कोरोना से पहले ही मौतों का रिकॉर्ड रखने में फिसड्डी है भारत

पिछले कुछ वर्षों में रजिस्टर्ड मौतों की संख्या लगातार बढ़ रही है, लेकिन देश में अब भी 14 प्रतिशत मौतों को किसी भी प्राधिकरण द्वारा दर्ज नहीं किया जाता. 2009 तक कुल मौतों में से 67 फीसदी का रजिस्ट्रेशन होता था. 2018 में यह आंकड़ा बढ़कर 86 फीसदी हो गया है.

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पिछले कुछ वर्षों में रजिस्टर्ड मौतों की संख्या लगातार बढ़ रही पिछले कुछ वर्षों में रजिस्टर्ड मौतों की संख्या लगातार बढ़ रही

aajtak.in

  • चेन्नई,
  • 19 अगस्त 2020,
  • अपडेटेड 10:47 PM IST

  • पिछले कुछ वर्षों में रजिस्टर्ड मौतों की संख्या लगातार बढ़ रही
  • 2009 तक कुल मौतों में से 67 फीसदी का रजिस्ट्रेशन होता था

कोरोना महामारी की शुरुआत के बाद से मौतों को सटीक ढंग से दर्ज करने की भारत की क्षमता सवालों के घेरे में है. लेकिन सामने आए ताजा आधिकारिक आंकड़ों से पता चलता है कि कोरोना के पहले से ही देश की बुनियादी रजिस्ट्रेशन प्रणाली विफल रही है. 2018 तक भारत में हर पांच में से सिर्फ एक मौत ही किसी मेडिकल पेशेवर की ओर से प्रमाणित हो पाई.

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भारत में बड़ी संख्या में, खासकर छोटे कस्बों और गांवों में मौत के बाद बिना किसी आधिकारिक लिखा-पढ़ी के ही लोगों का अंतिम संस्कार कर दिया जाता है. नतीजतन, भारत अब भी पूर्ण पंजीकरण के उस लक्ष्य से दूर है, जहां देश में हर एक मौत को आधिकारिक तौर पर दर्ज किया जाए.

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पिछले कुछ वर्षों में रजिस्टर्ड मौतों की संख्या लगातार बढ़ रही है, लेकिन देश में अब भी 14 प्रतिशत मौतों को किसी भी प्राधिकरण द्वारा दर्ज नहीं किया जाता. 2009 तक कुल मौतों में से 67 फीसदी का रजिस्ट्रेशन होता था. 2018 में यह आंकड़ा बढ़कर 86 फीसदी हो गया है.

इंडिया टुडे डाटा इंटेलीजेंस यूनिट (DIU) को ये जानकारी 2018 के उन आंकड़ों के विश्लेषण से प्राप्त हुई है, जिसे ऑफिस ऑफ रजिट्रार जनरल ऑफ इंडिया की ओर से जारी किया गया है. कार्यालय ने 'सिविल पंजीकरण प्रणाली पर आधारित भारत के महत्वपूर्ण आंकड़े' नाम से ये रिपोर्ट जारी की है. इसके मुताबिक, एक तिहाई से ज्यादा लोगों की मृत्यु के समय चिकित्सकीय तौर पर कोई ध्यान नहीं दिया गया.

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17 राज्य, खासकर जो कम विकसित हैं, मौतों का पंजीकरण करने में बेहद पिछड़े हैं. भारत में बड़े राज्यों में से बिहार में सबसे कम पंजीकरण किया जाता है. 2018 तक बिहार में सिर्फ एक तिहाई मौतों का ही रजिस्ट्रेशन किया गया.

यहां तक कि जो मौतें दर्ज की जाती हैं, उनमें से एक छोटा हिस्सा ही ऐसा है जिसे किसी पेशेवर चिकित्साकर्मी द्वारा प्रमाणित किया जाता है. यह संख्या समय के साथ बहुत धीरे-धीरे बढ़ी है. सबसे विकसित राज्यों में भी अधिकांश मौतों को कोई मेडिकल सर्टिफिकेट नहीं मिला है.

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1998 में कुल रजिस्टर्ड मौतों में से चिकित्सकीय तौर पर प्रमाणित मौतों का प्रतिशत 15 था. 2008 में प्रमाणित मौतों का आंकड़ा बढ़कर 19 प्रतिशत हुआ और 2018 में 21 प्रतिशत तक पहुंच पाया. इसका मतलब है कि भारत में कुल मौतों में से मात्र 18 प्रतिशत मौतें चिकित्सकों की ओर से प्रमाणित होती हैं.

बड़े राज्यों में झारखंड और उत्तर प्रदेश ऐसे राज्य हैं जो प्रमाणित मौतों के मामले में सबसे नीचे हैं. झारखंड में मात्र 4.6 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में 5.1 प्रतिशत मौतें मेडिकली सर्टिफाइड होती हैं.

मौतों के कम पंजीकरण की वजह से भारत उन देशों की सूची में निचले स्तर पर है, जहां किसी की मौत होने पर मेडिकल सर्टिफिकेट के साथ बाकायदा पंजीकरण किया जाता है.

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क्या इसका कोरोना से हो रही मौतों के रजिस्ट्रेशन पर भी असर पड़ेगा? चूंकि कोरोना पर बहुत व्यापक स्तर पर नजर रखी जा रही है, इसलिए इसकी संभावना बहुत कम है कि इससे हुई मौतें दर्ज न की जाएं.

हालांकि, इसकी भी संभावना कम ही है कि जो राज्य सामान्य दिनों में मौतों का सटीक आंकड़ा नहीं रख पाते, वे कोरोना के समय पूरी तरह से सटीक आंकड़े पेश करेंगे. खासकर, ऐसे राज्य जहां की प्रशासनिक क्षमता कमजोर है.

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