेश ठाकोर और हार्दिक पटेल जैसे खिलाड़ी भी भाजपा की टांग खींचते नजर आए.

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अब तीसरे राउंड शुरू हो गया है और पहला मुक्का भाजपा ने धरा है. इसके साथ ही वार की धार और तीखी होती नजर आ रही है. आनन फानन में रात में बुलाई गई प्रेसवार्ता में गुजरात के CM विजय रुपाणी ने संदिग्ध IS एजेंट की गिरफ्तारी का जिक्र करते हुए अहमद पटेल का नाम लेकर सबको चौंका दिया है.

आरोपों की बारीकी को छोड़ दें तो इसके साथ ही ध्रुवीकरण की राजनीति का गेम चेंजिंग कार्ड खेल दिया गया है. भाजपा ने तीर तो अंधेरे में चलाया है, लेकिन निशाना सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार और लंबे समय तक पार्टी के संकटमोचक रहे अहमद पटेल पर है.

यह भाजपा की सोची समझी रणनीति का हिस्सा है. चोट वहां करो या उस पर करो जो गांधी परिवार का विश्वसनीय हो. लेकिन अगर यह तीर निशाने परलग गया तो 2019 की दौड़ पर प्रभाव डालने की क्षमता रखता है.

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2007 में उलटा पड़ा था सोनिया का तीर

दरअसल 2002 के दंगों ने गुजरात की सियासत का हुलिया ही बदल दिया. 2007 के चुनाव में भी सोनिया गांधी के तरकश से निकला 'मौत का सौदागर ' वाला जुमला कांग्रेस के लिए उलटा पड़ा. हर बार चुनावी रैलियों में विकास से बात शुरू जरूर होती है पर चुनाव खत्म होते होते हिन्दू-मुसलमान पर आकर ठहर जाती है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि गुजरात जैसे प्रगतिशील और साक्षर प्रदेश में ध्रुवीकरण की सियासत आम आदमी पर भारी है.

GST, नोटबंदी से पस्त है बीजेपी

मगर इस बार मुकाबला थोड़ा दिलचस्प है. भाजपा पर जीएसटी और नोटबंदी का बोझ है. उस पर जाति आंदोलन की चोट और बाढ़ का कहर भी है. यही वजह है कि एकबार फिर राष्ट्रवाद, आतंकवाद और गुजराती अस्मिता की याद भाजपा को आ रही है. वहीं गुजरात में 22 साल के सियासी अकाल के बाद कमबैक की फिराक में लगी कांग्रेस खुद भी इसी मानसिकता में कैद है. यही वजह है कि राहुल गांधी को प्रचार के दौरान भगवान की याद ज्यादा आ रही है.

बहरहाल 2019 की पतंग को साधने के लिए गुजरात की डोर मजबूत करना दोनों पार्टियों के लिए अहम है. देखना यह है कि इस ऐतिहासिक चुनाव में जनता किसको कहती है काई पो चे!

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